दुनिया के देशों को इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या बढ़ाने एवं उनके इस्तेमाल पर ध्यान देना चाहिए। ऐसा करना तीन प्रमुख कारणों से महत्त्वपूर्ण है। पहला कारण जलवायु परिवर्तन है। परिवहन क्षेत्र भारी मात्रा में पेट्रोल एवं डीजल पी जाता है और दुनिया में सालाना कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में इस क्षेत्र की हिस्सेदारी लगभग 15 फीसदी तक पहुंच जाती है। इलेक्ट्रिक वाहन तेल के बजाय बिजली से चलते हैं और यह बिजली आदर्श रूप में अक्षय-ऊर्जा संयंत्रों में उत्पन्न की जाती है। ये संयंत्र कार्बन उत्सर्जन कम करने के समाधान के रूप में देखे जाते हैं। इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या बढ़ाने एवं उनके इस्तेमाल का दूसरा कारण भारतीय शहरों के लिहाज से काफी महत्त्वपूर्ण है। पेट्रोल एवं डीजल वाहनों की जगह शून्य उत्सर्जन वाले वाहनों के इस्तेमाल से स्थानीय स्तर पर प्रदूषण कम हो जाएगा। तीसरा कारण यह है कि तेल की खपत कम होने से हमारा मूल्यवान विदेशी मुद्रा भंडार भी कम खर्च होगा।
ये सभी ऐसे कारण हैं जिनके लिए इलेक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना जरूरी है। मगर केवल इतना करने से वे बदलाव नहीं आ पाएंगे जिनकी जरूरत है। हमें स्थिति की समीक्षा करनी होगी। हमें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि हम क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं। इससे न केवल हम इलेक्ट्रिक वाहनों की तरफ आगे बढ़ पाएंगे बल्कि वे लाभ भी हासिल कर पाएंगे जिनकी जरूरत महसूस की जा रही है।
आइए, पहले हम अपने शहरों की स्थिति पर विचार करते हैं जहां इलेक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल बढ़ने से वायु प्रदूषण कम होगा और इसका लाभ हमें कई मोर्चों पर मिलेगा। विदेशी मुद्रा बचने के साथ ही ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन भी कम हो जाएगा। ये सभी लाभ हमें तभी मिल पाएंगे जब इस दिशा में अपनाई जाने वाली नीति को लेकर हमारी सोच स्पष्ट एवं दुरुस्त होगी। इसके बाद ही हम व्यापक स्तर पर अपेक्षित परिणाम हासिल कर पाएंगे। वर्ष 2019 में नीति आयोग ने भारत में इलेक्ट्रिक वाहनों के इस्तेमाल से जुड़ा लक्ष्य पेश किया था। यह लक्ष्य तय किया गया था कि 2030 तक सभी नई व्यावसायिक कारों में इलेक्ट्रिक वाहनों की हिस्सेदारी 70 फीसदी, निजी कारों में 30 फीसदी, बसों में 40 फीसदी और दोपहिया एवं तिपाहिया खंडों में 80 फीसदी तक पहुंच जाएगी।
हम इस लक्ष्य से अब भी काफी दूर हैं क्योंकि 2025 के मध्य तक केवल तिपहिया वाहनों के खंड में ही इलेक्ट्रिक वाहनों का इस्तेमाल बढ़ा है जहां 60 फीसदी से अधिक पंजीयन इलेक्ट्रिक वाहनों के हुए हैं। ये सभी गैर-ब्रांड और स्थानीय स्तर पर तैयार वाहन हैं जो सड़कों पर दिखाई दे रहे हैं मगर यातायात का सस्ता माध्यम उपलब्ध कराते हैं। बाकी खंडों में इलेक्ट्रिक वाहनों का पंजीयन मात्र 5-6 फीसदी (कारों, दोपहिया या बसों में) तक सीमित है। इससे प्रदूषण घटाने, तेल आयात कम करने या कार्बन उत्सर्जन रोकने में कोई बड़ी मदद नहीं मिल रही है।
यह स्थिति तब है जब हम अच्छी तरह वाकिफ हैं कि वाहन वायु प्रदूषण बढ़ाने के प्रमुख कारणों में शामिल हैं। समस्या केवल वाहनों की विभिन्न श्रेणियों की नहीं है जो वायु प्रदूषण बढ़ाती हैं बल्कि इनकी संख्या से भी जुड़ी हुई है। इनकी तादाद अधिक होने से सड़कों पर अक्सर भीड़ रहती हैं और आवागमन घोंघे की चाल से होता है जिससे वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ता रहता है। अतः वायु प्रदूषण रोकने की दोहरी कार्य योजना इलेक्ट्रिक वाहनों की तरफ कदम बढ़ाने और वाहनों की संख्या में कटौती पर केंद्रित है।
जब 2000 के दशक में दिल्ली ने कम्प्रेस्ड नैचुरल गैस (सीएनजी) की तरफ कदम बढ़ाया था तो इसका मकसद अधिक प्रदूषण फैलाने वाली बसों, टैक्सियों एवं ऑटो-रिक्शा से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करना था। किसी भी शहर, खासकर, दिल्ली में सार्वजनिक एवं वाणिज्यिक वाहनों की यह श्रेणी सबसे अधिक परिचालन में है। प्रदूषण का विज्ञान कहता है कि सड़कों पर वाहन जितनी देर तक चलेंगे उत्सर्जन भी उतना ही अधिक होगा। इसके अलावा, पुराने वाहनों की जगह नए सीएनजी मॉडल अपनाने के लिए दी गई सब्सिडी का उद्देश्य सार्वजनिक यातायात प्रणाली में सुधार करना था। इसका लक्ष्य लोगों को यात्रा करने के लिए अधिक जगह देना था न कि अधिक वाहन सड़कों पर उतारना था।
मगर दिल्ली में यह पहल गलत दिशा में आगे बढ़ गई। यह एक ऐसी नीतिगत चूक है जिसे हमें बिल्कुल नहीं दोहराना चाहिए। ऐसी चूक हमें स्वच्छ ऊर्जा के लाभों से वंचित रखती है और सार्वजनिक निवेश के अपेक्षित लाभ भी नहीं मिल पाते हैं।
सीएनजी क्रांति के दो दशकों बाद भी दिल्ली पर्याप्त स्तर पर अपनी सार्वजनिक परिवहन प्रणाली में सुधार करने में सक्षम नहीं रही है। इस वजह से सड़कों पर वाहनों की भीड़ कम होने का नाम नहीं ले रही है। दिल्ली में रोजाना 1,800 नए निजी वाहन सड़कों पर उतरते हैं जिनमें 500 से अधिक निजी कारें होती हैं। पूरे देश में रोजाना 10,000 से अधिक निजी कारें सड़कों पर उतरती हैं।
तमाम नए फ्लाईओवर और सड़क व्यवस्था के बावजूद सड़कों पर वाहनों की बढ़ती तादाद सीधे तौर पर कह रही है कि हम उकताहट पैदा करने वाले यातायात के झमेले में फंसे हैं और सुस्त रफ्तार से आगे बढ़ रहे हैं। सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट (सीएसई) में मेरे सहकर्मियों ने घंटेवार यात्रा आंकड़ों का विश्लेषण किया और उन्हें गूगल ऐप्लिकेशन प्रोग्रामिंग इंटरफेस (एपीआई) से खंगाला। उन्होंने पाया कि सप्ताह के आम दिनों में दिल्ली में सुबह के समय अधिक भीड़ के समय रफ्तार 41 फीसदी और शाम में 56 फीसदी तक कम हो जाती है।
सड़कों पर बिताए घंटों और बढ़ते वायु प्रदूषण के बीच सीधा संबंध है। मगर यह संबंध लगातार गहराता जा रहा है। एक अन्य अध्ययन में मेरे सहकर्मियों ने पाया कि बसें लगातार सड़कों पर वाहनों की भारी भीड़ के बीच फंसी रहीं जिससे उनमें यात्रा करने वाले लोगों की संख्या कम होती गई। लोग बस छोड़कर अधिक भरोसेमंद निजी वाहनों की तरफ कदम बढ़ाने लगे। दिल्ली मेट्रो, जिसकी अब पहुंच काफी बढ़ गई हैं, वह भी पिछड़ रही हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि मेट्रो स्टेशन पर उतरने के बाद गंतव्य तक पहुंचने के यातायात के पर्याप्त साधन उपलब्ध नहीं हैं और अधिक किराया लगने सहित दूसरी कई समस्याएं भी आड़े आ रही हैं।
लिहाजा, आगे का रास्ता यह है कि हमें अपनी नीति पर ध्यान केंद्रित कर उस पर गंभीरता से चर्चा करनी चाहिए। राष्ट्रीय स्वच्छ वायु योजना (एनसीएपी) का जोर स्वच्छ वाहन और कम वाहन के दोहरे लक्ष्य एक साथ साधने पर होना चाहिए। उच्च वायु प्रदूषण वाले शहरों को ध्यान में रखते हुए एनसीएपी की शुरुआत की गई है। हमारे लिए केवल नए इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि यातायात में इसकी आदर्श साझेदारी भी बेहद जरूरी है ताकि प्रत्येक शहर सार्वजनिक परिवहन का विस्तार करने पर ध्यान दे पाएं और एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने में लोगों का समय और धन दोनों बचे।
इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि लोग अपने घरों पर गुणवत्तापूर्ण समय बिता पाएं और ऐसी हवा में सांस ले जो उन्हें बीमार न बनाए। ऐसी आदर्श स्थिति अभी बिल्कुल नहीं आई है। अब सवाल है कि क्या भारत और बाकी दुनिया में वाकई निजी इलेक्ट्रिक वाहनों की जरूरत है? मैं इस पर अगली बार चर्चा करूंगी।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट से जुड़ी हैं।)