सर्वोच्च न्यायालय ने गत सप्ताह निर्णय दिया कि भूषण पावर ऐंड स्टील (बीपीएसएल) के लिए जेएसडब्ल्यू की समाधान योजना अवैध थी। यह फैसला दिवालिया प्रक्रिया के लिए गंभीर झटके के रूप में सामने आ सकता है। एक ऐतिहासिक निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने बीपीएसएल के समापन का भी आदेश दिया। यह आदेश उसकी समाधान योजना के मंजूर होने के चार साल बाद दिया गया।
प्रभावित पक्षों के पास अपील करने का विकल्प है लेकिन अदालत का आदेश संबंधित पक्षों पर गहरा प्रभाव डाल सकता है और यह ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता यानी आईबीसी के अधीन समाधान की प्रक्रिया के प्रभाव को लेकर भी गंभीर सवाल पैदा करता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि समाधान योजना आईबीसी की धारा 30(2) की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं है। इसके अलावा उसने यह भी कहा कि समाधान पेशेवर आईबीसी के तहत अपने सांविधिक कर्तव्य का निर्वहन करने में पूरी तरह विफल रहा।
बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय के नजरिये में अकेले समाधान पेशेवर की गलती नहीं थी। ऋणदाताओं की समिति भी जेएसडब्ल्यू स्टील की समाधान योजना को स्वीकार करने में वाणिज्यिक विवेक का इस्तेमाल करने में नाकाम रही। न्यायालय ने यह भी कहा कि ऋणदाताओं की समिति ने विरोधाभासी रुख अपनाया और वह कर्जदाताओं के हितों का बचाव करने में विफल रही। हालांकि, निर्णय का सबसे अहम हिस्सा वह है जहां कहा गया कि राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट यानी एनसीएलटी को आईबीसी की धारा 31 (2) के तहत समाधान योजना को खारिज कर देना चाहिए था।
न्यायालय ने कहा कि जेएसडब्ल्यू स्टील ने ऋणदाता समूह के सामने तथ्यों को गलत तरीके से पेश करके बोली हासिल की थी और समाधान योजना के स्वीकृत होने के बाद भी उसने दो साल तक कोई काम नहीं किया। उसे कोई कानूनी कीमत भी नहीं चुकानी पड़ी। ऐसे में आदेश का सबसे बड़ा बिंदु यह है कि किसी भी चरण में प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया गया जो पूरी दिवालिया प्रक्रिया पर गंभीर सवाल खड़े करता है। अगर उपरोक्त मामले में ऐसा हो सकता है तो अन्य मामलों में भी यह संभव है।
तो आगे क्या होगा? यह आदेश ऋणदाताओं के लिए झटका है। जैसा कि विशेषज्ञों ने इस समाचार पत्र को बताया कि ऋणदाताओं को समाधान प्रक्रिया से हासिल रिकवरी वापस करनी होगी। वित्तीय ऋणदाताओं को उनके 47,204 करोड़ रुपये के दावे के विरुद्ध करीब 19,350 करोड़ रुपये की राशि हासिल हुई थी। उन्हें मौजूदा तिमाही से ही इसके लिए जरूरी प्रावधानों की शुरुआत करनी होगी। यह उनके मुनाफे पर असर डालेगा। इसके अलावा न्यायालय ने बीपीएसएल के समापन का आदेश भी दिया है।
यहां सवाल यह है कि क्या यही सबसे उपयुक्त हल था? आईबीसी का बुनियादी विचार है समाधान करके कॉरपोरेट देनदारों को बचाना और उबारना। देनदार का समापन करने से मूल्य नष्ट हो जाएगा और इससे न तो संबंधित हितधारकों के हित सधेंगे और न ही व्यापक अर्थव्यवस्था के हित सधेंगे। उदाहरण के लिए हम जानते हैं कि राष्ट्रीय राजधानी में अधिकांश आवासीय विनिर्माण अवैध है और मानकों के अनुरूप नहीं है। लेकिन उन्हें बड़े पैमाने पर ढहा देना हल नहीं हो सकता। यहां यह भी ध्यान देने प्रासंगिक होगा कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2012 में 122 दूरसंचार लाइसेंस निरस्त करने से इस क्षेत्र के कारोबारियों के आत्मविश्वास को गहरा धक्का लगा। कथित दूरसंचार घोटाले में भी आखिर कुछ नहीं निकला।
ऐसे में आर्थिक और वाणिज्यिक मसलों में न्यायालयों को भी अपने निर्णय के अनचाहे परिणाम पर ध्यान देना चाहिए। यह कोई नहीं कर रहा कि बीपीएसएल के मामले में हुई गलतियों या चूक पर ध्यान न दिया जाए लेकिन समापन से बचा जा सकता था। यह एक गलत नजीर तैयार करता है। शायद न्यायालय को एनसीएलटी से एक नया बोलीकर्ता तलाशने को कहना चाहिए था। इसके साथ ही उन पर अहम वित्तीय जुर्माना लगाया जा सकता था जिन्होंने व्यवस्था को धता बताने की कोशिश की।
इस फैसले ने एनसीएलटी की काबिलियत पर भी गंभीर सवाल उठाए हैं। चाहे जो भी हो लेकिन समाधान प्रक्रिया में देरी पहले ही भरोसे पर असर डाल रही थी। इस मामले ने उसे और क्षति पहुंचाई है। केंद्र सरकार को सावधानीपूर्वक मामले का अध्ययन करना चाहिए ताकि आईबीसी और एनसीएलटी की संस्थागत क्षमता, दोनों में जरूरी हस्तक्षेप किया जा सके।