सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की नई रिपोर्ट ‘वीमेन ऐंड मेन इन इंडिया 2024’ उत्साहवर्धक प्रगति और निरंतर बरकरार चुनौतियों की ओर संकेत करती है। रिपोर्ट के अहम निष्कर्षों में से एक है देश की श्रम शक्ति, शासन और आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की बढ़ती मौजूदगी। ध्यान देने वाली बात है कि महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी 2017-18 के 23.2 फीसदी से बढ़कर 2023-24 में 41.7 फीसदी हो गई। यह बड़ी उपलब्धि है मगर पुरुषों की 77.2 फीसदी भागीदारी से काफी कम है और विश्व बैंक के अनुसार दुनिया भर में महिलाओं के 50 फीसदी भागीदारी के औसत से बहुत कम है। इससे पता चलता है कि न केवल अवसरों में अंतर है बल्कि व्यवस्थागत हालात भी ऐसे हैं जो महिलाओं को हतोत्साहित करते हैं। किंतु उत्साहित करने वाली बात यह है कि ग्रामीण और शहरी दोनों ही इलाकों में वेतन के बीच अंतर लगातार कम हो रहा है। जुलाई से सितंबर 2023 और अप्रैल से जून 2024 के बीच शहरी महिलाओं के वेतन में सबसे ज्यादा 5.2 फीसदी इजाफा देखा गया।
फिर भी इस बदलाव के साथ-साथ एक अन्य महत्वपूर्ण रुझान देखने को मिला और वह है मुफ्त के घरेलू कामों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ना। समय के इस्तेमाल से जुड़े टाइम यूज सर्वे के मुताबिक ‘परिवार के सदस्यों के लिए बिना वेतन घरेलू काम’ की अवधि महिलाओं के लिए 236 मिनट है, जबकि पुरुष रोजाना इसमें औसतन 24 मिनट ही देते हैं। इससे दोहरे बोझ की बात पता चलती है। महिलाएं कमाने बाहर भी जा रही हैं और घर के भीतर पूरा काम भी संभाल रही हैं। इससे श्रम शक्ति में भागीदारी की महिलाओं की क्षमता कम हो जाती है और दिखाती है कि सामाजिक मानक घरेलू श्रम की कद्र नहीं करते। यह रिपोर्ट विनिर्माण, व्यापार और अन्य सेवाओं के क्षेत्र में महिलाओं के नेतृत्व वाले प्रतिष्ठानों की संख्या में इजाफा बताती है। यह न केवल महिलाओं में बढ़ती उद्यमिता की भावना को दर्शाता है बल्कि पता चलता है कि उपक्रमों के स्वामित्व में स्त्रियों की हिस्सेदारी बढ़ रही है। महिलाओं का वित्तीय समावेशन भी बढ़ा है मगर आधार कम है। मार्च 2024 में सभी बैंक खातों में महिलाओं के स्वामित्व वाले खाते 39.2 फीसदी थे और कुल जमा में महिलाओं की हिस्सेदारी 39.7 फीसदी था। ज्यादातर महिला खाते देश के दक्षिणी और पूर्वी हिस्सों में थे। पूंजी बाजारों तक पहुंच का भी विस्तार हुआ है और महिलाओं के डीमैट खाते 2021 से 2024 के बीच तीन गुना बढ़े हैं। मगर पुरुषों के खाते उनसे अधिक ही बने हुए हैं।
निर्णय लेने वाले पदों पर रिपोर्ट मिले-जुले नतीजे दिखाती है। पंचायती राज संस्थानों में स्त्री-पुरुष संख्या लगभग बराबर है मगर लोक सभा में महिलाओं की संख्या घटी है। यह कुल महिला प्रत्याशियों के रुझान के अनुरूप ही है। चुनावी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी पर जोर के बावजूद 18वीं लोक सभा में कुल निर्वाचित सदस्यों में केवल 13.6 फीसदी महिलाएं हैं। यह चिंताजनक है क्योंकि सर्वोच्च विधायी स्तर पर महिलाओं का समुचित प्रतिनिधित्व उनके लिहाज से संवेदनशील नीतियों के निर्माण और सार्थक क्रियान्वयन के लिए आवश्यक है। व्यापक सुरक्षा चिंताएं, सामाजिक धारणाएं और पारिवारिक बाधाएं अब भी महिलाओं की भागीदारी की राह रोक रही हैं। इन्हें हल करने के लिए सार्वजनिक सुरक्षा में सुधार करना होगा और व्यापक जागरूकता अभियान के साथ स्त्रियों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ानी होगी। भारत को अगर आने वाले दशकों में तेज आर्थिक वृद्धि हासिल करनी है तो महिलाओं की भागीदारी बढ़ाना जरूरी है।