भारतीय कृषि क्षेत्र की महिला श्रमिकों पर निर्भरता बढ़ती ही जा रही है। यह बात कई शोध एवं अध्ययन से सिद्ध भी हो गई है। इन शोध एवं अध्ययनों में जो तथ्य आए हैं उनकी पुष्टि कृषि जनगणना एवं विभिन्न सर्वेक्षणों में भी हो चुकी है। देश में आर्थिक रूप से सक्रिय कुल महिलाओं में करीब 80 फीसदी कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई हैं।
कृषि श्रम बल में जितने लोग शामिल हैं उनमें महिला श्रमिकों की भागीदारी एक तिहाई है। इतना ही नहीं, जितने भी स्वरोजगार प्राप्त किसान हैं उनमें महिलाओं का अनुपात 48 फीसदी है। कुल मिलाकर, शहरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की कार्य में भागीदारी दर 41.8 फीसदी है। शहरी क्षेत्रों में यह आंकड़ा 35.13 फीसदी है।
पशुपालन से जुड़े करीब 95 फीसदी कार्य महिलाएं ही करती हैं। खेतों में फसलों के उत्पादन में महिलाओं की भागीदारी 75 फीसदी है। फल एवं सब्जियां उगाने से जुड़ी गतिविधियों में भी महिलाओं की भागीदारी 79 फीसदी है। फसलों की कटाई के बाद जितने कार्य होते हैं वे ज्यादातर महिलाओं द्वारा ही संपादित होते हैं।
प्राय: देखा गया है कि जमीन का आकार कम होने एवं इन पर मालिकाना हक का विभाजन बढ़ने से रोजगार की तलाश और अधिक आय अर्जित करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले पुरुष शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।
इससे छोटी एवं सीमांत कृषि जमीन के प्रबंधन की सारी जिम्मेदारी महिलाओं के कंधों पर आ गई है। वर्ष 2017-18 की आर्थिक समीक्षा में आधिकारिक रूप से इस बात को स्वीकार किया गया है। उस समीक्षा में कहा गया था कि पुरुषों के ग्रामीण क्षेत्रों से निकलकर शहरों की तरफ रोजगार की खोज में जाने से कृषि क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी काफी बढ़ गई है। अब बड़ी संख्या में महिलाएं पशुपालन से लेकर, उत्पादक, उद्यमी कृषि श्रमिक एवं गृहिणी जैसी विभिन्न भूमिकाओं में एक साथ नजर आ रही हैं।
कृषि क्षेत्र में महिलाएं जिन गतिविधियों में लगी हैं उनके लिए विशेष हुनर की जरूरत नहीं होती है मगर इनमें परिश्रम अधिक करना पड़ता है। ऐसे कार्यों के लिए पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को इसलिए तरजीह दी जाती है कि कि वे कठिन परिश्रम कर सकती हैं और कम और अनियमित भुगतान पर भी काम करने के लिए तैयार रहती हैं। महिला श्रमिक घासों की कटाई, खेत से खरपतवार निकालने, कुदाल-खुरपी चलाने, कॉटन स्टिक एकत्र करने, कपास बीज से रेशे और अनाज से भूसा अलग करने के काम के लिए उपयोगी मानी जाती हैं।
महिलाएं घरेलू मवेशी की भी देखभाल कर लेती हैं, उन्हें चारा-पानी देने के साथ उनसे दूध निकालती हैं और दही, मक्खन, घी जैसे कीमती उत्पाद भी तैयार करती हैं। उल्लेखनीय है कि कृषि क्षेत्र में कुछ ऐसे कार्य भी होते हैं जिनके लिए कुछ प्रशिक्षण की जरूरत होती है और महिलाएं इनके लिए पुरुषों की अपेक्षा अधिक उपयुक्त मानी जाती हैं।
उदाहरण के लिए संकर वर्ण के कपास बीज उत्पादन के कार्य में परागण बहुत ही धैर्य, सटीक तरीके से करना पड़ता है और फूलों के चयन का विशेष ध्यान रखना होता है। पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं ये कार्य अधिक संजीदगी से कर सकती है।
खेतों में धान की रोपाई भी एक ऐसा ही काम है जो अक्सर पुरुषों के मुकाबले महिलाएं अधिक तेजी से कर लेती हैं। मगर अफसोस की बात है कि कृषि क्षेत्र में महिलाओं के अहम योगदान के बावजूद उनके साथ कई मामलों में सौतेला व्यवहार होता है। महिलाएं सिर्फ कृषि कार्यों में ही बढ़-चढ़ कर हिस्सा नहीं लेतीं बल्कि वे घरेलू कार्य भी उतनी ही बखूबी से करती हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में विशेषकर कृषि क्षेत्र में महिलाओं एवं पुरुषों में असमानता काफी अधिक है। शहरों में दोनों के बीच भेदभाव कम पाया जाता है।
हालांकि, शहरों में भी कार्यालयों में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में प्रायः कम अहमियत दी जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में परिवार का मुखिया पुरुषों को ही माना जाता है, भले ही वे भले घरेलू काम न के बराबर करते हैं। खेतों का मालिकाना हक भी आधिकारिक रूप से पुरुषों के नाम पर ही होता है।
सरकार द्वारा चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं के केंद्र में भी पुरुष ही रहते हैं। इसका मुख्य कारण जमीन का मालिकाना हक है जो पुरुषों के नाम पर ही होता है। महिलाएं अधिक काम करती हैं और वे जमीन-जायदाद का मालिकाना हक पाने की वास्तविक हकदार हैं।
जमीन का मालिकाना हक महिलाओं के नए नाम पर नहीं होने से उन्हें ऋण आदि की सुविधा भी नहीं मिलती है। इसकी वजह यह है कि ऋण के बदले गिरवी रखने के लिए उनके पास जमीन-जायदाद आधिकारिक रूप में नहीं होती है।
महिलाओं को इसी वजह से सहकारी समितियों या किसान उत्पादक संगठनों की सदस्यता लेने में परेशानी होती है। महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने में भी महिलाओं की भागीदारी कम है। सबसे बदतर स्थिति तब होती है जब एक ही कार्य के लिए महिलाओं को कम और पुरुषों को अधिक पारिश्रमिक दिया जाता है।
आर्थिक मोर्चे पर कमजोर होने के साथ ही सामाजिक स्तर भी महिलाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जाता है। उनके साथ घरों में भी दुर्व्यवहार होता है और उनमें कई हिंसा की शिकार भी होती हैं। वैसे तो यह सामाजिक मुद्दा माना जा सकता है लेकिन जमीन-जायदाद का मालिकाना हक महिलाओं के नाम पर नहीं होने से इसका गहरा ताल्लुक है।
एक अध्ययन में यह पाया गया है कि उन महिलाओं के साथ शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक दुर्व्यवहार अधिक होता है जिनके नाम पर जमीन-जायदाद नहीं होती है। जिन महिलाओं के नाम पर जमीन एवं अन्य जायदाद होती हैं उनके साथ सामाजिक स्तर पर दुर्व्यवहार या हिंसा अपेक्षाकृत कम होती है।
लिहाजा, महिलाओं के सामाजिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन को देखते हुए उन्हें इस विकट परिस्थिति से निकालना आवश्यक है। महिलाओं के आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तीकरण के लिए कृषि क्षेत्र में उनकी भूमिका एवं क्षमता को और अधिक निखारने की जरूरत है। मगर ऐसा तभी संभव हो पाएगा जब जमीन-जायदाद का मालिकाना हक उनके पास होगा और ऋण, तकनीक सीखने एवं आवश्यक प्रशिक्षण पाने तक उनकी पहुंच आसान होगी।
संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार महिला एवं पुरुषों की संसाधन, कौशल विकास, और कृषि क्षेत्र में अवसरों तक समान पहुंच होने से विकासशील देशों में कृषि उत्पादन 2.5 से 4 फीसदी तक बढ़ाया जा सकता है।
उत्पादन पूर्व और फसलों की कटाई के बाद की गतिविधियों तक कृषि मूल्य श्रृंखला में महिलाओं की बड़ी भागीदारी को देखते हुए भारत में भी कृषि विकास नीतियों का महिलाओं को लेकर संवेदनशील होना आवश्यक है। कृषि क्षेत्र में कृषि कार्यों से जुड़े विषयों पर तकनीकी मदद एवं सुविधाओं में भी महिलाओं की जरूरतों का ध्यान रखा जाना चाहिए।
ये सुविधाएं पुरुषों पर ही अधिक केंद्रित रहती हैं। महिलाओं की शारीरिक क्षमता को ध्यान में रखते हुए कृषि कार्यों के दौरान उन पर परिश्रम का बोझ कम करने के लिए विशेष कृषि उपकरणों की जरूरत है। जमीन एवं जायदाद पर महिलाओं के मालिकाना हक को बढ़ावा देने के लिए विशेष प्रोत्साहन दिए जाने की आवश्यकता है।
इसके लिए पंजीयन से लेकर अन्य शुल्कों में रियायत दी जा सकती है। ये उपाय महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा देने के साथ ही सरकारी कल्याणकारी योजनाओं तक उनकी (महिलाओं) आसान पहुंच सुनिश्चित कर सकते हैं। इससे महिलाओं की समाज में स्थिति भी मजबूत होगी और घरेलू एवं कृषि से जुड़े निर्णय लिए जाने की प्रक्रिया में भी उनकी भूमिका बढ़ जाएगी।