बिहार में 18वीं विधान सभा के लिए चुनाव चल रहे हैं। वहां के लोग गर्व से कहते हैं कि लोकतंत्र का जन्म उनके यहां हुआ था। यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि भारत लोकतंत्र की मां है।
बिहार के वैशाली जिले के निकट राजमार्ग पर लगा एक बोर्ड कहता है, ‘विश्व के सबसे प्राचीन गणराज्य में आपका स्वागत है।’ यह कोई किस्सा नहीं है। यह बात पूरी तरह प्रमाणित है और इसके प्रचुर ऐतिहासिक प्रमाण, शिलालेख और अकादमिक सबूत मौजूद हैं। अगर आप नए हैं तो इस बारे में जानने के लिए पटना के शानदार संग्रहालय का भ्रमण कर सकते हैं।
गणराज्य का मूल विचार है लोकतंत्र जहां हर व्यक्ति के पास अपनी बात रखने का अधिकार और चयन का विकल्प हो। यह विचार बिहार से पूरे भारत को और भारत से विश्व को मिला सबसे प्रमुख योगदान है। इससे एक सवाल पैदा होता है: बिहार के लिए लोकतंत्र कितना अच्छा रहा है? बिहार की जनता को इससे मिला लाभ यानी ‘लोकतांत्रिक लाभांश’ कहां है?
बिहार के समाज, वहां की जनता और अर्थव्यवस्था के हालात दिखाते हैं कि उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ। लोकतंत्र के पेटेंट नाम पर कोई मामूली रॉयल्टी भी नहीं। वहां कोई उद्योग नहीं है, कर राजस्व नहीं है और खेती के अलावा वहां कोई आर्थिक गतिविधि भी नहीं है। उसकी प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे कम है और देश के अमीर राज्यों की प्रति व्यक्ति आय के पांचवे हिस्से के बराबर है। यह अंतर बढ़ता ही जा रहा है। उसकी इकलौती उत्पादक गतिविधि है श्रम का निर्यात जिससे अक्सर बेहतर अर्थव्यवस्था वाले राज्यों को सस्ते श्रमिक मुहैया कराया जाता है।
बिहार की दुर्दशा और जाति जनगणना से उसकी नई उम्मीदों से खीझकर मैंने एक आलेख लिखा था जिसका शीर्षक था, ‘ व्हाट बिहार थिंक टुडे, बिहार यूज्ड टु थिंक द डे बिफाेर येस्टर्डे, (बिहार आज जो सोचता है वह बात बिहार परसों भी सोचता था)।’ अब जबकि प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं, स्वतंत्र भारत में उसकी तीसरी पीढ़ी उसी पुरानी सोच की कीमत चुका रही है जो जाति, पहचान, सामाजिक गठबंधन के इर्दगिर्द है।
हमें समझ में आता है कि आखिर कोई भी चिंतित क्यों नहीं है। बिहार बाकी राज्यों से बहुत पीछे छूट गया है। यहां तक कि वह अपने पड़ोसी राज्यों से भी पीछे छूट गया है। यही वजह है कि उसके मतदाता अपने ही अतीत से अपनी तुलना करते रहते हैं। क्या मैं अपने माता-पिता से बेहतर कर पा रहा हूं? इसका उत्तर ज्यादातर हां ही होगा। क्या मेरे बच्चे मुझसे बेहतर करेंगे? उम्मीद तो यही होती है कि इसका जवाब हां होगा।
पीढ़ियों से बिहार के मतदाता बहुत ही सीमित अपेक्षाओं के साथ जीते आए हैं और उनके लिए संघर्ष करते रहे हैं। सामंतवाद और ऊंची जातियों के उत्पीड़न से सुरक्षा, दिन में तीन बार भोजन, और आगे चलकर बुनियादी कानून-व्यवस्था, बिजली, और थोड़ी बहुत कनेक्टिविटी। यह ठीक है। लेकिन यह दुखद है कि 2025 के भारत में यही सब आपकी सबसे बड़ी आकांक्षाएं हैं। इसीलिए नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार, जो कभी रियायतों या मुफ्त उपहारों का मजाक उड़ाते थे, अब अपने राजनीतिक वादों की शुरुआत इन्हीं चीजों से कर रहे हैं। और उनके प्रतिद्वंद्वी तो राज्य के 2.76 करोड़ परिवारों में से हर एक को सरकारी नौकरी देने का वादा कर रहे हैं। यह कोई क्रूर मजाक नहीं है बल्कि यह है बिहार की गंभीर सच्चाई, नीतीश कुमार के 20 वर्षों के शासन के बाद भी।
आगे बढ़ने और इस जाल से बाहर निकलने की उत्कंठा कहां है? यह कोई छोटा राज्य नहीं है। राज्य में 14 करोड़ लोग रहते हैं और यानी हर 10 में से एक भारतीय सब-सहारा अफ्रीका के स्तर का जीवन जी रहा है। इस चुनाव में भी मुख्य दावेदार वही पुरानी बातें दोहरा रहे हैं और दुख की बात यह है कि शायद इतना ही काफी भी हो। तीसरे विकल्प के रूप में प्रशांत किशोर कम से कम कुछ नए विचार लेकर आए हैं। वह भले ही इसे स्वीकार न करें, लेकिन उन्हें भी यह एहसास है कि बिहार में नए विचारों की कल्पना करना भी अक्सर एक खयाली पुलाव समझा जाता है या फिर सीधे-सीधे पागलपन।
एक अत्यंत गहरी, जीवंत राजनीतिक संस्कृति वाले राज्य के लिए यह दुखद है। इसे इस तरह देखिए कि अगर बिहार न होता तो गांधी भी न होते। वह 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे और पहली बार राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फलक पर तब आए जब चंपारण में ब्रिटिशों द्वारा जबरिया नील की खेती करवाने के विरुद्ध उन्होंने सत्याग्रह किया। उस क्षेत्र में अभी भी देश के सबसे गरीब कुछ जिले मौजूद हैं। वहां जाकर पता चलता है कि लोग कितने गरीब और वंचित हैं। आप कल्पना कर सकते हैं कि 1917 में उनके हालात क्या रहे होंगे? फिर भी उन्होंने गांधी को गले से लगाया। बिहार के सबसे गरीब लोग उनके पहले राजनीतिक सहयोगी थे।
इस तथ्य के अलावा कि जयप्रकाश नारायण (जेपी) एक बिहारी थे, क्या वे लोकनायक के रूप में प्रतिष्ठित हो पाते अगर बिहार की जनता, उनकी राजनीतिक जागरूकता और साहस न होता?उनका नव निर्माण आंदोलन पूरी तरह बिहारी जनशक्ति पर आधारित था और उसने इतना व्यापक राष्ट्रीय प्रभाव डाला कि इंदिरा गांधी को हिलाकर रख दिया, जिससे उन्हें आपातकाल लगाना पड़ा और अंततः 1977 में उनकी हार हुई। जेपी ने 20वीं सदी के भारत में गांधी के बाद सबसे बड़ा नैतिक और राजनीतिक प्रभाव अर्जित किया। बिहार ने कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय वर्चस्व के पतन की शुरुआत की और वह फिर इससे कभी उबर नहीं पाई।
अगर महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण के उदय का श्रेय बिहार और उसकी जनता को है, तो आइए बात करें कर्पूरी ठाकुर की, जो साठ के दशक के मध्य में उभरे। उससे पहले तक, राज्य में ऊंची जातियों के मुख्यमंत्री ही स्वाभाविक विकल्प हुआ करते थे। लेकिन समस्तीपुर के एक साधारण नाई परिवार से आने वाले कर्पूरी ठाकुर ने इस परंपरा को चुनौती दी और बदल कर रख दिया। यह बदलाव सिर्फ बिहार तक सीमित नहीं रहा। उन्होंने वंचित जातियों के सशक्तीकरण के लिए सामाजिक न्याय आंदोलन की शुरुआत की, जो छह दशक बाद भी जीवित है और राजनीतिक चेतना का एक मजबूत स्तंभ बना हुआ है।
वह 1967 में कई राज्यों में कांग्रेस को बहुमत से वंचित करने वाले सामाजिक गठबंधनों के प्रमुख सूत्रधार थे। संयुक्त विधायक दल की राज्य सरकार में उन्होंने उपमुख्यमंत्री के रूप में शिक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण विभागों की जिम्मेदारी संभाली हालांकि यह सरकार ज्यादा समय तक नहीं टिक पाई। लेकिन उन्होंने एक नई राजनीति की नींव रखी, जिसे आगे चलकर मंडलवादी राजनीति के नाम से जाना गया। यह राजनीति एक धर्मनिरपेक्ष जवाब या विकल्प बनकर उभरी। एक ओर उस कांग्रेस के लिए, जिसे 90 के दशक की शुरुआत में नर्म हिंदुत्व की ओर झुकता देखा गया, और दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए भी।
उस समय तक कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी जो जनसंघ पर हंस सकती थी। इंदिरा गांधी ने उसे बनियों (हिंदुओं की नहीं) की पार्टी कहकर मखौल उड़ाया था। कर्पूरी ठाकुर और बिहार के लोगों ने देश का पहला कांग्रेस विरोधी और भाजपा विरोधी सामाजिक गठजोड़ कायम किया। यह अलग बात है कि बाद में उसका विभाजन हुआ और हर धड़ा दोनों राष्ट्रीय गठबंधनों में से किसी एक से जुड़ गया। कर्पूरी ठाकुर के निधन के 37 साल बाद कांग्रेस और भाजपा दोनों उनकी विरासत से उपजे दलों के सहारे हैं। आप समझ सकते हैं कि मोदी सरकार ने उन्हें मरणोपरांत भारत रत्न क्यों दिया।
लिच्छवी काल की लोकतांत्रिक परंपरा से लेकर चंपारण आंदोलन, कर्पूरी ठाकुर का सामाजिक न्याय और जेपी की संपूर्ण क्रांति, मार्क्सवादी-लेनिनवादी वामपंथी आंदोलनों और उनके सामंती ऊंची जातियों के प्रतिरोध (जैसे रणवीर सेना) तक, बिहार की धरती भारत में क्रांतियों के लिए सबसे उपजाऊ रही है। तो फिर बिहार इतना पीछे क्यों रह गया? कौन-सा अभिशाप उसका पीछा कर रहा है? क्यों उसकी क्रांतियां बार-बार अपने ही बच्चों को निगल जाती हैं?
राज्य में जो एक चीज सबसे अधिक फल-फूल रही है, वह है राजनीतिक चिंतन। देखिए, हम ‘पंडिताई’ शब्द से बच रहे हैं क्योंकि उसमें जातिगत संकेत छिपा होता है। बिहार की जनता में राजनीतिक जागरूकता, जुनून और बहस औद्योगिक स्तर पर जारी है। शायद इसलिए क्योंकि यहां वास्तविक उद्योगों की भारी कमी है। मैं यह बात हल्के में नहीं कह रहा। राजनीति के प्रति यह निरंतर जुनून ही बिहार के बाकी देश की तुलना में पिछड़ने की जड़ है। जहां बाकी जगहों पर पहचान की राजनीति अतीत की ओर इशारा करती है, बिहार में यह एक आत्मघाती जुनून बन चुकी है।
अब कोई यह वादा नहीं करता कि बिहार को गुजरात या कर्नाटक बना देंगे। शांघाई की तो बात ही छोड़िए। हर किसी के पास पीढ़ियों से चले आ रहे दुख-दर्द हैं, और हर किसी के पास एक नेता है जो उन्हें दूर करने का वादा करता है। और जब हर कोई एक ही वादा करता है, तो जो सबसे अधिक पैसे फेंके, वही आगे निकल सकता है। वह राज्य जिसने दुनिया को लोकतंत्र दिया, भारत को महात्मा और लोकनायक दिया, और सामाजिक न्याय की क्रांति दी, वह आज न्यूनतम अपेक्षाओं की राजनीति से ग्रस्त है। यह एक राष्ट्रीय त्रासदी है।