भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC) ने बुधवार को शेयर बाजार को जानकारी दी कि भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) ने उसे 10 फीसदी सार्वजनिक अंशधारिता की अनिवार्यता पूरी करने के लिए तीन साल की मोहलत और दे दी है। अब उसे 16 मई, 2027 तक इसे पूरा करना होगा।
एक लाख करोड़ रुपये से अधिक के बाजार पूंजीकरण वाली कंपनियों से सरकार की अपेक्षा है कि वे पांच साल में 25 फीसदी सार्वजनिक अंशधारिता की व्यवस्था करें।
बहरहाल, एलआईसी की बात करें तो उसके लिए पहले ही इसे 10 वर्ष किया जा चुका है। एलआईसी के शेयरों ने जहां अवधि विस्तार की इस घोषणा पर सकारात्मक प्रतिक्रिया दी, वहीं इससे बचे जाने की आवश्यकता थी। ऐसे कदम बाजार नियामक और सरकार दोनों की विश्वसनीयता को प्रभावित करते हैं।
आर्थिक सुधारों के बाद की अवधि में देश के नीतिगत प्रतिष्ठान की एक बड़ी कमजोरी रही है अच्छी पहलों को बरकरार नहीं रख पाना। विनिवेश कार्यक्रम भी ऐसा ही एक उदाहरण है। बुनियादी विचार यह था कि सरकारी उपक्रमों की हिस्सेदारी बेचने या उनका पूरी तरह निजीकरण करने से इनके प्रदर्शन में सुधार होगा तथा सरकार को भी संसाधन जुटाने में मदद मिलेगी।
सेबी के सार्वजनिक हिस्सेदारी के मानकों का उद्देश्य था सूचीबद्ध कंपनियों का बाजार नकदीकरण करना तथा उनके लिए बेहतर मूल्यांकन की तलाश करना।
बहरहाल एलआईसी के मामले में विनिवेश और सार्वजनिक अंशधारिता दोनों ही सिद्धांतों के साथ समझौता हुआ। एलआईसी को करीब दो वर्ष पहले यानी मई 2022 में सूचीबद्ध किया गया था और उसकी 3.5 फीसदी हिस्सेदारी का निजीकरण किया गया था। उम्मीद थी कि आगे चलकर सरकार और हिस्सेदारी बेचेगी तथा सूचीबद्धता के उल्लिखित मानक हासिल करेगी। बहरहाल अब तक ऐसा नहीं हुआ है।
सरकार के अनिच्छुक होने की एक वजह एलआईसी के शेयरों का प्रदर्शन भी है। 949 रुपये प्रति शेयर की कीमत पर जारी होने के बाद मार्च 2023 में ये घटकर 540 रुपये प्रति शेयर पर आ गए थे। ऐसे में अगर बाद में दोबारा सार्वजनिक पेशकश की जाती तो उसे काफी कम कीमत मिलती।
वास्तव में बाजार में और शेयरों के आने के अनुमान से कीमतों में और गिरावट आ सकती थी। परंतु इसका यह भी अर्थ हो सकता है कि शुरुआती पेशकश को अधिक अनुकूल कीमत मिली। चूंकि झटके के बाद शेयर उबर गया इसलिए सरकार सार्वजनिक अंशधारिता के मानक का पालन करने के लिए अपने शेयर बेच सकती थी।
एलआईसी के 6 लाख करोड़ रुपये से अधिक के कुल बाजार पूंजीकरण को देखते हुए सरकार अपने पूंजीगत व्यय कार्यक्रम के लिए अच्छी खासी राशि जुटा सकती थी और अपना राजकोषीय घाटा कम कर सकती थी। परंतु ऐसा नहीं किया गया। शायद सरकारी उपक्रम होने के कारण एलआईसी को यकीन था कि उसे नियामकीय राहत मिल जाएगी।
बहरहाल, कीमतों में कमी और संभावित राजनीतिक अनिवार्यता से परे ऐसी घटनाएं कुछ इस प्रकार की नजीर पेश करती हैं जिनसे बचा जाना चाहिए। यह बात ध्यान देने लायक है कि एलआईसी कोई अनूठा मामला नहीं है।
बाजार के आंकड़े दिखाते हैं कि सरकारी क्षेत्र के बैंकों समेत 20 से अधिक ऐसी सूचीबद्ध कंपनियां हैं जहां सरकार की हिस्सेदारी 75 फीसदी से अधिक है। सरकार 12 कंपनियों में तो 90 फीसदी से अधिक की हिस्सेदार है। विशुद्ध आर्थिक नजरिये से देखें तो यह समझना मुश्किल है कि जब सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ा हुआ है और वह पूंजीगत व्यय बढ़ाना चाहती है तब भी वह विनिवेश पर आक्रामक ढंग से जोर नहीं दे रही है।
हाल के दिनों में शेयर बाजार भी सहयोगी भूमिका में रहे हैं। ऐसे में सरकारी उपक्रमों में शेयरों की बिक्री करके मानकों का पालन करने से सरकार को पर्याप्त संसाधन भी मिल जाते। इससे भी अहम बात, सरकार सार्वजनिक उपक्रमों के लिए अपवाद तैयार करने से बच जाती।