देश के स्वास्थ्य क्षेत्र में कुछ नया घटित हुआ है। कोविड-19 टीकों के मामले में सरकार ने यह क्षमता हासिल कर ली है कि वह हर मरीज और चिकित्सक के रिश्ते में नियंत्रण और बलपूर्वक अपनी शक्ति का प्रयोग कर सके। देश में कोविड-19 टीकाकरण की कहानी में कई कमियां इसी नियंत्रण की देन हैं। सामाजिक नतीजे बेहतर हैं, खासतौर पर भारतीय व्यवस्था में जब कई लोग विचारशील और प्रतिक्रिया देने वाले हैं। ऐसे में हमें राज्य के बल प्रयोग को लेकर सचेत रहना चाहिए।
कोई भी दो व्यक्ति एक जैसे नहीं होते। हर व्यक्ति के लिए टीकाकरण संबंधी निर्णय के पीछे कई तरह के विचार शामिल होते हैं। उदाहरण के लिए बीमारी से जुड़ी असुरक्षा, जीवनशैली और स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च का आकलन। देश में कुछ लोग तो फ्लू अथवा एचपीवी के भी टीके लगवाते हैं और यह निर्णय एक चिकित्सक और मरीज के बीच निजी बातचीत के बाद लिया जाता है। कोविड-19 टीकाकरण भी अलग नहीं है। जो लोग अपने आपको सामाजिक तौर पर अलग-थलग कर सकने की स्थिति में नहीं हैं उन्हें टीकों की आवश्यकता ज्यादा है। जो लोग बुजुर्गों के साथ रहते हैं उन्हें टीकों की जरूरत अधिक है। टीकों का चयन भी व्यक्ति-व्यक्ति पर निर्भर करता है। मसलन एस्ट्राजेनेका का टीका युवा महिलाओं में अधिक प्रभावी नहीं है। हर व्यक्ति के टीकाकरण का सटीक इतिहास ही यह तय करेगा कि बूस्टर का चयन कैसे किया जाए। सामान्य तौर पर भारतीय स्वास्थ्य व्यवस्था में स्वास्थ्य सेवा प्रदाता और उनके मरीज लाखों विकेंद्रीकृत निर्णय लेते हैं। स्वास्थ्य सेवा प्रदाता स्थानीय परिस्थितियों पर नजर डालते हैं और तत्काल मौजूद सूचनाओं पर विचार करते हैं। वे हर व्यक्ति को सही निर्णय लेने के लिए प्रेरित करते हैं।
परंतु कोविड 19 टीकों के मामले में कुछ नया हुआ। सरकार ने नई तरह की शक्ति हासिल की। उसने चिकित्सक और मरीज के हर रिश्ते पर बल प्रयोग की शक्ति हासिल कर ली। चिकित्सकों और मरीजों को शक्तिहीन कर दिया गया और टीकाकरण से जुड़े सभी निर्णय केंद्र सरकार के अधीन कर दिए गए। इसके अलावा टीकों की कीमत, आयात, निर्यात और टीकों के उत्पादन पर भी उसने अपना पूरा नियंत्रण रखा।
देश में कोविड-19 टीकाकरण से जुड़ी तमाम कठिनाइयों की एक वजह यह नीति भी है। केंद्र सरकार ने टीकाकरण से जुड़े हर निर्णय पर अपना पूरा नियंत्रण कर लिया है। यदि ऐसा नहीं किया गया होता तो 2021 के आरंभ में ही अनेक भारतीय संस्थान टीकों का आयात कर रहे होते। कीमतों के संकेत के मुताबिक टीका निर्माताओं की ओर से टीकों की आपूर्ति भी काफी अधिक हो रही होती। हजारों स्वास्थ्य सेवा संगठन बड़े पैमाने पर टीकाकरण कर रहे होते। दूसरी लहर के पहले ही बहुत बड़ी तादाद में लोगों का टीकाकरण हो चुका होता। इससे हमें तीन तरह से मदद मिलती: टीका लगवा चुके लोगों की मौत नहीं होती, टीका लगे हुए लोग होते जो संक्रमण नहीं फैलाते और टीका लगे हुए लोगों के कारण स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र पर बोझ नहीं पड़ता।
चिकित्सकों और मरीजों के बीच बातचीत की विकेंद्रीकृत व्यवस्था के साथ बेहतर टीकाकरण हो सकता था। ओमीक्रोन के सामने आने के बाद जब बूस्टर खुराक को लेकर तेजी सामने आई, तब भी अगर सरकार का टीकाकरण पर पूरा नियंत्रण नहीं होता तो हालात से बेहतर ढंग से निपटा जा सकता। यदि सरकार ने आयात को रोका नहीं होता तो कई तरह के टीके मौजूद होते। ऐसे में टीका लगवा चुके हर व्यक्ति को बेहतर बूस्टर खुराक मिल पाती।
टीकों के मामले में केवल एक बाजार विफलता देखने को मिली। हर व्यक्ति जो टीके के लिए कीमत चुकाने का निर्णय लेता है वह समाज को होने वाले समग्र लाभ को लेकर बहुत अधिक चिंतित नहीं होता। ऐसे व्यक्ति के टीका खरीदते समय सीमित खर्च करने की अपेक्षा होती है क्योंकि ऐसा व्यक्ति केवल अपने स्वास्थ्य के बारे में चिंतित रहता है उसे इस बात की चिंता नहीं होती कि उसके टीकाकरण से अन्य लोगों को क्या लाभ होगा। इस बाजार विफलता के तीन दिलचस्प पहलू हैं।
पहला, निजी व्यक्ति जब निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाता के पास जाकर टीका लगवाते हैं तो इससे किसी को कोई नुकसान नहीं है। टीका लगवाने वाला हर व्यक्ति समाज की मदद कर रहा है क्योंकि वायरस के प्रसार की आशंका कम हो रही है।
दूसरा, कठिनाई केवल उन लोगों के मामले में है जो टीके नहीं खरीदना चाहते। केवल ऐसे मामलों में राज्य की भूमिका यह है कि वह टीके की लागत वहन करे। टीकों के वाउचर जारी करके ऐसा किया जा सकता है। ज्यादा से ज्यादा सरकारें शिविर लगाकर या वैन के माध्यम से टीकाकरण कर सकती हैं लेकिन टीकाकरण करने वाले अन्य लोगों के काम में हस्तक्षेप की कोई वजह नहीं।
तीसरा, टीका खरीदने का निर्णय लेने वाले हर व्यक्ति के लिए अंतिम नतीजा किसी भी तरह से विसंगतिपूर्ण नहीं होता। बाजार की विफलता व्यक्ति की निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करती है, लेकिन एक बार अगर उसने टीका लगवाने का निर्णय ले लिया तो नतीजे उस स्थिति से एकदम अलग नहीं होंगे जहां कोई बाजार विफलता नहीं होती। यह अन्य क्षेत्रों मसलन शिक्षा आदि से अलग है जहां हर व्यक्ति के व्यय करने के निर्णय में सीमित व्यय शामिल होता है। टीकों की दुनिया में कम खर्च ही इकलौती बाजार विफलता है। चूंकि कोई और बाजार विफलता नहीं है इसलिए सरकार के हस्तक्षेप की भी कोई गुंजाइश नहीं है।
नीति निर्माताओं के निर्णयों का इस तरह आकलन करना सही नहीं है लेकिन सार्वजनिक नीति के मामले में भी कुछ सिद्धांत हैं जो दिशा दिखाते हैं। मूल्य व्यवस्था से देश में टीकों की थोक उपलब्धता बेहतर हो सकती थी। इस प्रक्रिया में कीमतों, उत्पादन, आयात या निर्यात से छेड़छाड़ नहीं की जाती। जब राज्य अर्थव्यवस्था के इन पहलुओं पर नियंत्रण करने लगता है तो यह बात असहज करती है। सार्वजनिक नीति से जुड़े विवेक में बड़ी योजनाओं, भव्यता और सूचनाओं के राज्य के हाथ में होने पर शंका करना शामिल होता है। भारत अत्यधिक विविधता वाला देश है और भारतीय राज्य की क्षमता सीमित है। अगस्त और सितंबर 2021 में केंद्र सरकार द्वारा नियोजित टीकाकरण कार्यक्रम की सीमाएं हमारे सामने थीं।
सार्वजनिक नीति से जुड़ा विवेक यही संकेत देता है कि राज्य की बल प्रयोग की हर शक्ति के इस्तेमाल पर नजर रखी जाए। स्वास्थ्य नीति ऐसी नहीं होनी चाहिए जो किसी को नुकसान पहुंचाए। अगर कोई व्यक्ति टीका लगवाना चाहता है तो यह अच्छी बात है। राज्य को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
(लेखक स्वतंत्र विश्लेषक हैं)
