नदी के किनारे स्थित किसी गांव के बारे में सोचिए जिसे अधिकारियों ने बताया हो कि वहां कुछ दिनों में बाढ़ आ सकती है। आप गांववासियों से क्या कदम उठाने की आशा करेंगे? किसी भी पारंपरिक समाज में लोग साथ मिलकर अपने बचाव की कोशिश करेंगे और ज्यादा संकटग्रस्त लोगों को बचाएंगे। उच्चाधिकारी भी हो सकते हैं जो चेतावनी दें और प्रासंगिक होने पर उन लोगों की पहचान करें जिनके कारण यह खतरा उत्पन्न हुआ। जरूरत पडऩे पर बाढ़ के प्रबंधन में उनकी सहायता लें।
क्या जलवायु परिवर्तन को लेकर ऐसी वैश्विक प्रतिक्रिया हो रही है? करीब 30 वर्ष पहले 200 या उससे अधिक देशों ने मिलकर ऐसे वैश्विक गांव की स्थापना की थी और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए दो प्रणालियां विकसित की थीं-जलवायु परिवर्तन से जुड़े तथ्यों और पूर्वानुमानों को लेकर सहमति बनाने के लिए एक वैज्ञानिक संस्था यानी जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) तथा विभिन्न देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए क्या करना चाहिए इसके लिए यूएन फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी) की स्थापना की गई।
इनमें से पहले की बात करें तो कह सकते हैं कि आईपीसीसी ने अब तक पांच आकलन पेश किए हैं। छठे आकलन के जो शुरुआती संकेत हैं उन्होंने तथ्यों और पूर्वानुमानों पर वैज्ञानिक सहमति को मजबूत किया है। तापमान के पूर्वानुमानों की विश्वसनीयता पर संदेह तथा जलवायु पर मानव विकास के प्रभाव अब बहुत सीमित हैं। ये अब प्राय: उन लोगों तक सीमित हैं जिनके वाणिज्यिक हित जीवाश्म ईंधन से जुड़े हुए हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट तथा तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के कारण बढ़ते विपरीत प्रभावों ने निश्चित रूप से वैज्ञानिक दायरे में जागरूकता बढ़ाई है लेकिन इसने उन लोगों में भी चेतना बढ़ी है जिनके वाणिज्यिक हित जलवायु परिवर्तन के जोखिम को कम करने के लिए उठाए गए कदमों से प्रभावित हो रहे हैं।
क्या इस बढ़ती जागरूकता और तथ्यों तथा पूर्वानुमानों को लेकर बढ़ती सहमति के कारण ऐसी आपात भावना पैदा हुई है जो इतनी मजबूत है कि आपातकालीन कदमों की प्रेरणा बन सके? कई बार जलवायु परिवर्तन संबंधी बैठकों के बाद अल्प समय के लिए ऐसा लगता है। लेकिन हकीकत यह है कि तापमान में बढ़ोतरी के घातक परिणाम भविष्य में बहुत बाद में घटित होने वाले हैं और यही वजह है कि वे सही मायनों में न तो लोकतांत्रिक देशों और न ही तानाशाही वाले देशों में निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित कर पा रहे हैं। तत्काल कदम उठाने की भावना की अनुपस्थिति को इस बात में महसूस किया जा सकता है कि विशुद्ध शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य दशकों पहले तय कर लिए गए हैं लेकिन उस दिशा में अब तक के कदम संतोषजनक नहीं हैं। संयुक्त जवाबदेही की बात करें तो वह साझा किंतु अलग-अलग जवाबदेही की प्रतिबद्धता में नजर आता है जो जलवायु संधि में निहित है। दिक्कत यह है कि जलवायु न्याय का सिद्धांत जिसके जरिये इसे संचालित होना था, उसका कभी उल्लेख नहीं किया गया। इस बात पर भी कोई सहमति नहीं है कि जवाबदेही शब्द को अभियोज्यता के रूप में समझा जाए या कर्तव्य के रूप में। चूंकि जलवायु परिवर्तन के जोखिम ग्रीनहाउस गैसों के समग्र उत्सर्जन पर केंद्रित हैं इसलिए अहम मसला जिसे कभी हल नहींकिया गया है वह यह है कि आखिर अतीत के उत्सर्जन के लिए पश्चिमी देशों को किस हद तक जवाबदेह माना जाए। क्षमता के आधार पर अंतर अब अमीर देशों में भी व्यापक रूप से स्वीकार्य है। जब तक इस मसले को हल नहीं किया जाता है तब तक विभिन्न देश अपनी प्रतिबद्धता से पीछे हटते रहेंगे।
चौथा तत्त्व जो वैश्विक जलवायु प्रतिक्रिया प्रक्रिया से पूरी तरह नदारद है, वह है कि जवाबदेही और क्षमता के आधार पर अलग-अलग कदमों का प्रवर्तन करने की क्षमता। हमें ग्रीनहाउस गैसों के ऐतिहासिक उत्सर्जन के लिए अधिक जवाबदेह देशों की ओर से जवाबदेही की स्वैच्छिक स्वीकार्यता पर ही निर्भर रहना पड़ता है। इसमें शामिल लागत के लिहाज से देखें तो यह राजनीतिक दृष्टि से बहुत उपयुक्त नहीं है और अगर कुछ पश्चिमी राजनेता इसके लिए प्रयास करते हैं तो इससे ट्रंप जैसे नेताओं का उभार होता है जो वैश्विक जलवायु प्रतिबद्धताओं को लेकर और अधिक दुराग्रही हैं।
जलवायु न्याय पर सहमत के अभाव तथा देश की सीमाओं से परे एक प्राधिकार की अनुपस्थिति के कारण बातचीत की प्रक्रिया संकीर्ण राष्ट्रीय हितों से संचालित होती है। नतीजा यह कि वार्ता के निष्कर्ष इस बात से आकार लेते हैं कि मौजूदा और भविष्य के उत्सर्जन को देखते हुए किसी देश की भागीदारी कितनी महत्त्वपूर्ण है।
अतीत अब इतिहास हो चुका है और इस प्रक्रिया में उसकी पूरी तरह अनदेखी कर दी गई। इससे जलवायु वार्ताओं में तीन हिस्सों का शक्तिसंबंधी ढांचा निर्मित हो गया। पहले हिस्से में दो बड़े उत्सर्जक चीन और अमेरिका शामिल हैं जिनकी भागीदारी प्रभावी समझौते की पूर्व शर्त है। अमेरिका और चीन ने 2015 में पेरिस वार्ता और 2021 में ग्लासगो वार्ता के समय आपस में अलग से समझौता किया है जो स्पष्ट करता है कि इनका एक अलग पहलू है। दूसरे हिस्से में 18-20 देश हैं जिनमें से प्रत्येक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में एक फीसदी या अधिक के लिए उत्तरदायी है। यह मात्रा काफी अधिक है लेकिन व्यक्तिगत रूप से इनके पास वह वीटो अधिकार नहीं है जो अमेरिका और चीन के पास है। तीसरे हिस्से में करीब 180 देश हैं जो बड़े देशों द्वारा तय बातें मानने को विवश हैं। धरती की जलवायु सभी जीवोंं के लिए समान है इसलिए इसके संकट से निपटना भी हमारी साझा जवाबदेही है। साझा जवाबदेही की भावना तब तक नहीं आ सकती है जब तक कि इस बात पर सहमति न हो कि जलवायु न्याय के सिद्धांत क्या होंगे और हर देश का व्यक्तिगत कर्तव्य क्या होगा। इसके अभाव मेंं हमें छोटे मोटे सुधार ही देखने को मिल सकते हैं। कार्बन बचाने वाली तकनीक में बढ़ते वाणिज्यिक हित भी मददगार हो सकते हैं लेकिन इससे संकट को थामने में अधिक मदद नहीं मिलेगी। उसके लिए हमें जलवायु न्याय के स्वीकृत सिद्धांतों में साझा जवाबदेही को स्थान देना होगा।
कार्बन के समान प्रति व्यक्ति उत्सर्जन जैसे जलवायु न्याय के सामान्य सिद्धांत पर विचार कीजिए। मान लीजिए कि अब से 2050 के बीच समग्र कार्बन उत्सर्जन के लिए 1.50 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य रखा जाएगा तो इसके लिए अधिकांश बड़े उत्सर्जकों को अपने शुद्ध शून्य उत्सर्जन लक्ष्य की मियाद कम करनी होगी। यह बदलाव तब तक नहीं होगा जब तक कि विभिन्न देश विशुद्ध शून्य उत्सर्जन के लिए तय तारीख का उल्लेख नहीं करेंगे और विश्वसनीय कार्य योजना पेश नहीं करेंगे। वह लक्ष्य तथा हर देश में स्वतंत्र राष्ट्रीय प्रणाली की मदद से ही विश्वसनीयता और जवाबदेही हासिल की जा सकती है। इस पर जोर दिया जाना चाहिए।
