अर्जुन टैंक को सेना में शामिल करने से पहले ही यह विवादों में घिर गया है। विडंबना यह है कि इस टैंक को वैसे लोगों की आलोचना का शिकार होना पड़ रहा है, जो (सैन्य बल) आखिरकार युध्द में इसका इस्तेमाल करेंगे।
सेना के महारथियों ने रक्षा मामलों पर संसद की स्थायी समिति के सामने इस टैंक को बेकार करार दिया है। सेना के अधिकारियों का कहना है कि वे तब तक अर्जुन टैंक को स्वीकार नहीं करेंगे, जब तक इसमें आमूलचूल बदलाव न किया जाए। हालांकि, इसके मद्देनजर क्या बदलाव करने की जरूरत है, इसके बारे में अब तक साफ-साफ नहीं बताया गया है।
अर्जुन टैंक की कहानी हथियार प्रणाली के निर्माण में कमियों की ओर इशारा करती है। इसकी शुरुआत 1974 में हुई थी, जब रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने मुख्य युध्दक टैंक (एमबीटी) के निर्माण का काम शुरू किया था। इस बाबत महसूस की जा रही खुशी धीरे-धीरे उस वक्त खत्म होने लगी, जब डीआरडीओ को इसके पूरी तरह तैयार होने की संभावित तारीख को कई बार आगे बढ़ाना पड़ा।
उस वक्त डीआरडीओ बार-बार यही कहता रहा कि टैंक का निर्माण अंतिम चरण में है और इस बाबत बार-बार तारीखें बढ़ाने से सेना का भी इस संगठन पर भरोसा जाता रहा। इस प्रोजेक्ट की असफलता में सेना भी काफी हद तक जिम्मेदार थी, क्योंकि जैसे-जैसे नई टेक्नोलोजी आ रही थी, सेना इस प्रोजेक्ट में नई टेक्नोलोजी को अमल में लाने की मांग कर रही थी।
डीआरडीओ के वैज्ञानिक मजाक में कहते हैं कि एक तरफ वे किसी टेक्नोलोजी का इस्तेमाल करते हैं, और दूसरी तरफ सेना को एक और नया आइडिया मिल जाता है।हालांकि इस बात को अतिशयोक्ति जरूर कहा जा सकता है, लेकिन अर्जुन टैंक के डिजाइन में बार-बार बदलाव संबंधी डीआरडीओ की शिकायत में दम है।
साथ ही सेना की इस दलील में भी दम है कि 1990 और 2000 के दशक में 70 और 80 के दशक की डिजाइन को स्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इस बाबत चल रहे आरोप-प्रत्यारोप का कोई तुक नहीं है। हालांकि अर्जुन टैंक तकनीकी रूप से कितना भी उन्नत क्यों न हो. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इसमें कुछ कमियां हैं, जिसे दूर नहीं किया जा सका है। इस पूरी कवायद में रक्षा मंत्रालय मूक दर्शक की भूमिका में नजर आया।
अर्जुन टैंक के अनगिनत ट्रायल हो चुक हैं। इसके तहत 15 अर्जुन टैंक 75 हजार किलोमीटर की दौड़ लगा चुके हैं और 10 हजार राउंड से भी ज्यादा फायरिंग कर चुके हैं। यह ट्रायल अब तक का सबसे विस्तृत ट्रायल है। इसके बावजूद सेना दूसरे टैंक की मांग पर अड़ी है। 70 के दशक के उत्तरार्ध में सेना ने टी-72 खरीदा था, जबकि 1990 के दशक में टी-90 आया।
रूसी टैंकों पर हजारों करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद इनमें हमेशा कोई न कोई दिक्कत पेश आती रही है। फिलहाल इन टैंकों के रात्रि में भी युध्द कर सकने की क्षमता विकसित करने, रेडियो सेट और सुरक्षा कवच आदि सुविधाओं के लिए सैकड़ों करोड़ खर्च किए जा रहे हैं। फायरिंग के दौरान इन टैंकों के फटने की वजह से कई भारतीय सैनिक अपनी जान भी गंवा चुके हैं।
इसके उलट अर्जुन टैंक के निर्माण में महज 300 करोड़ रुपये खर्च किए गए। यहां इस बात का यह मतलब नहीं निकाला जाना चाहिए कि रूसी टैंक बिल्कुल बेकार हैं। सैन्य उपकरणों को चलाना काफी खतरनाक होता है और इनका नवीनीकरण एक सतत प्रक्रिया है। लेकिन सेना द्वारा रूसी टैंक की कमियों पर चुप्पी और अर्जुन टैंक पर उठाए जा रहे सवाल काफी विरोधाभासी प्रतीत होते हैं।
डीआरडीओ द्वारा पहले पेश किए गए टैंक पर सेना की खिन्नता को एक हद तक जायज भी करार दिया जा सकता था, क्योंकि उस वक्त ये टैंक जंग के मैदान के लिए पूरी तरह तैयार नहीं थे। लेकिन अब अर्जुन टैंक का प्रदर्शन बेहतर है और इसके मद्देनजर सेना की नाराजगी को जायज नहीं कहा सकता। अर्जुन टैंक का ट्रायल करने वाले रेजिमेंट के सैनिकों ने इसकी काफी तारीफ भी की है।
हालांकि इस टैंक को चलाने में पेश आ रही दिक्कतों को एक समस्या माना जा सकता है, लेकिन सैनिकों और जूनियर अफसरों का मानना है कि अर्जुन भारतीय सेना के लिए एक अच्छे विकल्प के रूप में सामने आया है, जबकि जनरल इस टैंक को लेकर दुविधा में नजर आते हैं।
ऐसा लगता है कि मानो सेना अर्जुन टैंक के मुकाबले रूसी टैंकों का बचाव कर रही है। अर्जुन टैंक को विकसित करने वाले संस्थान सेंट्रल वीइकल रिसर्च एंड डेवलपमेंट केंद्र, चेन्नै स्वदेश निर्मित टैंक और रूसी टैंक के आमने-सामने ट्रायल की मांग कर रही है। इसके तहत टी-72 और टी-90 और अर्जुन टैंक के तुलनात्मक ट्रायल की मांग की जा रही है।
सेना 2005 में इस बात पर सहमत भी हो गई थी, लेकिन बाद में पीछे हट गई। इसके बदले सेना ने रक्षा मंत्रालय को बताया कि वह 124 अर्जुन टैंक खरीदेगी और इस बाबत ट्रायल का मकसद सिर्फ उपकरणों में फेरबदल होगा। ऐसे ट्रायल का अर्जुन टैंक के प्रदर्शन से कोई लेना देना नहीं है, इसके बावजूद सेना ने संसद की स्थायी समिति के सामने कहा कि टैंक का प्रदर्शन काफी संदेहास्पद है।
बहरहाल अर्जुन टैंक को लेकर सेना के इस रवैये की प्रमुख वजह टैंक को विकसित करने में उसके रोल का सीमित होना है। थलसेना के उलट नौसेना का अपना डिजाइन निदेशालय है, जो अपने लिए जरूरी उपकरण के निर्माण से पहले उसका ब्लूप्रिंट तैयार करता है। थलसेना के पास न कोई तो ऐसा विभाग है और न ही तकनीकी विशेषज्ञ, जो टैंक की डिजाइन तैयार करने के काम को अंजाम दे सके।
सेना के डायरेक्टरेट जनरल ऑफ मेकेनाइज्ड फोर्सेज (डीजीएमएफ) में सिर्फ सेना के वैसे अफसर शामिल हैं, जो युध्द के मैदान में अपनी भूमिका निभाते हैं और ये अफसर अर्जुन को राष्ट्रीय रक्षा प्रोजेक्ट का हिस्सा मानते हैं। लेकिन उन्हें यह समझना चाहिए कि यही टैंक को उन्हें युद्द के मैदान में जीत दिला सकता है। इस पूरे मामले से सबक लेते हुए सेना को अपने रवैये में बदलाव करने की जरूरत है।