नेटफ्लिक्स पर स्टीफन ग्राहम की ‘ऐडोलेसंस’ वेब सीरीज काफी दिलचस्प है। इसके चार एपिसोड ऐसे फ्रेम की तरह हैं जो पूरी तरह से अलग-अलग दुनिया में स्थापित हैं – मगर वे चित्र को पूरा करते हुए पूरी कहानी एवं छुपे संदेश को बखूबी अंजाम तक पहुंचाते हैं। पहले एपिसोड में 13 वर्षीय जैमी मिलर की गिरफ्तारी का जिक्र है जिस पर ब्रिटेन में एक लड़की की हत्या करने का आरोप है। दूसरे एपिसोड में दिखाया जाता है कि मिलर पर जिस लड़की की हत्या का आरोप है वह उन लोगों में से एक थी जो ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उसे (मिलर) प्रताड़ित कर रहे थे। तीसरे एपिसोड में मिलर की मनोवैज्ञानिक स्थिति का विश्लेषण किया जाता है। चौथे एपिसोड में यह दिखाया गया है कि संतान के जेल में बंद होने से परिवार पर क्या बीतती है। इस सीरीज में किसी को भी खलनायक के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया है। इस शो में केवल उन परिस्थितियों से रूबरू कराया गया है जो सोशल मीडिया के प्रभावों के कारण उत्पन्न हुई हैं और इससे एक सामान्य परिवार किस तरह प्रभावित होता है।
अभिभावकों की इस सोच को झटका लगा है कि उनके बच्चे अपने कमरे में लैपटॉप के साथ सुरक्षित और बाहरी दुनिया की आबो-हवा से बेअसर है। अपनी खासियत के कारण यह सीरीज पूरी दुनिया में देखी जा रही है जिसमें अचंभित होने जैसी कोई बात नहीं है। किशोरावस्था भी आज की दुनिया की तरह है जिसमें वैचारिक, धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक या भौगोलिक खांचे सभी मौजूद हैं मगर इनमें कोई भी एक दूसरे जुड़ा प्रतीत नहीं हो रहा है।
पहले किताबों, फिल्मों, खेल या किसी बड़ी घटना से मिलने वाले अनुभव सभी के लिए एक जैसे होते थे। 1980 और 1990 के दशक में इंदिरा गांधी की हत्या, उसके कुछ वर्षों बाद उनके पुत्र राजीव गांधी की हत्या, वर्ष 1997 में राजकुमारी डायना की सड़क हादसे में मौत जैसे बड़ी घटनाएं आज भी हमारे जेहन में मौजूद हैं। देश में उदारीकरण को लेकर भी एक अजीब खुशी थी और यह सोचकर फूले नहीं समा रहे थे कि हम साथ मिलकर एक नया भारत बना रहे हैं।
उस समय मुख्यधारा के कुछ गिने-चुने समाचारपत्र ही थे, दूरदर्शन पर कार्यक्रमों की गुणवत्ता काफी अच्छी हुआ करती थी और उपग्रह (सैटेलाइट) टेलीविजन की महज शुरुआत हुई थी। फिल्मों की पकड़ जरूर कमजोर पड़ने लगी थी मगर तब भी उनमें सुखद एवं लोकप्रिय कल्पनाएं हुआ करती थीं। समाचार चैनल हमें बस यह बताते थे कि क्या हुआ और कहां हुआ। समाचार सुनने या देखने के बाद उत्तेजित या आक्रोशित होने का जिम्मा दर्शकों के ऊपर छोड़ दिया गया था और समाचार चैनलों पर हाय-तौबा नहीं मचती थी। पहला मॉल और पहला मल्टीप्लेक्स हमारी पीढ़ी के लोगों के लिए बेहद खास अनुभव थे। हम शाहरुख खान के गालों में पड़ने वाले गड्ढों, संसद में मनमोहन सिंह की कविता और सुषमा स्वराज की वाकपटुता एवं हाजिर जवाबी को देखकर आनंदित होते रहते थे।
आप कह सकते हैं मैं पुराने दिनों की यादें ताजा कर रही हूं और भावनात्मक भी हो रही हूं। शायद यह बात सही हो। मगर उस समय हमें कोई बात पसंद नहीं आती थी तो भी हम उन्हें बड़े संदर्भ में देखते थे और दिल खुला रखते थे। इसका कारण यह था कि उस समय समाचार के स्रोत काफी कम हुआ करते थे और जो भी हमें बताते थे वे हमारे लिए अनूठी एवं नई बातें हुआ करती थीं। समाचारों को लेकर वह ललक, उत्साह और आश्चर्य अब नहीं दिखता है।
वर्ष 2015 में यूनिवर्सिटी ऑफ केंट में पत्रकारिता इतिहास के प्राध्यापक टिम लकहर्स्ट ने मुझे कहा था, ‘लोकतंत्र तभी काम करता है जब सभी लोग मिलकर कदम उठाते हैं या कोई काम करते हैं। इसलिए हमें कम से कम साथ मिलकर समाचार तो अवश्य देखना चाहिए।‘ अगर आपने इंटरनेट (1995) और सोशल मीडिया (2004) के उदय के आपसी संबंधों को करीब से देखा है तो प्रोफेसर लकहर्स्ट की बात बिल्कुल फिट बैठती है। भारत में इस समय 900 से अधिक चैनल, हजारों समाचार पत्र, 860 से अधिक रेडियो चैनल, 60 वीडियो स्ट्रीमिंग ऐप और दर्जनों म्यूजिक ऐप हैं। अब पसंदीदा सामग्री या समाचार माध्यमों की कमी नहीं है। मगर इसके बावजूद हमारे अनुभव शायद ही कभी एक जैसे रहते हैं। जब कभी हमारे अनुभव एक जैसे रहते हैं (जैसा कोविड महामारी के दौरान हुआ) तब भी हम उनकी व्याख्या अलग-अलग रूपों में करते हैं।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने एक बार कहा कि किसी विषय पर बहस बहुत मुश्किल हो गई है क्योंकि ‘हम तथ्यों पर एक दूसरे से सहमत होते नहीं दिखते हैं’। भारतीय अर्थव्यवस्था मझधार में फंसी हुई है या यह तेजी से आगे बढ़ रही है? सामान्य लोगों के लिए इसका उत्तर बता पाना लगभग असंभव है। समाचार पत्रों में यदा-कदा ही सधे विश्लेषण छपते हैं। समाचार चैनल देखना असंभव सा कार्य लगने लगा है, यह अलग बात है कि 10 करोड़ से अधिक लोग उन्हें देखते हैं।
देश में लगभग 52.4 करोड़ लोग इंस्टाग्राम, यूट्यूब और व्हाट्सऐप पर हैं जो मानते हैं कि उन्हें हरेक चीज की जानकारी रहती है। हममें से प्रत्येक एक ऐसी वास्तविकता में विश्वास रखते हैं जो हम तक हमारी आदतों के आधार पर एक प्रशिक्षित अल्गोरिद्म तकनीक पहुंचाती रहती है। उदाहरण के लिए अगर आप ध्रुव राठी और रवीश कुमार के वीडियो देखते आ रहे हैं तो आपके फीड पर केवल उदार विचार रखने वाले लोग ही दिखेंगे। जब तक आप चाहेंगे या खोजेंगे नहीं तब तक आपको मध्य, दक्षिण या अन्य विचारधारा वाले लोग नहीं मिलेंगे। भारत में ऑनलाइन रहने वाले 52.4 करोड़ लोगों की अपनी-अपनी दुनिया तैयार हो चुकी है और वे अपने-अपने चश्मे से परिस्थितियों को देखते हैं और उनकी व्याख्या करते हैं।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि हमें बांटना काफी आसान हो गया है। हम सभी अलग-अलग कुएं में रहने वाले मेंढकों की तरह हो गए हैं। हमारे कानों में जब एक दूसरे की आवाज आती है तो हम उन्हें चुप कराना चाहते हैं। हमें लगता है कि जो हम कह रहे या सोच रहे हैं केवल वही तर्कसंगत और सत्य है। बाकी दुनिया में भी यही स्थिति है।
अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में डॉनल्ड ट्रंप की दोबारा वापसी और जो कदम वे उठा रहे हैं वे हमारे समाज में आई दरार का सबसे बड़ा उदाहरण हैं। ये दरार हमारी आदतों एवं तौर-तरीकों में साफ-साफ दिखाई देने लगे हैं। डिजिटल दुनिया में ये इस रूप में दिखाई देते हैं कि हम किनका अनुसरण करते हैं और किन पर विश्वास करते हैं। हम क्या खाते हैं, किन्हें दोस्त बनाना चाहते हैं, किन्हें वोट देते हैं और यहां तक कि सार्वजनिक रूप से किस त्योहार को मानते हैं, ये बातें हमारे शारीरिक हाव-भाव एवं आदतों के माध्यम से सामने आ रही हैं।
मगर यह भी सच है कि ये विभाजन रेखाएं हमेशा से रही हैं। राजनीतिज्ञों और तकनीक-मीडिया कारोबारों ने उन्हें और बढ़ाकर और उनका लाभ उठाकर और मोटा मुनाफा देने वाला एक बाजार तैयार कर लिया है। अब दुनिया में ज्यादातर लोग अलग-अलग वैचारिक खेमों में बंट चुके हैं और उनमें प्रत्येक एक मुनाफा देने वाला बाजार है। यह कारण है कि दुनिया और अधिक बेतरतीब लग रही है।
यह कहा जा सकता है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया दोनों ही लोकतंत्र को बढ़ावा देने का साधन रहे हैं। उन्होंने कलाकारों, प्रतिभाओं और वंचितों को बेजोड़ तरीके से आवाज दी है। मगर इस पर फर्जी खबर, डीप फेक और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस(एआई) की परत चढ़ाना कई मौकों पर नुकसानदेह साबित हुआ है। कुछ गिनी-चुनी कंपनियां जैसे गूगल, मेटा, एमेजॉन, ऐपल और माइक्रोसॉफ्ट (इनमें से प्रत्येक का राजस्व 130 अरब डॉलर से 600 अरब डॉलर के बीच) अब यह तय कर रही हैं कि हम अपना समय कैसे बिता रहे हैं, हम किन चीजों में विश्वास करते हैं और लोगों तक पहुंचने के लिए विज्ञापनदाता कहां रकम खर्च करते हैं।
यह दिखावटी लोकतंत्रीकरण, आर्थिक शक्तियों का संकेंद्रण तथा इसके कारण उत्पन्न ध्रुवीकरण, सोशल मीडिया द्वारा ‘सामाजिक भलाई’ के लिए कार्य पर वाजिब सवाल खड़े करता है।