देश की मानवीय पूंजी जो संभवत: उसके दीर्घकालिक विकास का सबसे अहम जरिया है, उसका व्यापक विश्लेषण एक गंभीर तस्वीर पेश करता है। गैर लाभकारी संस्था प्रथम की शिक्षा की स्थिति संबंधी वार्षिक रिपोर्ट (असर) भी यही करती है। रिपोर्ट हमें इस बात की झलक दिखाती है कि ग्रामीण भारत में 14 से 18 वर्ष की आयु के युवा क्या कर रहे हैं।
रिपोर्ट की इस बात के लिए सराहना की जानी चाहिए कि यह एक ऐसे समूह की तैयारी के बारे में जानकारी देती है जो जल्दी ही वयस्क नागरिक के रूप में जिम्मेदारी संभालेगा और श्रम शक्ति में शामिल होगा।
बहरहाल वर्षों के दौरान हासिल नतीजे हमें दिखाते रहे हैं कि हालांकि छात्र प्राथमिक शिक्षा पूरी कर रहे हैं लेकिन उनमें से कई के पास बुनियादी कौशल तक नहीं है। इससे न केवल श्रम बाजार में उनकी संभावनाओं पर असर पड़ेगा बल्कि उच्च शिक्षा अथवा पेशेवर प्रशिक्षण हासिल करने की उनकी कोशिशों को भी धक्का पहुंचेगा।
ताजा रिपोर्ट में कुछ ऐसे बिंदु हैं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है और जिनको लेकर नीतिगत हस्तक्षेप को नए सिरे से निर्धारित करने की आवश्यकता है। जिन लोगों को सर्वेक्षण में शामिल किया गया उनमें 14 से 18 वर्ष की आयु के 86 फीसदी युवा शैक्षणिक संस्थानों में थे। यह सुखद है और दर्शाता है कि बच्चों का नामांकन बढ़ाने के प्रयास सफल रहे हैं। हाल के वर्षों में कोविड के कारण उत्पन्न अनिश्चितताओं और कठिनाइयों के बावजूद परिवारों ने अपने बच्चों की शिक्षा जारी रखी और यह भी उत्साह बढ़ाने वाली बात है।
बहरहाल शायद शैक्षणिक संस्थान छात्रों और उनके अभिभावकों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे हैं। जैसा कि रिपोर्ट दर्शाती है, सर्वे में शामिल बच्चों में 25 फीसदी अपनी क्षेत्रीय भाषा में कक्षा-दो के स्तर की चीजें नहीं पढ़ पाए। आधे से थोड़े अधिक बच्चे ही अंग्रेजी के वाक्य पढ़ पा रहे थे।
इतना ही नहीं 40 फीसदी से कुछ ही अधिक बच्चे विभाजन की समस्याओं को हल कर पा रहे थे। इसमें तीन अंकों वाली संख्याओं को एक अंक वाली संख्या से विभाजित करना शामिल था। मात्र 50 फीसदी बच्चे ही अन्य गणनाएं कर सकते थे, मसलन वजन जोड़ना और समय की गणना करना।
दिलचस्प बात है कि इस बार अध्ययन में डिजिटल लोकप्रियता पर भी ध्यान दिया गया है। इसके नतीजे अवसर और खतरे दोनों प्रदर्शित करते हैं। करीब 90 फीसदी युवाओं ने कहा कि उनके घर में स्मार्टफोन है और वे उसे इस्तेमाल करना चाहते हैं। बहरहाल स्मार्टफोन तक पुरुषों की पहुंच अधिक थी जो एक तरह से यह संकेत देता है कि परिवारों में भेदभाव है। इनमें से 90 फीसदी से अधिक ने कहा कि उन्होंने उस सप्ताह सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया। बहरहाल, सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों में से आधे ही सुरक्षा संबंधी सेटिंग के बारे में जानते थे।
परिवारों में स्मार्टफोन की मौजूदगी तथा छात्रों तक उसकी पहुंच को देखते हुए इस माध्यम का लाभ शिक्षण के नतीजे सुधारने में लिया जा सकता है। कक्षा की पढ़ाई से इतर मॉड्यूल तैयार किए जा सकते हैं। बहरहाल सोशल मीडिया का इस्तेमाल जरूर जोखिम भरा है। ऐसे माध्यमों की सीमित समझ के चलते बच्चों को ऐसी सामग्री दिखाई जा सकती है जो उन्हें किसी न किसी तरह नुकसान पहुंचा सकती है।
व्यापक नीतिगत स्तर पर अगर शिक्षण संबंधी नतीजों पर विचार करें तो कुछ बुनियादी नीतिगत मुद्दों पर बहस हो सकती है। अब यह स्पष्ट है कि नामांकन अब नीतिगत चुनौती नहीं है। केंद्र और राज्य की कई पहल ऐसी हैं जिन्होंने बेहतर नामांकन सुनिश्चित किया है। ऐसे में सीखने से जुड़े नतीजों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।
आखिर सीखने की प्रक्रिया में नाटकीय सुधार के लिए क्या करना होगा? क्या शिक्षकों की कमी है या फिर उन्हें अच्छा प्रदर्शन करने का प्रोत्साहन नहीं है? क्या राज्यों को बेहतर निगरानी व्यवस्था कायम करने की आवश्यकता हैया फिर शिक्षक खुद अच्छी तरह प्रशिक्षित नहीं हैं? इनमें से कुछ सवालों के जवाब महत्त्वपूर्ण हैं। देश के युवाओं में पर्याप्त शिक्षा की कमी से न केवल देश के वृद्धि और विकास संबंधी लक्ष्य प्रभावित होंगे बल्कि कौशल संचालित दुनिया में असमानता भी बढ़ेगी।