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Editorial: क्रायोजेनिक इंजन और ISRO का अगला चरण

क्रायोजेनिक इंजन में तरल गैसों (प्राय: हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) के मिश्रण का इस्तेमाल किया जाता है जो ढोए जा रहे भार को तीव्र गति प्रदान करती हैं।

Last Updated- February 21, 2024 | 9:48 PM IST
ISRO

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने गत शनिवार को तीसरी पीढ़ी का मौसम संबंधी उपग्रह इनसैट-3डीएस सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया। इसे एक बड़ी उपलब्धि के रूप में सराहा गया। यह उपग्रह मौसम के पूर्वानुमान की भारत की क्षमता बढ़ाएगा। अंतरिक्ष एजेंसी इंजन के समस्यामुक्त प्रदर्शन से रोमांचित थी।

उपग्रह को ले जाने वाले जीएसएलवीएफ14 रॉकेट में तीसरे चरण का क्रायोजेनिक इंजन लगा था। भारत ने चार दशक तक स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन तैयार करने के लिए संघर्ष किया है। इस परिपक्व और अच्छे प्रदर्शन का देश के अंतरिक्ष कार्यक्रम पर सकारात्मक प्रभाव तो पड़ेगा ही, साथ ही इससे सैन्य क्षमताओं को भी नए आयाम मिल सकते हैं।

क्रायोजेनिक इंजन में तरल गैसों (प्राय: हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) के मिश्रण का इस्तेमाल किया जाता है जो ढोए जा रहे भार को तीव्र गति प्रदान करती हैं। ये रॉकेट ज्यादा भार को तेजी से ऊपर ले जाते हैं। तरल हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को बहुत कम तापमान पर अलग-अलग भंडारित किया जाता है। इन्हें साथ मिलाने पर जबरदस्त विस्फोट उत्पन्न होता है।

तापमान के अंतर का प्रबंधन और भंडारण टैंक में विस्फोट होने से रोकना आसान नहीं है। इन तकनीकी दिक्कतों से निपटने के लिए बेहतरीन डिजाइन की आवश्यकता होती है और साथ ही पदार्थ विज्ञान की अच्छी समझ भी जरूरी है।

भारत समेत केवल छह देश हैं जिनके पास यह क्षमता है। भारत ने रूस के इंजनों के साथ शुरुआत की थी। बहरहाल यह दोहरी तकनीक है क्योंकि इसका सैन्य इस्तेमाल भी संभव है। पोकरण-2 और भारतीय रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के मिसाइल कार्यक्रम को देखते हुए अमेरिका ने इस क्षेत्र में शोध एवं विकास को बाधित करने का निरंतर प्रयास किया है। रूस ने भी तकनीक हस्तांतरित नहीं की, हालांकि उसने बीते वर्षों में छह इंजन अवश्य दिए।

इसरो को रिवर्स इंजीनियरिंग को अपनाना पड़ा और नई प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। पहले 15 प्रक्षेपण में चार बार पूरी तरह और दो बार आंशिक स्तर पर नाकामी झेलनी पड़ी। इस 16वें प्रक्षेपण के बाद माना जा रहा है तकनीक में स्थिरता आई है।

इस इंजन को पहले इसरो के भीतर ‘नॉटी बॉय’ का नाम दिया गया था लेकिन अब उसे ‘स्मार्ट बॉय’ कहकर पुकारा जा रहा है। यह इंजन पृथ्वी की निचली कक्षा में 6,000 किलोग्राम तक का भार ले जा सकता है जबकि ऊपरी कक्षा में यह करीब एक तिहाई भार ले जा सकता है। ध्यान रहे इनसैट-3डीएस का वजन करीब 2,275 किलोग्राम है। इससे भविष्य के मंगल या चंद्र अभियानों की जटिलता कम होगी। यह अंतरिक्ष स्टेशन की स्थापना में भी मदद कर सकता है। इसके तात्कालिक वाणिज्यिक असर भी हैं।

उदाहरण के लिए चूंकि यह अधिक भार को उच्च कक्षा में ले जा सकता है इसलिए भारत वैश्विक उपग्रह कारोबार में अहम हिस्सेदार बन सकता है। इसरो के अलावा निजी क्षेत्र की स्टार्टअप भी क्रायोजेनिक इंजन तैयार करने की कोशिश कर रहे हैं और वे अलग-अलग डिजाइन के साथ प्रयोग कर रहे हैं।

इनसैट-3डीएस, पहले के दो इनसैट के साथ समुद्र में अधिक दूरी को दायरे में लेगा। अगला मिशन है एनआईएसएआर (नासा-इसरो सिंथेटिक अपर्चर रडार) उपग्रह को प्रक्षेपित करना। यह इसरो और नासा के बीच सहयोग के साथ अंजाम दिया जा रहा है और जीएसएलवीएफ 14 का सबसे प्रतिष्ठित मिशन है।

इसरो डीआरडीओ के साथ तथा एरोस्पेस अधिनियम के बाद निजी क्षेत्र के साथ तकनीक साझा कर सकता है। भारत के एरोस्पेस क्षेत्र ने अब पदार्थ विज्ञान संबंधी क्षमताएं विकसित कर ली हैं जिसकी मदद से कई उपयोग संभव हैं। अंतरिक्ष में अधिक भार ले जाने की क्षमता का अर्थ है संचार में और मजबूती। इसमें सैन्य संचार शामिल है।

क्रायोजेनिक इंजन ईंधन का इस्तेमाल करने में समय लेते हैं इसलिए मिसाइल में इनका इस्तेमाल नहीं हो सकता है क्योंकि उन्हें तुरंत दागना होता है। अंतरमहाद्वीपीय क्षमता वाली आधुनिक बैलिस्टिक मिसाइल भी सेमी-क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल करती हैं। क्रायोजेनिक तकनीक के बाद सेमी-क्रायोजेनिक इंजन के लिए शोध एवं विकास आसान होगा। क्रायोजेनिक इंजन अच्छी खबर है। इसमें तात्कालिक के साथ दूरगामी लाभ निहित हैं।

First Published - February 21, 2024 | 9:48 PM IST

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