सर्जियो गोर को भारत में अमेरिका का राजदूत और दक्षिण एवं पश्चिम एशियाई मामलों का विशेष दूत बनाए जाने की घोषणा के बाद भारत के लिए कुछ नई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं। फिलहाल भारत और अमेरिका के द्विपक्षीय संबंध नाजुक दौर से गुजर रहे हैं, ऐसे में गोर की नियुक्ति के बाद हालात और जटिल हो सकते हैं। व्हाइट हाउस में कार्मिक मामले के विभाग के प्रमुख गोर की नियुक्ति को अभी अमेरिकी संसद के ऊपरी सदन सीनेट की मंजूरी मिलनी बाकी है। उनकी नियुक्ति कई कारणों से चौंकाने वाली है जिसे देखते हुए भारत सरकार को एक सतर्क रुख के साथ आगे बढ़ना होगा।
पहली बात, 38 वर्षीय गोर को कूटनीति या विदेश मामलों का अनुभव नहीं है। अगर उनके पास ये अनुभव होते तो वह भारत जैसे बड़े एवं विविधता वाले देश के लिए स्वतः ही राजदूत के रूप में एक अच्छे विकल्प होते। व्हाइट हाउस में अपना रुतबा जमाने से पहले गोर रिपब्लिकन पार्टी के कई दिग्गज राजनीतिज्ञों के साथ काम कर चुके थे। उसके बाद वह पार्टी के ‘मागा’ (मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) गुट के साथ जुड़ गए। डॉनल्ड ट्रंप को राष्ट्रपति बनाने के अभियान को समर्थन देने वाले शुरुआती लोगों में गोर भी शामिल रहे थे।
गोर ने एक राजनीतिक कार्य समिति का संचालन किया और ट्रंप की कई पुस्तकें भी प्रकाशित कीं। ट्रंप के प्रति उनकी निष्ठा के दम पर राष्ट्रपति कार्यालय में गोर की धाक जम गई जहां उन्हें संघ सरकार में महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों के लिए उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि खंगालने की जिम्मेदारी मिली। गोर राष्ट्रपति ट्रंप के सर्वाधिक भरोसेमंद लोगों में शुमार हो गए और ट्रंप प्रशासन में कुछ वरिष्ठ लोग तो उनसे सावधान भी रहने लगे।
अमेरिका द्वारा भारी भरकम शुल्क लगाने के बीच दोनों देशों के संबंधों पर नजर रखने वाले लोगों ने ट्रंप के करीबी होने के कारण गोर के नामांकन को भारत के लिए एक अच्छा अवसर बताया है। उनके अनुसार भारत गोर को जरिया बना कर व्हाइट हाउस के साथ व्यापार वार्ता में लाभ उठा सकता है। हालांकि, यह आशावादी नजरिया हो सकता है। गोर को अब तक व्यापार के मुद्दे पर टीका-टिप्पणी करते नहीं देखा या सुना गया है। इसकी उम्मीद कम ही है कि भारत में पदस्थापित होने के बाद वह ट्रंप के रुख से अलग कोई नजरिया अपनाएंगे। राष्ट्रपति ट्रंप ने पहले ही कह दिया है कि नवनियुक्त राजदूत का मकसद ‘अमेरिका को फिर श्रेष्ठ बनाना’ है। एकतरफा व्यापार सौदा करना भी ‘मागा’ की रणनीति का एक हिस्सा रहा है।
एक और बात जो अजीब लग रही है वह यह कि विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा कि उन्होंने गोर की नियुक्ति के बारे में ‘पढ़ा’ है और सार्वजनिक रूप से किसी दूसरे देश की राजदूत की नियुक्ति पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया। यह संभव है कि गोर की नियुक्ति के संबंध में स्थापित कूटनीतिक औपचारिकताओं एवं परंपराओं का पालन नहीं हुआ हो। अधिकांश देश किसी देश में अपने राजनयिक भेजने से पहले एक-दूसरे से बात करते हैं। यह औपचारिकता देशों के बीच राजनयिक संबंधों की बुनियादी जरूरत समझी जाती है।
इस मामले में इस परंपरा को दरकिनार किया जाना चिंता की बात है क्योंकि गोर दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया के विशेष दूत भी होंगे। यह पहलू भारत के लिए चिंता की बात हो सकती है। गोर को अलग से दी गई यह जिम्मेदारी न केवल भारत और पाकिस्तान को समान ओहदा दिए जाने का संकेत दे रही है बल्कि बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और भूटान सहित भारत के पड़ोसी मुल्कों के साथ संबंधों में भी अमेरिका के दखल देने की आशंका बढ़ गई है। वर्ष 2009 में भारत ने ओबामा प्रशासन के कार्यकाल में रिचर्ड हॉलब्रूक को भारत और पाकिस्तान के लिए विशेष दूत का पद दिया जाना अस्वीकार कर दिया था।
भारत की आपत्ति के बाद हॉलब्रूक को पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान के लिए अमेरिका का विशेष दूत बनाया गया। हॉलब्रूक अमेरिकी प्रशासन की ‘अफ-पाक’ नीति पर काम करने लगे और अफ़गानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत की भूमिका को देखते हुए उससे कभी-कभी मशविरा भी किया करते थे। मगर भारत में अमेरिका के अगले राजदूत के रूप में गोर की नियुक्ति को इस नजरिये से नहीं देखा जा सकता। जिस तरीके से गोर की नियुक्ति हुई है, उन्हें जो जिम्मेदारी दी गई है और स्वयं उनकी जो पृष्ठभूमि रही है उन्हें देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि भारत-अमेरिका के संबंध जल्द सामान्य हो पाएंगे।