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जाति जनगणना और जातीय पहचान

जाति जनगणना शायद व्यापक सामाजिक न्याय की वजह न बने बल्कि इसके बजाय वह जातीय पहचानों पर नए सिरे से जोर दे सकती है। यह आंबेडकर के विचारों के भी प्रतिकूल होगा। बता रहे हैं

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आर जगन्नाथन   
Last Updated- May 09, 2025 | 10:32 PM IST

विक्टर ह्यूगो का एक मशूहर कथन है- ‘उस विचार को कोई नहीं रोक सकता है जिसका वक्त आ चुका हो।’ इस कथन के साथ दिक्कत यह है कि यह हमें इसके आगे की बात नहीं बताता। कोई विचार अगर एक बार आजमाने के बाद उतना अच्छा नहीं साबित होता तब? यह भी कि किसी बुरे विचार के लिए कौन-सा सही समय होता है जब वह पीछे हट जाए? परंतु हम ह्यूगो के कथन के राजनीतिक प्रभाव को जानते हैं और वह यह है कि धरती पर कोई भी ताकत राजनेताओं को किसी विचार को आगे बढ़ाने से नहीं रोक सकती फिर चाहे वह कितना भी संदिग्ध क्यों न हो? अगर चुनाव के समय उन्हें इससे कुछ अतिरिक्त वोट मिलें तो वे उसे खत्म करने में भी वक्त नहीं लगाएंगे। अंतहीन चुनावी रेवड़ियां इसका एक उदाहरण हैं।

उसका दूसरा उदाहरण अब सामने है जब नरेंद्र मोदी की सरकार अगली जनगणना के साथ जाति जनगणना करने जा रही है। वह यह मानकर ऐसा कर रही है कि उसे अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का पूरा समर्थन मिलेगा। वहीं पिछड़ा वर्ग का सोचना है कि अब उनकी संख्या पहले के अनुमानों से अधिक है इसलिए उन्हें ज्यादा जातीय कोटा मिलेगा।

राजनीतिक दल इस विचार से पूरी तरह सहमत हैं और इसके पीछे उनके अपने-अपने आकलन हैं। कांग्रेस ने इस विचार का समर्थन किया है क्योंकि उसे लगता है कि जाति की राजनीति भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को कमजोर करेगी। भाजपा को अपनी व्यापक हिंदू पहचान के लिए सभी जातियों को साथ लाने की जरूरत है। इन जातियों में विभाजन दूर करके पार्टी हिंदू वोट एकजुट रख सकेगी। पार्टी को पता है कि छोटी मानी जाने वाली जातियों को हिंदुत्व की छतरी के नीचे लाने की सोशल इंजीनियरिंग अपनाने के बाद उसकी वोट हिस्सेदारी बढ़ी है। दबदबे वाले एक जाति आधारित दल मसलन उत्तर प्रदेश और बिहार में यादवों की प्रमुखता वाले दो दल, सैद्धांतिक तौर पर इससे कमजोर साबित हो सकते हैं क्याेंकि अन्य जातियों का सशक्तीकरण उनकी पकड़ को कमजोर करेगा। हालांकि, वे भी चाहते हैं कि जाति जनगणना हो ताकि आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाकर उनके मौजूदा कोटे में इजाफा किया जा सके।

अब यह स्पष्ट है कि राजनीति किस दिशा में जा रही है। पहली बात, एक बार जाति जनगणना के आंकड़े सामने आने के बाद शैक्षणिक और रोजगार संबंधी आरक्षण बढ़ाने की मांग उठेगी। अभी यह आंकड़ा 60 फीसदी से थोड़ा ही कम है इसमें आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के लिए 10 फीसदी का आरक्षण शामिल है। ऐसे में निकट भविष्य में आरक्षण बढ़कर 70-75 फीसदी होता दिख रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा साहनी मामले में अपने फैसले में आरक्षण 49 फीसदी पर सीमित कर दिया था जो अब इतिहास है क्योंकि आर्थिक रूप से कमजोर तबकों काे आरक्षण मिल चुका है और तमिलनाडु में यह पहले ही 69 फीसदी हो चुका है।

दूसरा, जातियों के भीतर उप कोटा अपरिहार्य हो जाएगा क्योंकि इस समय अधिकतम लाभ ले रही जातियां चाहेंगी कि उनकी हिस्सेदारी बची रहे जबकि अन्य अलग कोटा चाहेंगी। हमें अन्य पिछड़ा वर्ग में दो या तीन उप कोटा देखने को मिल सकते हैं और शायद अनुसूचित जाति में भी।

तीसरी बात, कुछ शर्तों के साथ राजनेता कभी न कभी आरक्षण को निजी कंपनियों तक बढ़ाने का प्रयास करेंगे। निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए आय की सीमा लागू की जा सकती है लेकिन जब नई नौकरियां नहीं सामने आ रही हैं तो आरक्षण प्राय: अनिवार्य प्रतीत होता है। परंतु निजी क्षेत्र प्रभावित नहीं होगा: छोटी कंपनियों को रियायत दी जा सकती है और बड़ी कंपनियां निचले स्तर के रोजगार को मशीनों से करवाने लगेंगी।

आंबेडकरवादी विचार जाति के विनाश की बात करता है लेकिन अब वह आंशिक रूप से विफल हो चुका है क्योंकि हर प्रकार का सुधार अब आपकी जन्म की जाति से तय होगा। जाति के जाल से बचने का इकलौता तरीका यही है कि छोटा कारोबार किया जाए जहां कोटा लागू होने से बचा जा सके। इन बातों का यह अर्थ नहीं है कि जाति जनगणना एक बुरा विचार है लेकिन इसके ऐसे अनचाहे परिणाम सामने आ सकते हैं जो अभी हमारी दृष्टि से बाहर हैं। हमने देखा था कि 1931 में जब ब्रिटिश ने आखिरी बार देशव्यापी जाति सर्वेक्षण किया था तो हर जाति को हिंदू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित चार वर्णों में शामिल करने की कोशिश की थी। यूरोप के ईसाई नज़रिये में धर्म ग्रंथ सामाजिक संगठन और नैतिकता को परिभाषित करते हैं और इसलिए उन्होंने अपने सिद्धांत का समर्थन करने के लिए हिंदू धर्म ग्रंथों की तलाश की और इसे जाति व्यवस्था में पाया। इन सर्वेक्षणों के दौरान विभिन्न सामाजिक समूहों द्वारा कथित उच्च वर्णों में खुद को अपग्रेड करने की कोशिश के कारण काफी अराजकता की स्थिति बनी।

इस बार ऐसा होता नहीं दिखता क्योंकि इस बार कोई किसी जाति को जबरन किसी वर्ण में नहीं शामिल करेगा। परंतु चूंकि कोटा आंकड़ों पर निर्भर करता है इसलिए जातियों में संख्या बढ़ाने का प्रयास किया जाएगा। आंकड़ों के इस खेल में पिछड़ने वाली जातियों की वजह से संघर्ष की स्थिति बन सकती है। या उप कोटा बनने की स्थिति में ऐसा हो सकता है।

हमने देखा कि कैसे वोक्कालिगा और लिंगायत उस समय नाराज हो गए जब कर्नाटक के जाति सर्वेक्षण में उनकी संख्या पहले लगाए गए अनुमानों से कम निकली। हमने यह भी देखा कि कैसे मैतेई समुदाय को अनुसूचित जाति में शामिल करने के अदालती फैसले ने मणिपुर में गृह युद्ध की स्थिति पैदा की। हमें ऐसी परिस्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए।

जाति आधारित कोटा तथा उपचारात्मक कदमों या अफर्मेटिव एक्शन के पीछे तर्क यह है कि जाति दरअसल एक दमनकारी व्यवस्था है। परंतु जाति का एक और पहलू है जो अक्सर भुला दिया जाता है। जाति एक सामाजिक पूंजी और सामूहिक पहचान है। यही वजह है कि सदियों के प्रयासों के बावजूद इसे समाप्त नहीं किया जा सका। आंबेडकर के जाति के विनाश के विचार को पूर्ण समर्थन नहीं मिला क्योंकि इसने जाति को पूरी तरह सामाजिक अन्याय से जोड़ दिया।

आर्थिक तथा अन्य रुझानों ने आज पहचानों को उतना ही महत्त्वपूर्ण बना दिया है जितना कि विभिन्न सामाजिक समूहों का आर्थिक लाभ। वैश्वीकरण, शहरीकरण और तकनीकी स्वचालन ने पुरानी सामाजिक पहचानों को चोट पहुंचाई, सामुदायिक बंधनों को कमजोर किया जबकि एक समय ये लोगों को एकजुट रखने का काम करते थे। शहरी हकीकत लगातार अकेलेपन, अलग-थलग पड़ने से परिभाषित हो रही है और पहचान को लेकर आग्रह पहले से कहीं अधिक हो गया है।

जाति बची रही क्योंकि उसने व्यक्तिगत पहचानों को गुमनाम करने की प्रवृत्ति को नकारा। वास्तव में इस बात के प्रचुर प्रमाण हैं जो बताते हैं कि कथित निचली जातियां अब अपनी पहचान को लेकर शर्मिंदा नहीं होतीं। वे अक्सर अपनी जातीय पहचान को लेकर गर्व करते हैं। अब अगर कोई दलित दूल्हा अपनी शादी में घोड़ी पर चढ़ना चाहता है तो यह उसकी विरासत का हिस्सा नहीं बल्कि अपनी जातीय पहचान के कारण उत्पन्न गौरव बोध के चलते होता है। अब वह मानता है कि वह भी औरों के बराबर है। मायावती के दलितों के बीच लोकप्रियता गंवाने की एक वजह यह भी रही क्योंकि दलित कोई जाति समूह नहीं है-जाटव अवश्य ऐसे हैं। दलितों की व्यापक पहचान शायद सभी अनुसूचित जातियों को एक छत्र के नीचे नहीं ला सकती।

क्या इस बार जाति जनगणना से कुछ बेहतर हासिल हो सकता है? शायद क्योंकि अनापेक्षित परिणामों के नियमों के अनुसार कुछ लाभ उन विचारों से भी निकल सकते हैं जो सवाल उठाने लायक होते हैं। मसलन नोटबंदी ने भारत को डिजिटल लेनदेन में उन्नत बनाया। इसी तरह, सबसे अच्छे इरादों के साथ भी बुरी चीजें होती हैं। मसलन कैसे कोटा ने जाति की पहचान को कम करने के बजाय उसे मजबूत किया है। हमें आशावादी होना चाहिए कि जनगणना से समझदारी नष्ट नहीं होगी।

First Published : May 9, 2025 | 10:17 PM IST