बीते तकरीबन पांच साल में देश की रक्षा खरीद नीति में ‘स्वदेशीकरण’ का बड़ा लक्ष्य तय किया गया। भारत समेत किसी भी देश में ऐसे प्रयास करने के लिए पर्याप्त वजह होती हैं। यह महत्त्वपूर्ण है, खासकर एक बढ़ती असुरक्षा वाले विश्व में जरूरी हथियारों और उन्हें चलाने वाले प्लेटफॉर्मों पर अधिकतम नियंत्रण आवश्यक है। हथियारों पर विदेशी मुद्रा खर्च करने में कमी लाना एक और वांछित परिणाम है।
इस बात की भी पर्याप्त वजह हैं कि यह माना जाए कि घरेलू रक्षा क्षेत्र उन बेहतरीन क्षेत्रों में से एक है जो सरकार को घरेलू अर्थव्यवस्था में नवाचार बढ़ाने के लिए उत्साहित कर सकते हैं। इसके बावजूद रक्षा खरीद के स्वदेशीकरण को समय के साथ टिकाऊ बनाने के लिए निजी क्षेत्र को सही ढंग से साथ में जोड़ना होगा। रक्षा मंत्रालय की ओर से हाल के दिनों में जारी आंकड़ों से यही संकेत मिलता है कि यह उस हद तक नहीं हो रहा है जिस हद तक वांछित है।
रक्षा मंत्रालय के मुताबिक देश का घरेलू रक्षा उत्पाद पिछले दो वित्त वर्षों से एक लाख करोड़ रुपये से अधिक है लेकिन निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी बमुश्किल एक चौथाई है और यह 2017-18 के स्तर के आसपास ही था। कई लोगों ने ध्यान दिया है कि लार्सन ऐंड टुब्रो जैसी कंपनियों ने हाल के समय में अपना रक्षा कारोबार बढ़ाया है लेकिन आंकड़े बताते हैं कि निजी क्षेत्र की ओर से ऐसा विस्तार देश के रक्षा उत्पादन में उसकी हिस्सेदारी बरकरार रख पाने भर के लायक है।
रक्षा उत्पादन का अधिकांश हिस्सा रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रमों से ही आ रहा है। यह निश्चित नहीं है कि उनमें भारत को इस क्षेत्र की मूल्य श्रृंखला में ऊपर ले जाने की क्षमता है अथवा नहीं या फिर क्या वे ऐसा आंतरिक स्तर पर नवाचार कर सकते हैं कि जो न केवल सुरक्षा के क्षेत्र में बढ़त दे बल्कि अन्य औद्योगिक क्षेत्रों में भी इसके प्रभाव को बढ़ाए। स्पष्ट है कि ‘मेक इन इंडिया’ की आकांक्षा है लेकिन हकीकत ‘मेक इन पब्लिक सेक्टर’ ही है।
यदि स्वदेशीकरण के माध्यम से निजी क्षेत्र को सही मायने में मजबूत बनाना है तो उन क्षेत्रों को चिह्नित करना होगा जहां सरकार को बदलाव करने की आवश्यकता है। एक जरूरत यह है कि रक्षा कारोबार में भारतीय कंपनियों को निवेश का सुरक्षित माहौल मुहैया कराया जाए।
ऐसा तब हो सकता है जबकि सरकार इसके लिए जरूरी दिशानिर्देश जारी करे, ये दिशानिर्देश उचित और तार्किक हों और उनके साथ खरीद की प्रतिबद्धता भी जुड़ी हो। दूसरे देशों में निजी कंपनियां बड़ा निवेश करके प्रसन्न हैं क्योंकि वहां उन्हें आश्वस्ति है कि उनका निवेश बरबाद नहीं होगा। परंतु भारत में ऐसे भरोसे का अभाव है। एक बड़े ग्राहक वाले कारोबार में ग्राहक को विश्वसनीय खरीदार के रूप में देखे जाने के लिए अतिरिक्त प्रयास करना होता है ताकि निवेश को गति मिले।
देश में रक्षा निजी क्षेत्र के कुछ पहलुओं को अक्सर सफल बताया जाता है। इनमें छोटे और मझोले उपक्रमों की बढ़ती उपस्थिति एक है। इसमें स्टार्टअप भी शामिल हैं। बड़े निजी निवेश के लिए स्पष्ट खाके के अभाव में ऐसी स्टार्टअप भी उचित जगह नहीं बना पाएंगी या उन्हें समुचित प्रोत्साहन नहीं मिल सकेगा। भारत को इस क्षेत्र में विदेशी निवेश से जुड़े दिशानिर्देश को भी शिथिल करने की जरूरत होगी।
गत वर्ष 100 फीसदी विदेशी स्वामित्व वाली एक परियोजना को मंजूरी दी गई -स्वीडिश कार्ल-गुस्ताव राइफल, परंतु प्रौद्योगिकी स्थानांतरण की चिंताओं के कारण अन्य मामलों में हम पिछड़े हुए हैं। ऐसी चिंताओं के कारण निवेश में देरी नहीं होने दी जा सकती है। इस क्षेत्र में निजी निवेश का दायरा बढ़ाने का काम काफी समय से लंबित है।