वर्ष 2014 और 2019 के आम चुनाव में ऐतिहासिक गिरावट के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि कांग्रेस पार्टी ने अपनी नाकामियों से सबक लिया और अब संसद में उसके सदस्यों की संख्या तकरीबन दोगुनी हो गई है। पार्टी ने ऐसे गठबंधन बना लिए जिसने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के दबदबे को खत्म किया।
इसमें पारंपरिक रूप से भाजपा के मजबूत क्षेत्र भी शामिल थे। कांग्रेस के व्यापक चुनाव प्रचार में शायद ही कुछ नयापन था। वही मुफ्त उपहारों जैसी पुरानी बातों के बीच इस राजनीतिक दल ने आखिरकार उस तीक्ष्ण राजनीतिक सूझबूझ का परिचय दिया जो पिछले एक दशक से नदारद थी।
इस वापसी की बुनियाद कांग्रेस नेतृत्व की उस समझ में निहित है जिसके तहत उसने अपनी सीमाओं को पहचाना और गठबंधन साझेदारों की राजनीतिक क्षमताओं को बेहतर ढंग से सराहा। इसके परिणामस्वरूप पार्टी ने केवल 328 लोक सभा सीटों पर प्रत्याशी उतारे।
यह पहला मौका था जब पार्टी 400 से कम लोक सभा सीटों पर चुनाव लड़ी। 2014 और 2019 में पार्टी ने क्रमश: 464 और 421 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे।
इस बार पार्टी ने इंडियन नैशनल डेवलपमेंट इन्क्लूसिव अलायंस यानी ‘इंडिया’ गठबंधन के साझेदारों को 100 से कुछ अधिक सीटें दीं। दिलचस्प बात यह है कि सबसे बड़ी कमी उत्तर प्रदेश में आई। 2019 की 67 सीटों के मुकाबले इस बार कांग्रेस वहां केवल 17 सीटों पर लड़ी और अन्य सीटें अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को दे दीं।
सबसे मुख्य बात थी भारतीय जनता पार्टी को उसके गढ़ में पछाड़ना। उत्तर प्रदेश की 80 लोक सभा सीटों में से ‘इंडिया’ गठबंधन को 43 सीटों पर जीत मिली। समाजवादी पार्टी 37 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। याद रहे कि 2019 में उसे केवल पांच सीटों पर जीत मिली थी। पार्टी ने इस चुनाव में कई मझोले और निचले तबके से चुनकर उम्मीदवारों को मैदान में उतारा।
कांग्रेस गठबंधन महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु जैसे अन्य बड़े राज्यों में भी कारगर साबित हुआ। क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन ने भी पार्टी की मदद की क्योंकि चुनाव में कोई प्रमुख राष्ट्रीय मुद्दा नदारद था। ऐसे में कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों ने बुनियादी और स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया।
अगर ‘इंडिया’ गठबंधन पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में मजबूती से लड़ा होता तो पार्टी को और फायदा हो सकता था। जरूरत पड़ने पर अपने कदम पीछे रखने की रणनीति ने इंडिया और कांग्रेस दोनों को फायदा पहुंचाया। पार्टी का चुनाव प्रचार भी सामाजिक न्याय आरक्षण और संविधान बचाने पर केंद्रित रहा। इसने दलितों को साथ लाने में मदद की और विपक्ष के लिए गुंजाइश तैयार करते हुए भाजपा के 400 पार के नारे को पलट दिया।
यह बात आरक्षित सीटों के नतीजों से भी स्पष्ट हुई। भाजपा को अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए आरक्षित 131 सीटों में से 56 पर जीत मिली जबकि 2019 में उसे 77 सीटों पर जीत मिली थी। उसने हिंदी प्रदेशों में ऐसी अधिकांश सीटें गंवाईं। जबकि कांग्रेस को 2019 की सात सीटों के मुकाबले इस बार ऐसी 32 सीटों पर जीत मिली।
इस बार के चुनाव प्रचार में डिजिटल मीडिया का अभूतपूर्व इस्तेमाल हुआ। कांग्रेस पार्टी ने हर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर शानदार प्रदर्शन किया। सर्वेक्षण में यह पता चलने के बाद कि अधिकांश लोग जानकारियों के लिए व्हाट्सऐप के बजाय इंस्टाग्राम का रुख कर रहे हैं, पार्टी ने शॉर्ट वीडियो बनाने पर ध्यान केंद्रित किया।
अब कांग्रेस के समक्ष अगली चुनौती होगी विभिन्न गठबंधन साझेदारों के साथ एक सुसंगत मंच तैयार करे ताकि दशक भर में पहली बार भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सामने मजबूत विपक्ष पेश किया जा सके। यह भी देखना होगा कि कांग्रेस अपने इस उभार का संसद के भीतर और बाहर कैसे उपयोग करती है।