एक खास तरह के अर्थशास्त्रियों के लिए बजट सत्र कल्पना के घोड़ों को खुला छोड़ देने का वक्त होता है। लिहाजा दो बुरे खयालों को इतनी शिद्दत से रखा जा रहा है कि पिछले मौकों की तरह अच्छे लोग भी इन बुरे खयालों पर गौर करने की सोच रहे हैं।
पहला गलत विचार एक ‘बैड बैंक’ के गठन का है। वहीं दूसरा विचार फिर से एक विकास वित्त संस्थान (डीएफआई) बनाने का है। बैड बैंक का आशय ऐसे वित्तीय संस्थान से है जो दूसरे बैंकों के फंसे कर्ज को अपने जिम्मे ले लेता है ताकि उनकी बैलेंस शीट में कोई खराबी न दिखे। भारत में सड़कों की सफाई कुछ इसी अंदाज में होती है- गंदगी को एक कोने से दूसरे कोने में खिसकाते रहो ताकि कोई दूसरा उसे साफ कर दे।
वहीं डीएफआई अधिक जोखिम एवं लंबी पूर्णता अवधि वाली परियोजनाओं को इस उम्मीद में पैसे उधार देता है कि वह रकम उसे वापस मिल जाएगी। भारत में पहले भी दो डीएफआई रह चुके हैं लेकिन 1999-2001 के बीच सरकार को उनके वित्तीय हालात के चलते उन्हें बंद करना पड़ा था। ये बुरे खयाल आखिर एक बार फिर क्यों उछाले जा रहे हैं? भारत में जोखिम एवं अनिश्चितता के बीच लगातार संदेह होने से ऐसी स्थिति पैदा हुई है। इसका परिणाम यह हुआ है कि व्यापक आर्थिक संभावना होने के बावजूद भारत इसका समुचित दोहन नहीं कर पाया है। भारत के खराब प्रदर्शन को परिभाषित करने के लिए कई व्याख्याएं रखी जाती रही हैं। ऐसी ही एक व्याख्या यहां पेश की जा रही है। इसकी संभावना तो कम ही है कि इससे कोई खास फर्क पड़ेगा लेकिन एक कोशिश की जा सकती है।
जोखिम
हर शख्स की तरह भारत की सरकारों ने भी जोखिम को न्यूनतम करने एवं यथासंभव खत्म करने की भी कोशिशें की हैं। ऐसा करना पूरी तरह वाजिब भी है।
इस तरह समूची नीति एवं नियामकीय प्रयास सभी आर्थिक एजेंटों के लिए जोखिम कम करने या पूरी तरह खत्म करने में ही लगे रहे हैं। यह शायद इकलौता ऐसा काम है जिसमें हमारी अफसरशाही बहुत अच्छी है। कहा जाना चाहिए कि वे काफी हद तक सफल रहे हैं। जो नाकामियां हुई हैं उनकी बड़ी वजह भ्रष्टाचार है, न कि जोखिम खत्म करने के प्रयासों की कमी। लेकिन कोशिशों में कामयाबी की कीमत भी चुकानी पड़ी है। असल में, कई लोग यह दलील देंगे कि इस कामयाबी की ही वजह से अर्थव्यवस्था को रोका जा सका है। अर्थशास्त्रियों ने जोखिमों एवं उन्हें कम करने के बारे में विस्तार से लिखा है। ऐसा करने के कुछ अच्छे एवं कुछ बुरे तरीके भी हैं। अमूमन भारतीय सरकारों ने इसे अंजाम देने के लिए खराब तरीके ही अपनाए हैं।
नियोजन ऐसा ही एक बुरा तरीका था। कीमतों का नियमन भी एक बुरा तरीका था। उद्योग लाइसेंस का प्रावधान भी खत्म किए जाने तक काफी नुकसान पहुंचा चुका था। सरकार के निर्देश पर ऋण देना भी बुरा तरीका ही था। सरकार के स्वामित्व वाले केंद्रीय बैंक की मौजूदगी भी अपने आप में बुरा विचार था। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) 1949 तक निजी नियंत्रण में था।
बात केवल इतनी है कि जोखिम कम करना एक बेहतरीन सोच है लेकिन इसका मतलब रिटर्न में कमी भी होता है। उसकी वजह से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि की दर अनवरत रूप से नीचे रहती आई हैं। यह सुस्त रफ्तार से गाड़ी चलाते हुए बस स्टॉप पहुंचने जैसा है क्योंकि तब तक बस छूट चुकी होती है।
अनिश्चितता
अनिश्चितता जोखिम का ही जुड़वा रूप है। देखने में यह एक जैसा लगता है लेकिन यह पूरी तरह अलग भी है। ऐसा होने की वजह यह है कि जोखिम को एक हद तक काबू में किया जा सकता है लेकिन अनिश्चितता को खत्म नहीं किया जा सकता है।
मसलन, गाड़ी चलाते समय जोखिम होते हैं लेकिन धीमी रफ्तार से गाड़ी चलाकर एवं सभी नियमों का पालन करते हुए जोखिमों को दूर किया जा सकता है। लेकिन गाड़ी चलाते समय कई अनिश्चितताएं भी होती हैं। उस समय आप क्या करते हैं जब कोई अचानक ही आपकी कार के सामने आ जाए? यही अनिश्चितता है और इसे किसी भी तरह से दूर नहीं किया जा सकता है।
सबसे पहले अमेरिकी अर्थशास्त्री फ्रैंक नाइट ने 98 साल पहले यह फर्क किया था। उनका सिद्धांत ‘नाइट की अनिश्चितता’ नाम से जाना जाता है और नीति-निर्माताओं के लिए यह एक अनिवार्य पाठ्यक्रम होना चाहिए।
मैं ऐसा इसलिए कहता हूं कि भले ही अफसरशाह जोखिम को कम करने के लिए राजनीतिक आदेशों को अमल में लाते हैं लेकिन वे आखिर में अनिश्चितता ही बढ़ाते हैं। इसका उलटा होना सच नहीं है क्योंकि अनिश्चितता अपने-आप में अलग श्रेणी की होती है। यही वजह है कि भारत में किसी को भी नहीं मालूम है कि नीति में कब अचानक एवं अप्रत्याशित ढंग से बदलाव होगा। और हमारा बजट ऐसे बदलावों की घोषणा का एक थोक अवसर मुहैया कराता है। यह आपाधापी में की जाने वाली हरकत है और अपने सबसे खराब रूप में यह ‘नाइट की अनिश्चितता’ भी बन जाती है क्योंकि यह मूलत: यही कहती है कि किसी भी समय इंसानी व्यवहार में ज्ञान की एक सीमा होती है। इसकी वजह से नतीजों को नजरअंदाज करने से अनिश्चितता चौतरफा बढ़ जाती है।
इस बात को बजटों की राजस्व बढ़ाने वाली कोशिशों से बेहतर कोई भी नहीं दर्शाता है। सरकार सोचती है कि उसके पास जितना अधिक पैसा होगा वह उतना ही अधिक वृद्धि तेज कर सकेगी। लेकिन उसकी इस कोशिश का नतीजा वृद्धि को सुस्त करने के रूप में निकलता है क्योंकि यह अनिश्चितता बढ़ाकर निवेश के जोखिम को भी बढ़ा देता है।
इसीलिए मुझे अक्सर लगता है कि अगर वित्त विधेयक पांच साल में केवल एक बार ही पेश होता तो क्या बेहतर नहीं होता? हर साल पिछले साल के वित्त विधेयक में 75-100 बदलाव कर दिए जाते हैं। ऐसे में पांच साल तक कोई वित्त विधेयक नहीं लाने का मतलब होगा कि हम ऐसी सड़क पर दौड़े चले जा रहे हैं जिसमें घुमावदार मोड़ और गड्ढे नहीं हैं।