एक सप्ताह पहले इस बारे में खबरें आई थीं कि विस्ट्रॉन भारत में अपनी आईफोन असेंबली इकाई बंद कर रही है और अपने अन्य विनिर्माण संबंधी काम को वियतनाम तथा मैक्सिको जैसे देशों में स्थानांतरित कर रही है। संभव है कि मुनाफे का दबाव हो और ऐपल के अन्य आपूर्तिकर्ताओं मसलन फॉक्सकॉन और पेगाट्रॉन के साथ प्रतिस्पर्धा करने में मुश्किल हो रही हो।
अब टाटा समूह दखल दे रहा है और बेंगलूरु के बाहरी इलाके में स्थित विस्ट्रॉन के समूचे संयंत्र को खरीद रहा है। यह देखना होगा कि क्या टाटा समूह इस संयंत्र को मुनाफे में चलाने में कामयाब रहता है और क्या यह व्यवस्था टिकाऊ साबित होती है? सामान्य कारोबारी बातों के अलावा खराब औद्योगिक संबंधों का मुद्दा भी है और इन दिनों ऐसी बातों पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता है।
तीन वर्ष से भी कम समय पहले विस्ट्रॉन की फैक्टरी में हिंसा भड़की थी। पुलिस शिकायत के मुताबिक उस वक्त करीब 5,000 अनुबंधित श्रमिकों और 2,000 अज्ञात लोगों ने फैक्टरी में तोड़फोड़ की थी। इस प्रकार की हिंसा असामान्य नहीं है लेकिन साथ ही यह काम की दबाव वाली परिस्थितियों और व्यवहार के बारे में भी बताती हैं। साथ ही यह भी कि कैसे देश के विनिर्माण क्षेत्र में औद्योगिक संबंधों में गिरावट आ रही है।
यही वजह है कि इस बात पर करीबी नजर रखनी होगी कि प्रगाढ़ औद्योगिक संबंधों के लिए जाना जाने वाला टाटा समूह इस संयंत्र का प्रबंधन किस प्रकार करता है। यह बात महत्त्वपूर्ण है खासकर यह देखते हुए कि भारत सरकार अभी भी मेक इन इंडिया कार्यक्रम के साथ आगे बढ़ रही है। ऐपल ने पहले ही यह संकेत दे दिया है कि वह अपने आईफोन निर्माण का 25 फीसदी हिस्सा भारत स्थानांतरित करना चाहती है।
बहरहाल, आलोचकों ने बार-बार संकेत किया है कि ताइवान की फॉक्सकॉन जैसी कंपनियां चीन स्थित अपनी फैक्टरी में श्रमिकों का जबरदस्त शोषण करने के लिए कुख्यात रही हैं। अनुबंधित श्रमिकों से कई-कई घंटों तक काम कराया जाता है, उन्हें लगातार काम सौंपा जाता है, न्यूनतम वेतन दिया जाता है, अक्सर उन्हें ओवरटाइम नहीं दिया जाता है या उन्हें कोई सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं होती है, कैंटीन में खराब गुणवत्ता वाला भोजन मिलता है, शौचालय जाने के पर्याप्त अवसर नहीं मिलते, अगर वे काम को लेकर कोई शिकायत करते हैं तो उन्हें सार्वजनिक रूप से बेइज्जत किया जाता है।
समय बीतने के साथ चीन में फॉक्सकॉन की फैक्टरियों में आत्महत्या के कई मामले भी दर्ज किए गए। भारत के औद्योगिक जगत में भी ऐसा दमनकारी प्रबंधन अस्वाभाविक नहीं है। पुणे में एक शीर्ष वाहन निर्माता कंपनी के सुपरवाइजरों के बारे में खबर है कि वे कर्मचारियों को लगातार काम से राहत की मांग करने पर दंडित करते हैं और उन्हें एक खास जगह पर धूप में खड़ा रखते हैं।
इसमें दो राय नहीं कि युवाओं को रोजगार की सख्त जरूरत है। विनिर्माण और जीडीपी वृद्धि बढ़ाने की कोशिश में भारत सरकार ने बहुत बड़े पैमाने पर औद्योगिक घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देश में निवेश करने के लिए आकर्षित किया है।
अब कारोबारी सुगमता बहुत अहम हो चुकी है। 2020 में उत्तर प्रदेश, गुजरात और अन्य राज्यों में श्रम कानूनों को अचानक निरस्त करना उसी फॉर्मूले का हिस्सा है जिसके तहत चीन में काम कर रही बहुराष्ट्रीय कंपनियों के समक्ष भारत को निवेश के संभावित केंद्र के रूप में प्रस्तुत करना है।
इसका यह अर्थ नहीं होना चाहिए कि श्रमिकों के शोषण और अमानवीय परिस्थितियों में काम करने के दौरान सरकार दूसरी ओर देखना शुरू कर दे। यदि ऐसा हुआ तो आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा स्वयं को कमतर रोजगार में फंसा हुआ पाएगा और उसकी वृद्धि की कोई खास संभावना नहीं रहेगी। यह आशंका रहेगी कि कारोबारी मंदी आते ही उन्हें काम से निकाल दिया जाएगा। यह वास्तविक खतरा है।
मई माह के आरंभ में मैं मुंबई में एक पुस्तक के लोकार्पण में शामिल हुआ। मराठी भाषा की वह किताब विवेक पटवर्धन ने लिखी है जो एशियन पेंट्स में मानव संसाधन विभाग के वैश्विक प्रमुख रह चुके हैं। पुस्तक में श्रमिकों की विशिष्ट दुनिया के ब्योरे हैं जो उनके अनुभवों पर आधारित हैं।
लोकार्पण समारोह में टाटा समूह के पूर्व मानव संसाधन प्रमुख सतीश प्रधान और जानी मानी श्रम अर्थशास्त्री सुचिता कृष्णप्रसाद ने भी खुलकर और विचारपूर्ण ढंग से अपनी बात कही। मैंने बाद में उनसे जमीनी हकीकत को बेहतर ढंग से समझना चाहा।
उन बातों से निकले कुछ सूत्र आपके लिए प्रस्तुत हैं। औद्योगिक संबंधों की पुरानी दुनिया अब वह क्षेत्र नहीं रह गया है जहां उद्योग पर ध्यान दिया जाए। इसका काफी हिस्सा मानव संसाधन और प्रतिभा प्रबंधन में स्थानांतरित हो गया है। औद्योगिक संबंधों से जुड़े काम को मूल्यवान नहीं माना जाता है।
टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज जैसे बेहतरीन शैक्षणिक संस्थानों से निकलने वाले शानदार मस्तिष्क अब औद्योगिक संबंधों जैसे विषय में रुचि नहीं रखते। यही वजह है कि नई पीढ़ी के पेशेवरों में अक्सर वह समानुभूति और चेतना नहीं होती है जो इससे पिछली पीढ़ी में होती थी और जो फैक्टरियों को बेहतर कार्यस्थल बनाने की जुगत में रहते थे।
एक वक्त था जब श्रम आयुक्त और निरीक्षकों को शक्तिशाली माना जाता था और भ्रष्ट भी। एक के बाद एक लगातार सरकारों ने इंसपेक्टर राज को सीमित किया और राज्य की भूमिका को कम किया। श्रम आयुक्त भी बहुत कम अवसरों पर शिकायतों पर काम करते हैं। विवाद निस्तारण की तयशुदा प्रणाली को नहीं अपनाया जाता।
इसके साथ ही श्रम संगठनों के आंदोलन जिनका मकसद श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करना है, वे भी अपना असर गंवा चुके हैं। आंशिक तौर पर ऐसा इसलिए हुआ कि उनमें से कुछ ने प्रबंधन के साथ सौदेबाजी कर ली या उन्हें लगा श्रमिक कल्याण के काम की फंडिंग आसान नहीं है।
राजनीतिक संपर्कों वाले ठेकेदार उद्योग जगत को सस्ते श्रमिक मुहैया कराते हैं। अब उन्होंने ऐसे संस्थान स्थापित कर लिए हैं जो आईटीआई के विद्यार्थियों को इंजीनियरिंग में डिप्लोमा कराते हैं और उन्हें नैशनल एंप्लॉयबिलिटी इनहैंसमेंट मिशन में प्रशिक्षु बनवाते हैं। छात्र चारों वर्ष काम करते हैं। संबंधित उद्योग उन्हें नाम मात्र का भुगतान करता है। हकीकत यह है कि उनमें से कई दिन में 12 घंटे काम करने के बाद ठीक से पढ़ाई नहीं कर पाते हैं।
जब भरोसा टूट जाता है और प्रबंधन अमानवीय हो जाता है तो जीत किसी की नहीं होती। इसलिए अगर हम समन्वय के साथ समावेशी वृद्धि हासिल करना चाहते हैं तो हमें इस संकट से तत्काल और व्यवस्थित ढंग से निपटना होगा। क्या इस बात पर किसी का ध्यान है?
(लेखक फाउंडिंग फ्यूल के सह-संस्थापक एवं निदेशक हैं)