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आर्थिक असमानता और जाति का असर: शिक्षा और सामाजिक पूंजी होने के बावजूद कम आय और सीमित अवसर

गुणवत्ता भरी शिक्षा मिलने और अधिक सामाजिक पूंजी होने के बावजूद भारतीय समाज में उच्च एवं निम्न जातियों के लोगों के बीच आय में काफी असमानता है। चर्चा कर रहे हैं नितिन देसाई

Last Updated- September 24, 2024 | 9:14 PM IST
Economic inequality and the impact of caste: Low income and limited opportunities despite education and social capital आर्थिक असमानता और जाति का असर: शिक्षा और सामाजिक पूंजी होने के बावजूद कम आय और सीमित अवसर

किसी अर्थव्यवस्था में असमानता प्रायः लोगों को विरासत में मिली वस्तुओं में भिन्नता का नतीजा होती है। असमानता की चर्चा करने पर विरासत में मिली जिस वस्तु का जिक्र सबसे अधिक होता है वह है धन-संपत्ति। किंतु यदि सामाजिक रुतबा या ओहदा अगर आर्थिक व्यवस्था का हिस्सा बन जाए तो वह भी असमानता को जन्म देता है।

भारत में सभी अच्छी तरह जानते हैं कि लोगों की जातियों से जुड़े सामाजिक प्रभाव का असर उनकी आर्थिक संभावनाओं पर पड़ता है। यह बात अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) यानी कथित निम्न जातियों के लिए सकारात्मक कार्रवाई (अफर्मेटिव एक्शन ) के प्रावधानों में भी दिखती है। किंतु कुछ लोगों का तर्क है कि हमें अफर्मेटिव एक्शन के पात्र लोगों के बीच भी अधिक गरीब लोगों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और इसका लाभ उन लोगों को भी मिलना चाहिए, जो निचली जाति से ताल्लुक नहीं रखते मगर गरीब हैं।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जो जाति जनगणना की हिमायत कर रहे हैं। उनका उद्देश्य इस बात की पड़ताल करना है कि समाज में सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों को अफर्मेटिव एक्शन का कितना लाभ मिल रहा है और इसे कितना बढ़ाया जा सकता है। इन दो अलग-अलग नजरियों के बीच इस बात की समीक्षा होनी चाहिए कि सभी स्थितियां समान रहने पर भी निचली जाति के किसी व्यक्ति का आय कम तो नहीं रह जाती या उसे दूसरे लोगों की तुलना में कम आर्थिक अवसर तो नहीं मिलते।

भारतीय मानव विकास सर्वेक्षण के आंकड़ों पर आधारित दो हालिया अध्ययन इस बात का स्पष्ट संकेत देते हैं कि आय का स्तर तय करने में जाति की अहम भूमिका होती है। पहले अध्ययन में आय कम होने के कई कारण गिनाए गए हैं और कहा गया है कि निचली जातियों के लोगों की सालाना आय देश की शेष आबादी की तुलना में 21.1 प्रतिशत कम है। आंकड़ों को अलग-अलग देखें तो पता चलता है कि आदिवासियों की आय उच्च जाति समूहों की तुलना में औसतन 20.7 प्रतिशत कम है जबकि दलितों की आय 27.74 प्रतिशत, मुसलमानों की 20.17 प्रतिशत और ओबीसी की आय 19 प्रतिशत कम है।

दो बाते हैं, जो असमानता कम कर देती हैं – उच्च शिक्षा और किसी उच्च आय वाले राज्य में रिहायश। अध्ययन बताता है कि निचली जातियों में जिन लोगों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की है, उनकी आय ऊंची जाति के लोगों की तुलना में औसतन 10.3 प्रतिशत ही कम है।

आदिवासियों के मामले में असमानता और भी कम हो जाती है। अध्ययन बताता है कि किसी राज्य में प्रति व्यक्ति वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 10,000 रुपये बढ़ जाता है तो आदिवासियों के लिए जाति आधारित आय असमानता में औसतन 9.05 प्रतिशत कमी आ जाती है। दलितों में असमानता 7.6 प्रतिशत, ओबीसी में 4.9 प्रतिशत और मुसलमानों में 1.8 प्रतिशत अंक कम हो जाती है। लेकिन अंतर कम ही होता है, पूरी तरह खत्म नहीं होता।

इसी सर्वेक्षण के आंकड़ों पर आधारित एक दूसरा अध्ययन बताता है कि निम्न एवं उच्च जातियों के कारोबार मालिकों को किस तरह के भेदभाव झेलने पड़ते हैं। कारोबार चलाने वाले दलितों की आय उन ओबीसी, आदिवासी और मुसलमान कारोबारियों के मुकाबले कम होती है, जिन्हें समाज से अलग-थलग तो नहीं रखा जाता मगर जिन्हें सामाजिक-आर्थिक नुकसान उठाने पड़ते हैं।

किसी व्यक्ति का दूसरी जातियों के अन्य पेशेवरों के साथ जो व्यक्तिगत संपर्क या तालमेल होता है, उसके दायरे को सामाजिक पूंजी कहते हैं। अध्ययन में कहा गया है कि दलित व्यक्ति की सामाजिक पूंजी अधिक हो तो भी आय में अंतर बरकरार रहता है, जिससे संकेत मिलता है कि जातिगत भेदभाव अपना असर दिखाते रहते हैं। यह भी पता चला कि शिक्षा से दलितों की आय में उसी तरह सुधार होता है, जैसे दूसरे वर्गों की आय में होता है।

ये अध्ययन तो इस वर्ष प्रकाशित हुए हैं मगर उनमें इस्तेमाल किए गए सर्वेक्षण के आंकड़े एक दशक से अधिक पुराने हैं। पहले अध्ययन में 2005 से 2012 के सर्वेक्षण नतीजे इस्तेमाल किए गए थे। इस अध्ययन के अनुसार ऊंची जातियों और निम्न जातियों में असमानता कम हुई है मगर खत्म नहीं हुई है। क्या हम यह मान सकते हैं कि आय में वृद्धि के कारण अंतर अब और कम हो गया है? संभवतः कम हुआ होगा मगर यह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है। शीर्ष पर पहुंच चुके दलितों और आदिवासियों से बात करने पर पता चलता है कि वे सामान्य से एक पायदान ऊपर हैं इसलिए वे भेदभाव का मुकाबला कर पाए और इससे बाहर निकल पाए।

जिन बच्चों के माता-पिता अनियमित कामगार हैं, उन्हें ज्यादा नुकसान होता है। मैंने पाया है कि निर्माण स्थल पर ही अस्थायी रिहायश बना लेने वाले श्रमिकों के बच्चों को अक्सर शिक्षा मिल ही नहीं पाती और बड़े होकर वे भी अनियमित कामगार बनने के लिए अभिशप्त होते हैं। यहां भी दलितों और आदिवासियों तथा दूसरी जाति के लोगों में फर्क होता है। एससी/एसटी को छोड़कर अन्य जातियों पर अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट के अनुसार 2004 में अनियमित कामों में उनकी हिस्सेदारी 83 प्रतिशत थी, जो आंकड़ा 2018 में घटकर 53 प्रतिशत रह गया। इस दौरान वेतन देने वाली नियमित और बेहतर गुणवत्ता वाली नौकरी में उनकी भागीदारी इतनी ही बढ़ गई। एससी/एसटी का भी अनियमित काम कम हुआ मगर यह 86 प्रतिशत से कम होकर 76 प्रतिशत रहा यानी इसमें गिरावट कम रही।

इसलिए अफर्मेटिव एक्शन की शुरुआत इस प्रमाणित तथ्य से होनी चाहिए कि उच्च जाति के व्यक्ति के बराबर योग्य और शिक्षित होने पर भी निम्न जाति के व्यक्ति की आय में काफी कमी रहेगी। यह तथ्य भी स्वीकार करना होगा कि कारोबार का मालिक यदि दलित है तो उसे गैर-दलित कारोबारी से पिछड़ना ही पड़ता है।

जिस वास्तविक बदलाव की आवश्यकता है वह है जातियों के बीच अलगाव में कमी करना या इसे पूरी तरह खत्म करना। इस राह में सबसे बड़ी बाधा है अपनी ही जाति में विवाह को अनिवार्य मानने की रूढ़ि। यह रूढ़ि या चलन चार वर्णों में ही नहीं बल्कि उनके अंतर्गत आने वाली करीब 4,000 जातियों में भी चला आ रहा है। इसके कारण सामाजिक अलगाव बढ़ता ही जाता है। वर्ष 2005 के एक सर्वेक्षण के अनुसार केवल 6 प्रतिशत विवाह अंतरजातीय थे यानी वर और वधू अलग-अलग जातियों से थे। अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा देने से दीर्घकाल से चली आ रही सामाजिक असमानता खत्म करने में मदद मिल सकती है।

यह बात सरकारी योजना ‘डॉ भीमराव अंबेडकर स्कीम फॉर सोशल इंटीग्रेशन थ्रू इंटर-कास्ट मैरिजेज’ में स्वीकार की गई है। इस योजना के अंतर्गत अनुसूचित जाति के व्यक्ति का विवाह किसी अन्य जाति में होने पर 2.5 लाख रुपये बतौर प्रोत्साहन दिए जाते हैं। इस योजना की शुरुआत 2013-14 में हुई थी और पांच वर्षों में औसतन 17,000 से अधिक लोग इसका लाभ उठा चुके थे। किंतु इन लाभार्थियों में कोई भी बिहार या उत्तर प्रदेश से नहीं था।

एक सदी से भी पहले छुआछूत के खिलाफ शुरू किए गए राजनीतिक अभियान के कारण जातिगत भेदभाव में कमी आई है। बाद में इसे पूरी तरह खत्म करने के लिए संविधान में एक प्रावधान भी लाया गया। शहरीकरण में तेजी और पेशागत स्तर पर सभी जातियों के लिए अवसर बढ़ने से भी परंपरागत जाति प्रथा के दोष कम हुए हैं। लेकिन इसका दीर्घकालिक समाधान तभी होगा जब जातीय भेदभाव खुद ही खत्म हो जाएगा।

भीमराव आंबेडकर ने भी यही कहा, ‘मेरे विचार से हिंदू समाज अपनी रक्षा के लिए पर्याप्त सामर्थ्य जुटाने की आशा तभी कर सकता है, जब वह पूरी तरह जातिरहित हो जाए।’ आंबेडकर ने अपने भाषण ‘द अनाइअलेशन ऑफ कास्ट’ में यह बात लिखी थी मगर यह भाषण वह कभी पढ़ नहीं सके।

सरल शब्दों में कहें तो किसी समाज में जातीय समता को बढ़ावा तभी मिल सकता है जब विरासत में जाति का महत्त्व बहुत कम माना जाए। हमें ऐसा सामाजिक ताना-बाना तैयार करना होगा, जिसमें अधिक से अधिक परिवार अंतरजातीय तरीके से एक दूसरे से जुड़े हों।

First Published - September 24, 2024 | 9:14 PM IST

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