प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में चुनावी राजनीति में ‘रेवड़ी’ बांटने की संस्कृति को लेकर जो बातें कहीं वे शनिवार को वितरण क्षेत्र को लेकर तीन लाख करोड़ रुपये की रीवैंप्ड डिस्ट्रिब्यूशन सेक्टर स्कीम में अत्यधिक मजबूती से अभिव्यक्त हुईं। राज्यों पर बिजली उत्पादन और वितरण कंपनियों की 2.5 लाख करोड़ रुपये की बकाया राशि का जिक्र करते हुए मोदी ने कहा कि बिलों का निपटारा करना राजनीति नहीं बल्कि राष्ट्रनीति है। प्रधानमंत्री मोदी का वक्तव्य इस तथ्य की अनचाहे ही की गई स्वीकारोक्ति है कि बिजली क्षेत्र देश के सबसे संकटग्रस्त क्षेत्रों में से एक बना रहा है और इसके लिए राज्यों की लंबे समय से लंबित अस्थायी नीतियां जिम्मेदार हैं जिनके तहत या तो बिजली पूरी तरह नि:शुल्क दी जाती है या फिर शक्तिशाली कृषि लॉबी के चलते बिजली पर भारी सब्सिडी दी जाती है। कई बार एक खास वोट बैंक की जानबूझकर की जा रही बिजली चोरी की भी अनदेखी की जाती है। यह संकट इस बात से स्पष्ट है कि बीते दो दशक के दौरान इस क्षेत्र को उबारने के लिए केंद्र सरकार पांच योजनाएं पेश कर चुकी हैं। इनमें से तीन योजनाएं तो मोदी सरकार द्वारा ही प्रस्तुत की गई हैं।
रीवैंप्ड डिस्ट्रिब्यूशन सेक्टर स्कीम इनमें सबसे नवीनतम योजना है। यह योजना बिजली वितरण कंपनियों को वित्तीय सहायता प्रदान करेगी ताकि वे पूर्व निर्धारित अर्हता के आधार पर बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाएं तथा उसका आधुनिकीकरण करें। घाटे में चल रही वितरण कंपनियां तब तक इस सहायता की पात्र नहीं होंगी जब तक कि वे घाटा कम करने की अपनी योजना के मानक पर होने वाले मूल्यांकन में 60 प्रतिशत न हासिल करें। कुल मिलाकर लक्ष्य यह है कि 2024-25 तक समूचे देश का समग्र तकनीकी और वाणिज्यिक नुकसान मौजूदा 21.73 फीसदी से कम करके 12-15 फीसदी के दायरे में लाया जाए। इसके अलावा औसत आपूर्ति लागत तथा औसत राजस्व के बीच के अंतर को घटाकर शून्य करने का लक्ष्य है जो फिलहाल 0.39 प्रति किलोवॉट है। वित्तीय सहायता को एक खास प्रदर्शन मानक से जोड़कर ताजा योजना ने एक हद तक इस क्षेत्र को उबारने की शर्तों को 2015-18 की उज्ज्वल डिस्कॉम एश्योरेंस योजना अथवा उदय की तुलना में अधिक कड़ा बना दिया है।
उदय योजना के तहत राज्यों ने बिजली वितरण कंपनियों के कर्ज का 75 फीसदी वहन किया और शेष 25 फीसदी राशि पर सरकार समर्थित बॉन्ड की मदद से इस शर्त पर ब्याज में रियायत दी गई कि बिजली के शुल्क को व्यवस्थित किया जाएगा। लेकिन उदय के अधीन बिजली वितरण कंपनियों के नुकसान में तेजी से इजाफा हुआ। यहां तक कि सब्सिडी और मुफ्त बिजली वितरण दोगुना से अधिक हो गया। आज राज्यों के बिजली बकाये का 85 प्रतिशत हिस्सा 45 दिन या उससे अधिक के डिफॉल्ट के साथ ‘बकाये’ की श्रेणी में आता है। जब तक शुल्क दरों में तेज इजाफा नहीं किया जाता है तब तक यह बकाया बढ़ता रहेगा और केंद्र सरकार को बिजली की बढ़ती मांग की पूर्ति के लिए उत्पादकों को कोयला आयात की इजाजत देनी होगी। मोदी ने राज्यों से जो अपील की है उसमें इस बात को चतुराईपूर्वक चिह्नित करना शामिल हो सकता है कि अगर राज्यों ने कीमतों को उचित नहीं बनाया तो नयी योजना भी नाकाम साबित हो सकती है। सच तो यह है कि अब तक किसी सरकार ने ऐसा करने का राजनीतिक साहस नहीं दिखाया है क्योंकि इसका व्यापक विरोध होना तय है। ऐसे में यह देखना होगा कि नयी योजना कैसे काम करती है। लेकिन दरों को उचित बनाना अब बिजली वितरण कंपनियों के खुद के अस्तित्व के लिए भी काफी अहम हो गया है। नवीकरणीय ऊर्जा को लेकर भारत की पहल के चलते देश में छतों पर सौर पैनल लगाने की परियोजना जोर पकड़ेगी और ज्यादा तादाद में उपभोक्ता गैर किफायती राज्य ग्रिड से दूरी बना सकते हैं। इससे बिजली वितरण कंपनियों को वह क्रॉस सब्सिडी मिलनी भी बंद हो जाएगी जो उन्हें बचाए हुए है। संक्षेप में कहें तो राजनीतिक दलों को जल्दी यह समझने की आवश्यकता है कि ‘रेवड़ी’ बांटने और रोजगारपरक आर्थिक वृद्धि के बीच बहुत कमजोर रिश्ता है।
