वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले पखवाड़े आर्थिक प्रोत्साहन की दिशा में एक और कदम उठाते हुए 2.65 लाख करोड़ रुपये के आत्मनिर्भर भारत 3.0 पैकेज की घोषणा की। इस पैकेज की पृष्ठभूमि काफी अलग है जिसमें तमाम संकेतक भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार दर्शा रहे हैं। अक्टूबर महीने में कर राजस्व संग्रह 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक रहा है, लगातार छह महीनों तक संकुचित रहा औद्योगिक उत्पादन सितंबर में सकारात्मक हो गया और निर्यात भी अक्टूबर में बढ़ गया। इसके अलावा बैंकर भी कर्ज अदायगी की तस्वीर में काफी सुधार देख रहे हैं और कर्ज पुनर्गठन की इच्छा जताने वाले कर्जदारों की संख्या भी अनुमान से काफी कम है।
तकनीकी स्तर पर भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी के दौर में प्रवेश कर चुकी है क्योंकि लगातार दो तिमाहियों तक इसमें संकुचन हुआ है लेकिन संकुचन की मात्रा आशंका से कहीं कम है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के ताजा आर्थिक गतिविधि सूचकांक के मुताबिक चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का संकुचन 8.6 फीसदी रहा है, जो अक्टूबर में मौद्र्रिक नीति समीक्षा के वक्त लगाए गए 9.8 फीसदी के अनुमान से कम है। रेटिंग एजेंसी मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस ने भी कैलेंडर वर्ष 2020 के लिए अपना पूर्वानुमान संशोधित करते हुए जीडीपी में 8.9 फीसदी संकुचन की बात कही है जबकि पहले उसने 9.6 फीसदी संकुचन की आशंका जताई थी।
इस बीच फिच रेटिंग्स के सहयोगी संगठन फिच सॉल्यूशंस ने वित्त वर्ष 2020-21 में भारत का राजकोषीय घाटा जीडीपी का 7.8 फीसदी रहने का अनुमान जताया है जबकि उसने पहले 8.2 फीसदी घाटे की बात कही थी। अधिक राजस्व प्राप्तियों और कम सरकारी खर्च को देखते हुए अनुमान में बदलाव किया गया है।
वित्त मंत्रालय मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का तीसरे बजट फरवरी में पेश किए जाने की तैयारी पहले ही शुरू कर चुका है। बजट के पहले का यह आखिरी प्रोत्साहन पैकेज हो सकता है। सवाल है कि क्या यह पैकेज उस समय एक सही बूस्टर खुराक है जब उपभोक्ता मांग में तेजी त्योहारी मौसम के बाद भी जारी रहने पर राय काफी हद तक बंटी हुई है? इस पैकेज के बारे में राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएं उनके सियासी झुकाव के अनुरूप ही हैं जबकि तमाम स्वतंत्र विश्लेषक इन राजकोषीय कदमों को महज कलई चढ़ाने वाला मान रहे हैं।
भले ही इस पैकेज का आकार 2.65 लाख करोड़ रुपये का है लेकिन इसकी राजकोषीय लागत 1 लाख करोड़ रुपये ही है। आधे से अधिक पैकेज (1.46 लाख करोड़ रुपये) अर्थव्यवस्था के 10 क्षेत्रों को उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन (पीएलआई) देने के लिए रखा गया है। इस पैकेज से वृद्धि को बढ़ावा मिलेगा और रोजगार पैदा होंगे लेकिन हमें इसके नतीजे देखने के लिए कई साल इंतजार करना होगा। दूसरा बड़ा घटक उर्वरक सब्सिडी (65,000 करोड़ रुपये) है। इसके आकार को देखते हुए लगता है कि कहीं यह राशि उर्वरक उत्पादकों का पिछला बकाया चुकाने के लिए तो नहीं है।
उदारवादी नजरिये से देखें तो मई से लेकर नवंबर के बीच घोषित तीनों प्रोत्साहन पैकेजों के मद में दर्ज कुल 29.88 लाख करोड़ रुपये से जीडीपी को 2.3 फीसदी राजकोषीय प्रोत्साहन ही मिलता है। यह अनुपात कोविड महामारी से प्रभावित अधिकतर देशों की खर्च की मंशा से बहुत कम है। इन पैकेजों का बड़ा हिस्सा सब्सिडी एवं खैरात को दिया गया है, असल में वे प्रोत्साहन कदमों से कहीं अधिक कल्याणकारी उपाय हैं और इस साल के बजट में निर्धारित पूंजीगत व्यय नहीं होने से ये पैकेज एक हद तक उसकी भरपाई कर रहे हैं।
आत्मनिर्भर भारत 3.0 पैकेज की सबसे अच्छी बात यह है कि 3 लाख करोड़ रुपये आकार की आपात ऋण सीमा गारंटी योजना (ईसीएलजीएस) को 31 मार्च, 2021 तक बढ़ा दिया गया है। यह योजना अक्टूबर 2020 में ही खत्म होने वाली थी, लेकिन इसे नवंबर मध्य तक के लिए बढ़ा दिया गया था।
कर्ज पुनर्भुगतान की अवधि को चार साल से बढ़ाकर पांच साल किया जा रहा है, जिसमें एक साल की भुगतान छूट का भी प्रावधान है। इस योजना के दायरे में अब 26 तनावग्रस्त क्षेत्रों में सक्रिय वे कंपनियां आएंगी जिन पर 500 करोड़ रुपये का कर्ज बकाया है। इन क्षेत्रों की पहचान के वी कामत समिति ने की है।
यह योजना मूलत: किसी भी कारोबारी इकाई को मदद के लिए लाई गई थी, भले ही वह एमएसएमई हो या न हो। शर्त यह थी कि उस फर्म का कारोबार 100 करोड़ रुपये हो और उस पर 29 फरवरी 2020 तक 25 करोड़ रुपये से अधिक कर्ज बकाया न हो। इस योजना के तहत कारोबार अपने बकाया कर्ज के 20 फीसदी तक की रकम बैंक से नए कर्ज के तौर पर ले सकते थे। इस तरह एक कंपनी 5 करोड़ रुपये तक का नया कर्ज ले सकती थी। अपने बकाया कर्ज के पुनर्भुगतान को 60 दिनों से अधिक नहीं टालने वाली कोई भी इकाई यह सुविधा पाने की हकदार थी।
बाद में कारोबार की सीमा को बढ़ाकर 250 करोड़ रुपये और बकाया कर्ज की सीमा को बढ़ाकर 50 करोड़ रुपये कर दिया गया। अब सरकार ने कारोबारी फर्म के कारोबार की सीमा खत्म कर दी है और सिर्फ 500 करोड़ रुपये की अधिकतम बकाया कर्ज सीमा की शर्त ही रह गई है। फिलहाल हरेक तनावग्रस्त कंपनी 20 फीसदी बकाया कर्ज सीमा के तहत अधिकतम 100 करोड़ रुपये का नया कर्ज ले सकती है।
इस योजना के तहत बैंकरों ने गत 12 नवंबर तक 61 लाख कर्जदारों को 1.52 लाख करोड़ रुपये के नए कर्ज दिए हैं। हालांकि इस समय तक 2.05 लाख करोड़ रुपये के कर्ज की संस्तुति की जा चुकी थी। योजना की मियाद बढ़ाने का एक कारण यह भी हो सकता है कि आधा पैकेज अभी तक इस्तेमाल ही नहीं हो पाया है। अगर ऐसा है भी तो यह नए पैकेज की सबसे अच्छी बात है।
बहुत कम एमएसएमई इकाइयों का ही उपभोक्ताओं से सीधा संपर्क होता है। वे बड़ी कंपनियों को तैयार उत्पादों की आपूर्ति करती हैं लेकिन उनमें से कई इकाइयों की सेहत ठीक नहीं है और उनके अपने पैरों पर खड़े नहीं होने तक एमएसएमई क्षेत्र की चिंताएं बनी रहेंगी। नया पैकेज अपेक्षाकृत बड़े आकार वाली कंपनियों का ध्यान रख लेगा। इससे एमएसएमई तेजी से बेहतर हो पाएंगे और तनावग्रस्त क्षेत्रों में यह पैकेज कई कंपनियों के लिए जीवनरेखा के रूप में काम करेगा। एक तरह से यह सरकार की तरफ से 20 फीसदी इक्विटी डालने जैसा है। जैसे ही गतिविधियां बढ़ेंगी, सरकार का कर संग्रह भी बढ़ेगा और अर्थव्यवस्था के कई स्तरों पर उसका सकारात्मक असर पड़ेगा। इससे बैंकों पर कर्ज पुनर्गठन का दबाव भी कम होगा।
अगर हम मान लें कि 1.5 लाख करोड़ रुपये के बैंक कर्ज 500 करोड़ रुपये के बकाया कर्ज वाली कंपनियों को बांटे जाएंगे तो इन कंपनियों पर वित्तीय प्रणाली का कुल कर्ज 7.5 लाख करोड़ रुपये हो जाएगा। अगर इसमें से 10 फीसदी कर्ज फंस भी जाता है तो बैंकों को उसके लिए 75,000 करोड़ रुपये का प्रावधान करने की जरूरत होगी जो सूचीबद्ध बैंकों के एक तिहाई के परिचालन लाभ से काफी कम है। इसके अलावा सभी कर्ज एक ही साथ नहीं फंसेंगे। अधितकर बैंकों ने पुराने फंसे कर्ज के लिए समुचित वित्तीय प्रावधान भी किए हुए हैं। उनकी बैलेंस शीट दो साल पहले की तुलना में अब कहीं अधिक बेहतर हाल में है।
आलोचक कह सकते हैं कि यह कदम अपरिहार्य स्थिति को बस टालने वाला है, लेकिन जमीनी हकीकत देखते हुए यह सही फैसला है।
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक एवं जन स्मॉल फाइनैंस बैंक के वरिष्ठ परामर्शदाता हैं)
