भारत में हमारा रुझान वसूले जा चुके कर्ज बनाम दिवालिया प्रक्रिया से गुजर रहे कर्ज के बीच तुलना का होता है। हालांकि जब कर्ज की वसूली में समस्या होती है तो पहली तवज्जो ऋण पुनर्गठन की राह पर जाने वाली बातचीत को ही दी जानी चाहिए। ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (आईबीसी) के साये में पुनर्गठन की कवायद सभी के लिए मुफीद है और केवल अलहदा हालात में ही मामला दिवालिया संहिता के पाले में जाना चाहिए। इसकी वजह यह है कि भारत के संस्थागत परिवेश के कई अवयव मौजूद होते हैं।
मान लीजिए कि 100 रुपये के शुद्ध वर्तमान मूल्य (एनपीवी) का एक कर्ज है। कर्जदार कंपनी वित्तीय मुश्किल में फंस जाती है और उस कर्ज के लौटाए जाने की संभावना नहीं रह जाती है। ऐसी स्थिति में एक नजरिया आईबीसी कानून का सहारा लेने पर जोर देता है। अगर आप अपने कर्ज नहीं चुका सकते हैं तो कर्जदाता शेयरधारकों को निकाल बाहर करेंगे और कंपनी की बची हुई कीमत ले लेंगे। मान लें कि उस फर्म का अवशेष मूल्य 40 रुपये रह गया है। एक बाजार अर्थव्यवस्था का संस्थागत ढांचा बनाने के लिए कर्जदाताओं के पास यह शक्तिहोना निहायत ही जरूरी है।
लेकिन कर्जदाताओं के लिए हमेशा आईबीसी कानून पर ही निर्भर रहना उनके वाणिज्यिक हित में अधिक नहीं होता है। जब उन्हें आईबीसी प्रक्रिया के जरिये 40 रुपये का अवशेष मूल्य मिलता है तो भी उन्हें 60 रुपये का नुकसान होता है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या इस स्थिति को बेहतर करने का कोई तरीका है? एक तरफ तो 100 रुपये का वह कर्ज है जिसे कंपनी के शेयरधारकों ने चुकाने से मना कर दिया है। दूसरी तरफ दिवालिया प्रक्रिया के जरिये 40 रुपये मिलने की संभावना है। क्या इन दोनों के बीच में कोई स्थिति बनने की गुंजाइश है? यह सवाल कर्ज पुनर्गठन से जुड़ा हुआ है।
दिवालिया प्रक्रिया कर्जदार कंपनी के बारे में गहरी जानकारी रखने वाले शेयरधारकों को बाहर कर देती है और कंपनी को भंग कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया में वकीलों, लेखाकारों और सलाहकारों को मोटी रकम देनी पड़ती है। इन्हें सम्मिलित रूप से ‘दिवालिया लागत’ में शामिल किया जाता है। अगर शेयरधारक एवं कर्जदाता बातचीत कर किसी समाधान तक पहुंच जाते हैं तो दिवालिया प्रक्रिया की यह लागत बचाई जा सकती है।
मोटे तौर पर एक बढिय़ा समाधान यह है कि कर्जदाता बकाया कर्ज की राशि में कटौती करें और शेयरधारक राइट्स इश्यू भी जारी करें। मान लें कि दोनों पक्षों के बीच 75 रुपये के एनपीवी भुगतान पर सहमति बन जाती है तो फिर कर्जदाता को इस कर्ज पर होने वाला नुकसान 60 रुपये से घटकर 25 रुपये हो जाएगा। कागज पर तो यह काफी बेहतर सौदा नजर आता है। हालांकि इसमें भी जोखिम है। कर्जदाता इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हो सकते हैं कि पुनर्गठित ऋण वास्तव में कारगर होगा। इसके अलावा शेयरधारक राइट्स इश्यू जारी कर 20 रुपये जुटा सकते हैं। इससे एक साथ दो मकसद पूरे होते हैं। पहला, शेयरधारक इस निर्गम के जरिये कर्जदाताओं को बकाया रकम चुकाने की अपनी मंशा से परिचित कराते हैं और कारोबार को बचा पाने का ठोस संकेत देने में भी सफल रहते हैं। दूसरा, निर्गम के जरिये शेयरधारक फर्म को वित्तीय रूप से सेहतमंद बनाने और 75 रुपये बकाये के भुगतान के वादे पर खरा उतारने की भी स्थिति में पहुंच जाते हैं। शेयरधारकों के नजरिये से देखें तो महज 20 रुपये की कीमत देकर कंपनी की कमान परिचित लोगों के ही हाथ में ही बनी रहेगी।
यह कर्ज पुनर्गठन में एक बढिय़ा सौदे का मोटा-मोटा चित्रण है। अगर नए शेयरधारकों का कंपनी में भरोसा नहीं रहता है तो फिर आईबीसी ही सबसे अच्छा जवाब है। अगर उन्हें लगता है कि वे इसे कारगर बना सकते हैं तो फिर उन्हें एक राइट्स इश्यू कर अपनी प्रतिबद्धता दर्शानी चाहिए। वहीं कर्जदाताओं को भी कर्ज की राशि में कटौती को मान लेना चाहिए। कर्ज पुनर्गठन के साथ इक्विटी डालने के कदम से कंपनी को वित्तीय रूप से अधिक सेहतमंद बनाया जा सकेगा जिससे उसे नई शुरूआत का मौका भी मिल पाएगा। हालांकि इस बातचीत के दौरान आईबीसी संहिता की कानूनी जटिलताओं से परहेज किया जाना चाहिए लेकिन ऐसी कवायद इस कानून के साये में ही अंजाम दी जा सकती है। कुछ मायनों में आईबीसी मशीनरी का मूल मकसद ही वह खतरा पैदा करना है जिसके जरिये शेयरधारकों को मामला सुलटाने के लिए बातचीत की मेज तक लाया जा सके।
इस उदाहरण में हम देखते हैं कि कर्जदाताओं को ऋण पुनर्गठन के जरिये जहां 25 रुपये का ही घाटा उठाना पड़ रहा है, वहीं आईबीसी का सहारा लेने पर उन्हें 60 रुपये का भारी नुकसान उठाना पड़ता। इन दोनों राशियों का फर्क यानी 35 रुपये असल में दिवालिया प्रक्रिया की लागत है। यह स्थिति लचीलेपन की कमी से जूझ रहे समाज द्वारा थोपे गए गैरजरूरी मूल्य ह्रास को दर्शाती है जिसमें बातचीत क रास्ते बढिय़ा सौदे नहीं हो पाते हैं।
भारत में हम अक्सर सोचते हैं कि वित्त को एक नौकरशाही व्यवस्था में सीमित किया जा सकता है और नियामकों द्वारा तय फॉर्मूलों या केंद्रीय योजनाओं के जरिये फैसले लिए जा सकते हैं। हालांकि अधूरी जानकारी, निर्णय एवं जोखिम उठाने पर आधारित अटकलबाजी वाले पूर्वानुमान एवं अस्पष्ट सूचना ही वित्त का सार होती है। असली दुनिया की किसी विशिष्ट स्थिति के लिए इस लेख का संख्यापरक मूल्य तय करने वाला कोई भी वस्तुनिष्ठ फॉर्मूला नहीं है। इन संख्याओं को जानने के लिए सांगठनिक पूंजी की जरूरत होती है। ये मूल्य जटिल वित्तीय फर्मों में कार्यरत कर्मचारियों के माध्यम से सामने आते हैं। इन फर्मों को पता होता है कि किस तरह सूचना जुटाई जाए, शोध किया जाए, निर्णय तक पहुंचा जाए और बातचीत कर बढिय़ा सौदा किया जाए। इनमें से किसी भी काम में न्यायपालिका, विधायिका, कार्यपालिका या नियामक की कोई भूमिका नहीं है।
किसी सूझबूझ वाले समझौते में अधिकांश तनावग्रस्त कर्जदाताओं को ऋण पुनर्गठन का विकल्प आजमाना चाहिए। इसमें आईबीसी की भूमिका महज बातचीत के लायक हालात पैदा करना और वार्ता नाकाम होने पर मामले को अपने हाथ में लेने की होनी चाहिए। भारतीय संवैधानिक परिदृश्य के कई बिंदु भी नजर आते हैं। बैंकिंग नियमन कर्ज पुनर्गठन एवं आईबीसी दोनों को ही सीमित करता है। सख्त बैंकिंग नियमन होने पर बैंक तनावग्रस्त कर्ज में आक्रामक कटौती के लिए मजबूर होंगे। ऊपर के उदाहरण में ही देखें तो बैंक को कर्ज की रकम में कटौती के लिए बाध्य किया जाना चाहिए। एक बार कटौती हो गई तो बैंक के पास दिवालिया प्रक्रिया में जाने या पुनर्गठन का रास्ता अपनाने की वाजिब वजह होगी। अगर तनावग्रस्त परिसंपत्ति का मूल्य 100 रुपये होने आंकने के लिए बैंकिंग नियमन का सहारा लिया जाता है तो बैंक महज कर्ज स्वीकृत करने और फिर बेहतरी की उम्मीद करने तक ही सीमित हो जाते हैं।
दूसरी समस्या कर्जदाता बैंकों के कर्मचारियों के बीच लाभ कमाने के प्रति झुकाव से जुड़ी है। वित्तीय फर्मों के लिए अपने कर्मचारियों को संगठन के लिए काम कराना वाकई में मुश्किल है। वित्तीय फर्मों के भीतर कर्मचारियों में काम न करने, पर्दा डालने और भ्रष्टाचार का रुझान देखा जाता है। एजेंसियों एवं नियामकों की जांच का भय और विधि के शासन संबंधी प्रक्रिया का अभाव भय का माहौल पैदा करता है और वह पुनर्गठन संबंधी बातचीत में दखल देता है।
(लेखक नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस ऐंड पॉलिसी, नई दिल्ली में प्रोफेसर हैं।)