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नए दशक में बैंकिंग उद्योग का बदलाव से होगा साक्षात्कार

Last Updated- December 12, 2022 | 9:56 AM IST

भारत में वित्तीय प्रणाली में नकदी डालने की प्रक्रिया नए वर्ष में जारी रहेगी। बॉन्ड पर प्रतिफल, सरकार की उधारी पर ब्याज कम करने और बैंकों को ट्रेजरी कारोबार में लाभ पहुंचाने की प्रक्रिया भी साथ-साथ चलती रहेगी। आरबीआई ने दिसंबर 2019 में ‘ऑपरेशन ट्विस्ट’ की शुरुआत की थी। वर्ष 2020 के अंतिम दिन ताजा घोषणाओं से ठीक पहले आरबीआई के एक कार्य पत्र में महंगाई लक्ष्य 4 प्रतिशत पर अपरिवर्तित रखने पर जोर दिया गया था। हाल में महंगाई दर ऊंचे स्तर पर बरकरार रहने के बाद महंगाई लक्ष्य 4 प्रतिशत (2 प्रतिशत कम या ज्यादा) से अधिक रखे जाने की संभावनाओं पर चर्चा तेज हो गई थी।
खुदरा महंगाई दिसंबर 2019 से ही लगातार 6 प्रतिशत से ऊपर रही है। केवल मार्च में ही यह 5.84 प्रतिशत रही थी। बढ़ती महंगाई और अर्थव्यवस्था में सुधार के संकेतों के बीच अत्यधिक ढीली मौद्रिक नीति माथे पर बल देने वाली है। नए वर्ष में ढीली मौद्रिक नीति को विराम देना और सामान्य मौद्रिक नीति की तरफ बढऩा आरबीआई के लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी।
वर्ष 2008 में अमेरिकी निवेश बैंक लीमन ब्रदर्स के  धराशायी होने के बाद पूरी दुनिया एक भूतपूर्व आर्थिक संकट की चपेट में आ गई थी। उस समय आरबीआई भारत पर इसके असर को रोकने में सफल रहा था। केंद्रीय बैंक ने इस वैश्विक आर्थिक संकट का दुष्प्रभाव दूर करने के लिए वित्तीय प्रणाली को नकदी से लबरेज कर दिया और नीतिगत दरें एकदम निचले स्तर पर कर दीं। आरबीआई ने मौद्रिक नीति ढीली करने में तेजी दिखाई और इससे धीरे-धीरे वापस लिया, जिससे महंगाई दरों में इजाफा हो गया।
ऋण परिसंपत्तियों की गुणवत्ता पर भी सभी विश्लेषकों की नजरें होंगी। 2020 के शुरू में कई लोगों को लगा था कि भारतीय बैंकिंग क्षेत्र के लिए बुरा दौर पीछे छूट गया है। उस समय फंसे ऋण पर तस्वीर साफ हो जाने के बाद बैंक हालात सुधारने में जुट गए थे। लोगों को लग रहा था कि ज्यादातर बैंकों ने फंसे ऋण के लिए मोटे प्रावधान किए हैं, इसलिए सुधार के साथ ही उनके मुनाफे में भी इजाफा होता रहेगा और उनका बहीखाता मजबूत बनेगा। ऐसी उम्मीद की जाने लगी कि बैंक अधिक उधारी देने में भी दिलचस्पी दिखाएंगे। हालांकि इन तमाम उम्मीदों पर उस समय पानी फिर गया जब कोविड-19 ने भारत सहित पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया। हालत बिगडऩे का अंदेशा लगते ही आरबीआई ने छह महीने के लिए अस्थायी तौर पर ऋण भुगतान टालने की अनुमति दे दी। अब ज्यादातर बैंकों का कहना है कि ऋण भुगतान में नाटकीय तेजी आई है और कुछ ही ऋण का पुनर्गठन हुआ है।
बैंकिंग प्रणाली में सकल गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों का अनुपात लगातार कम हो रहा है। मार्च 2019 के 9.1 प्रतिशत से कम होकर मार्च 2020 में यह 8.2 प्रतिशत रह गया और सितंबर 2020 में कम होकर 7.5 प्रतिशत पर आ गया। आने वाले समय में फंसे ऋण का आकार बढऩा तय है। ऋण आवंटन बढ़ाने की बैंकों की चाह भी सकल एनपीए में कमी आने पर निर्भर है। अप्रैल 2020 से 18 दिसंबर, 2020 तक ऋण आवंटन में महज 1.7 प्रतिशत इजाफा हुआ है, जबकि एक साल पहले इसी अवधि में इसमें 1.8 प्रतिशत तेजी रही थी।
नए दशक में भारतीय बैंकिंग में उथलपुथल अधिक देखने को मिलेगी। 2009 में अमेरिकी अर्थशास्त्री और अमेरिकी फेडरल रिजर्व के पूर्व चेयरमैन पॉल वोल्कर ने कहा था कि बैंकिंग प्रणाली में नवाचार के लिहाज से पिछले दो दशकों के दौरान केवल एटीएम ही एक मतलब की चीज साबित हुई है। हालांकि तब से काफी बदलाव हुए हैं। भारत में 2016 में नोटबंदी के बाद डिजिटलीकरण पर काफी जोर दिया गया, लेकिन कुछ समय बाद इसकी चाल सुस्त पड़ गई। हालांकि इसके बाद कोविड-19 महामारी के बाद डिजिटल माध्यम से काम-काज तेजी से होने लगा और इससे इन्फोसिस लिमिटेड के चेयरमैन नंदन नीलेकणी को कहना पड़ा कि कोविड-19 से उत्पन्न परिस्थितियों ने वर्षों के बजाय महज कुछ हफ्तों ही भारतीय अर्थव्यवस्था का डिजिटलीकरण कर दिया।
नए दशक में परिदृश्य बदलेगा क्योंकि हाल तक बैंकों को वित्त-तकनीक (फिनटेक) से कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा था, लेकिन अब टेकफिन भी मैदान में उतर चुके हैं। फिनटेक से अलग टेकफिन के अपने खास ग्राहक होते हैं, जिनके लिए उन्हें बैंकों के तंत्र पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। जो बैंक अपनी स्थिति को लेकर लापरवाह हैं और अपने ग्राहक आधार पर इतराते रहते हैं वे इस दशक में अपना अस्तित्व गंवा सकते हैं।
आरबीआई और वाणिज्यिक बैंकों को भी इस बात पर मंथन करना चाहिए कि कहीं भारत में बैंकिंग प्रणाली की साख को नुकसान तो नहीं पहुंचा है? बैंकिंग नियामक ने बैंकिंग खंड में प्रतिस्पद्र्धा को बढ़ावा नहीं दिया है, इसलिए वित्तीय स्तर पर असंतुलन जारी है।
अंत में, बैंकों के राष्ट्रीकरण होने के पांच दशक बाद सरकार को सार्वजनिक बैंकों में बहुलांश शेयरधारक होने के नाते यह अवश्य तय करना चाहिए कि बैंकों को सामजिक हित के लिए एक एजेंसी के तौर चलाना चाहिए या एक वाणिज्यिक इकाई के तौर पर। यहां विकल्प मौजूद हैं। मिसाल के तौर पर सरकार योग्य एवं उपयुक्त भारतीय निजी इकाइयों एवं प्राइवेट इक्विटी सहित विदेशी संस्थानों को बैंकों में निवेश एवं 26 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने की अनुमति दे सकती है। वैसे भी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में ऐसी इकाइयों की पहले से ही अधिक हिस्सेदारी है। सरकार नैशनल इन्वेस्टमेंट ऐंड इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड की तर्ज पर ही बैंकों में निवेश के लिए एक बैंकिंग इन्वेस्टमेंट फंड बना सकती है।
बैंकों के समेकन से इनकी संख्या में कमी आती है, न कि बैंकिंग उद्योग में सरकार की हिस्सेदारी कम होती है। बैंकों के मामले में अलग रणनीति अपनाए जाने की जरूरत है।
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक, लेखक एवं जन स्मॉल फानइैंस बैंक लिमिटेड में वरिष्ठ सलाहकार हैं। )

First Published - January 12, 2021 | 11:34 PM IST

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