आम चुनावों के परिणाम से भारत का आर्थिक भविष्य, खासकर राजनीतिक अर्थव्यवस्था की वजह से महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित होगा। अर्थव्यवस्था (Economy) लड़खड़ा रही है और यह बढ़ती असमानता, घटती आमदनी और कमजोर बुनियादी ढांचे की तिहरी मार झेल रही है। कोरोना महामारी (Corona Epidemic) ने भी ग्रामीण क्षेत्रों की परेशानी को और बढ़ा दिया है।
देश की कुल कामकाजी आबादी में 45 फीसदी का हिस्सा रखने वाले कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले साल सिर्फ 1.8 फीसदी रही। नतीजा यह हुआ कि देश के 40 प्रतिशत लोगों को सब्सिडी वाले मुफ्त भोजन का सहारा लेना पड़ रहा है। शहरों में भी रोजगार की स्थिति खराब है। करीब 10 करोड़ से ज्यादा युवा न तो पढ़ाई और न ही नौकरी कर रहे हैं।
युवाओं को कम वेतन वाली सरकारी नौकरियों के लिए आपस में कड़ी प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है, वहीं दूसरी तरफ विनिर्माण (उत्पादन) का क्षेत्र भी सिमटकर सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का सिर्फ 13 फीसदी रह गया है।
फ्रांस के शाही घराने के राजाओं की तरह ही अभिजात्य वर्ग अपने एक सीमित समुदाय वाले दायरे में ऐशो-आराम की जिंदगी जी रहे हैं। दूसरी ओर शेयर बाजारों में तेजी दिख रही है और पूंजी लगाने से मुनाफा बढ़ रहा है और इन सबका फायदा सिर्फ उन्हें ही मिल रहा है।
आमलोगों की तनख्वाह वहीं की वहीं ठहरी हुई है जबकि पूंजीपति खूब खर्च कर रहे हैं, अपनी पूंजी विदेश भेज रहे हैं और अपने बच्चों को भी विदेश पढ़ने भेज रहे हैं।
अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए कोई ठोस और दीर्घकालिक रणनीति भी नजर नहीं आ रही है। देश के उत्तरी और दक्षिणी हिस्सों के बीच बढ़ती असमानता वास्तव में गंभीर राजनीतिक और आर्थिक सवाल खड़े कर रही है। लेकिन इन सवालों का अब तक कोई समाधान नहीं मिला है।
इन सभी चुनौतियों के सामने, सत्तारूढ़ पार्टी के घोषणा पत्र में कुछ दिखावे और सब्सिडी देने की बातें शामिल हैं। इसमें बेरोजगारी की समस्या या ग्रामीण क्षेत्रों की परेशानियों को भी नहीं स्वीकारा गया है। गृह मंत्रालय की ओर से भी 2019 के घोषणा पत्र में किए गए वादों को लागू करने के लिए बल प्रयोग करने की रणनीति साफ दिखाई देती है।
पिछले दिनों एक साक्षात्कार में गृह मंत्री ने यह बताया कि अगली सरकार के लिए शेयर बाजार का अच्छा प्रदर्शन और रुपये में अंतरराष्ट्रीय कारोबार अहम लक्ष्य होंगे। इस तरह यह अंदाजा हुआ कि भारतीय अर्थव्यवस्था की मुख्य समस्याओं को नजरअंदाज किया जा रहा है।
इन रिकॉर्ड के अनुसार, वर्ष 2024 में दीर्घकालिक या अल्पकालिक आर्थिक समस्याओं को ध्यान में रखकर वोट देने वाला कोई भी मतदाता 2019 जैसा (या उससे बेहतर) जनादेश 2024 में नहीं देगा।
अगर मौजूदा सरकार को पूर्ण बहुमत या उससे ज्यादा सीटें मिल जाती हैं तो यह इस बात का संकेत हो सकता है कि लोगों के लिए अर्थव्यवस्था की स्थिति शायद उतना अहम मुद्दा नहीं है। इसके विपरीत, अगर किसी भी तरह की गठबंधन सरकार सत्ता में आती है तब यह बात अहम हो जाएगी कि ‘अर्थव्यवस्था सबसे ज्यादा मायने रखती है।’
इसके बाद क्या होगा? वर्ष 2019 में कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने संरचनात्मक बदलाव से जुड़े विचार को खारिज कर दिया और मुझसे ‘छोटे आर्थिक सुधारों’ का सुझाव देने के लिए कहा था। लेकिन ऐसा लगता है कि अब इसमें बदलाव आया है।
कांग्रेस का घोषणापत्र देश के सामने मौजूद ढांचागत चुनौतियों को स्वीकार करने और उनका विश्लेषण करने के साथ-साथ असमानता कम करने, समृद्धि लाने और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने के लिए साहसिक कार्रवाई की आवश्यकता को रेखांकित करता है। इसकी पुष्टि निर्वाचित पार्टी नेताओं के सार्वजनिक बयानों द्वारा और मजबूती से होती है।
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (BJP) दोनों के घोषणापत्रों में विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समूहों के लिए सब्सिडी और आरक्षण के वादे शामिल हैं। ये उपाय जरूर आवश्यक हैं लेकिन ये संरचनात्मक चुनौतियों से निपटने के लिए पर्याप्त नहीं हैं।
कृषि के मुद्दे पर कांग्रेस ने एक अहम प्रस्ताव दिया है कि कृषि वित्त में सुधार किया जाए और एक बेहतर कृषि आयात-निर्यात नीति को मजबूत बनाने और न्यूनतम समर्थन मूल्य के सवालों का समाधान भी निकालने की कोशिश की जाए।
कांग्रेस यह भी मानती है कि भूमि का सवाल अहम है और घटती हुई वास्तविक मजदूरी और बढ़ते मुनाफे के बीच श्रम और पूंजी के संतुलन को बहाल करने की जरूरत है। सबसे अच्छा प्रस्ताव यह है कि कार्यबल की गुणवत्ता, उसके दायरे और रोजगार क्षमता को बेहतर बनाने के लिए हर डिप्लोमा धारक और कॉलेज ग्रैजुएट को मांग के आधार पर एक साल के लिए सशुल्क प्रशिक्षण दिया जाए।
एक अन्य पार्टी द्रमुक मुन्नेत्र कषगम (DMK) ने एक सुसंगत सामाजिक न्याय घोषणापत्र की पेशकश की है जो विनिर्माण और उच्च-मूल्य सेवाओं की नौकरियों को बेहतर बनाने के विशेष प्रस्तावों के साथ यह अतीत के मानव विकास और विकास की उपलब्धियों पर आधारित है। यदि प्रशिक्षण के प्रस्ताव पर 1 लाख करोड़ रुपये खर्च किए जाने से भी नौकरियों के लिए कुशल लोग तैयार होंगे और इससे बड़े पैमाने पर प्रतिफल मिलेगा।
यह तो अच्छी शुरुआत है, लेकिन और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। जैसा कि मशहूर अर्थशास्त्री कीन्स ने कहा था, ‘अगर आप इसे कर सकते हैं, तो आप इसका खर्च भी उठा सकते हैं।’ पैसा असल समस्या नहीं है। उदाहरण के लिए, यदि एक प्रशिक्षण कार्यक्रम पर लगभग 1 लाख करोड़ रुपये खर्च करने से रोजगार के लिए कुशल लोग तैयार होंगे तो यह भविष्य में बहुत अधिक लाभ देगा।
इसी तरह, एक स्थिर और अधिक उत्पादक कृषि क्षेत्र न सिर्फ गरीबी कम करने में मदद करेगा बल्कि समावेशी विकास के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। साथ ही, सामाजिक न्याय के उपाय भी बहुतजरूरी हैं जो मानव विकास और उनकी भागीदारी में आने वाली बाधाओं को दूर करेंगे।
मुख्य बात यह सुनिश्चित करना है कि इन उपायों को बड़े पैमाने पर लागू किया जाए। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MANREGA) और सर्व शिक्षा अभियान जैसी योजनाओं में देखी गई धीमी प्रगति, आगे बढ़ने के लिए न तो स्वीकार्य होगी और न ही यह वहन करने योग्य होगी।
बड़े पैमाने की अन्य नीतिगत योजनाओं की भी कमी नहीं है। मैंने भी ‘जहां घर वहीं नौकरी’ का प्रस्ताव दिया था जिससे पलायन की समस्या के साथ ही उत्तर-दक्षिण के विभाजन की समस्या का हल होगा और यह एक नए राष्ट्रीय राजनीतिक समझौते का आधार बन सकता है।
शहरी क्षेत्र के लिए नरेगा जैसी योजनाओं के साथ ही भारत को झुग्गियों से मुक्त करने के लिए सरकारी जमीन का उपयोग, घरेलू बाजार की मांग को पूरा करने के लिए विनिर्माण क्षेत्र पर नए सिरे से ध्यान देना, वियतनाम और बांग्लादेश से 200 रुपये की शर्ट के आयात को रोकना, गरीब समर्थक बुनियादी ढांचे (एयरपोर्ट के बजाय बस स्टेशन, फुटपाथ आदि) पर जोर देना विभिन्न राजनीतिक दलों के जमीनी कार्यकर्ताओं को अच्छा लग सकता है।
चुनाव महत्त्वपूर्ण है।
आज के मतदाता यह फैसला कर रहे हैं कि देश का आर्थिक बदलाव उनके चुनावी फैसले को निर्धारित करेगा या नहीं। फैसला 4 जून को होगा जिसमें हमारे सामूहिक वोट के नतीजे सामने दिखेंगे।
(लेखक ओडीआई, लंदन में विजिटिंग सीनियर फेलो हैं और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य रह चुके हैं)