वर्ष 2016 में जब ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता (IBC) की शुरुआत हुई थी तो यह अपेक्षा की गई थी कि इस नई व्यवस्था से भारतीय अर्थव्यवस्था में एक महत्त्वपूर्ण अंतर पाटना आसान हो जाएगा। आईबीसी को हाल के वर्षों में हुए महत्त्वपूर्ण सुधारों में एक समझा गया। इसका मकसद कंपनी जगत में दिवालिया मामलों का निपटान एक चरणबद्ध समय में त्वरित गति से करना और प्राप्त पूंजी का इस्तेमाल उत्पादक कार्यों के लिए करना था। आईबीसी के अस्तित्व में आने से पहले भी ऐसे मामले निपटाने के प्रयास किए गए थे मगर वे सभी विफल एवं अक्षम रहे थे।
सरकार ने अपनी तरफ से आईबीसी में त्रुटियां दूर करने के लिए इनमें बदलाव जारी रखे। उदाहरण के लिए 2019 में वित्तीय सेवा प्रदाताओं के लिए एक पृथक ढांचे से संबंधित अधिसूचना जारी हुई थी। अन्य बातों के अलावा लघु एवं मझोले उद्यमों में ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया समाधान के लिए 2021 में एक प्रावधान शुरू किया गया था। हालांकि इन उपायों का उतना लाभ नहीं मिला जितना मिलना चाहिए था। समाधान प्रक्रिया में अधिक समय लग रहा है और समग्र स्तर पर वसूली पुरानी व्यवस्थाओं से बहुत अधिक नहीं दिख रही है। इसे देखते हुए सरकार ने आईबीसी में सुधार करने का निर्णय लिया है और प्रस्तावित बदलावों पर सुझाव आमंत्रित किए हैं। निगमित ऋण शोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता से शुरू होकर प्रस्तावों पर विभिन्न स्तरों पर विचार चल रहा है।
उदाहरण के लिए पूरी प्रक्रिया में तेजी लाने के वास्ते संबंधित पक्षों के बीच संवाद बढ़ाने के लिए तकनीक के इस्तेमाल का प्रस्ताव दिया गया है। आवेदन स्वीकार होने में भी काफी समय लग जाता है। इस पर विचार करने के बाद प्रस्ताव दिया गया है कि आवेदन भरते समय निर्णायक प्राधिकरण (एए) के समक्ष सूचना इकाइयों (इन्फॉर्मेशन यूटिलिटीज) से सूचनाएं प्रस्तुत की जाएंगी। इससे शुरुआती समय बच जाएगा और वित्तीय ऋणदाता सूचना इकाइयों को सभी संबंधित एवं काम के लायक सूचनाएं देंगे। मसौदे में यह भी कहा गया है कि जिन मामलों में भुगतान में चूक की पुष्टि हो जाएगी उनमें एए को अनिवार्य रूप से आवेदन स्वीकार करना होगा। इससे मामले स्वीकार होने की समय सीमा में सुधार होगा। मामले स्वीकार होने में ही फिलहाल एक साल से अधिक का समय लग जाता है।
मसौदे में संहिता का पालन नहीं करने पर एए को जुर्माना लगाने का अधिकार देने का भी सुझाव दिया गया है। संबंधित पक्षों के समाधान से संबंधित पहलू पर मसौदे में कहा गया है कि एक साझा दिवालिया समाधान पेशेवर एवं एए पर विचार किया जा सकता है। ऋणदाताओं का समूह किसी कर्जदार के दो सीआईआरपी पर सहयोग एवं संयोजन के लिए आवेदन कर सकता है। एक सक्षम समाधान के लिए मसौदे में सामान्य कोष (जनरल पूल) में गारंटी देने वालों को शामिल करने के लिए एक संशोधन का भी प्रस्ताव भी दिया गया है। समाधान योजना लाने और इसके पश्चात प्राप्त रकम के समान वितरण के लिए आवश्यक प्रावधान करने के भी सुझाव दिए गए हैं।
समाधान योजना मंजूर होने के बाद अक्सर इसे अदालतों में चुनौती दी जाती है जिससे पूरी प्रक्रिया के निष्कर्ष तक पहुंचने में देरी हो जाती है। इससे बचने के लिए मसौदे में कहा गया है कि सीओसी को दूसरी बराबर महत्त्व वाली समाधान योजनाओं पर पारदर्शी तरीके से विचार करने का अधिकार दिया जा सकता है। सरकार ने रियल एस्टेट क्षेत्र में दिवालिया मामलों के समाधान के लिए एक दिलचस्प प्रक्रिया का सुझाव दिया है। चूंकि, वित्तीय ऋणदाता और घर खरीदारों के हित अलग होते हैं इसलिए एक भिन्न प्रक्रिया की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
इससे जुड़े पहलुओं पर विचार करने के बाद प्रस्ताव दिया गया है कि जिन परियोजनाओं में भुगतान में चूक हुई है उन्हें समाधान के लिहाज से अलग देखा जाए। इसके पीछे तर्क दिया गया है कि इससे दूसरी परियोजनाएं प्रभावित नहीं होंगी और समाधान भी निकल आएगा। हालांकि इससे रियल एस्टेट कंपनियां सस्ती आवासीय परियोजनाओं की अनदेखी कर सकती हैं और सभी उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल महंगी परियोजनाओं के लिए कर सकती हैं। हालांकि तमाम किंतु-परंतु के बावजूद इन प्रस्तावों से समाधान प्रक्रिया में तेजी आनी चाहिए।
सरकार आईबीसी को मजबूत बनाने की दिशा में काम कर रही है मगर इस बात का पूरा ख्याल रखा जाना चाहिए कि सभी संबंधित पक्षों की भूमिकाएं स्पष्ट बनी रहें। न्यायपालिका की अति सक्रियता और कानून की व्याख्या से भी मामलों का समाधान निकलने में देरी हो रही है। अंत में सरकार को इसका भी ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) में किसी भी समय कर्मचारियों की कमी महसूस नहीं हो।