तेजस्वी यादव | फाइल फोटो
‘सावधान रहें। चेहरे भले ही बदल गए हों। लेकिन लोग अब भी वही हैं।’ यह बात केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पिछले महीने बिहार के दरभंगा में अपनी रैली में कही थी। शाह ने कहा, ‘जंगलराज नए वेश में वापस आने की कोशिश करेगा। उन्हें बाहर रखने की जिम्मेदारी आपकी है।’
कपड़े निश्चित रूप से बदल गए हैं। तेजस्वी यादव रंग-बिरंगी टी-शर्ट और जींस पहनकर जनसभाओं को संबोधित करते हैं। सफेद खादी का चलन खत्म हो गया है। और गृह मंत्री की टिप्पणी बिल्कुल वही दिखाती है जो वह दिखाना चाहते हैं, यही कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) नए नेतृत्व के अधीन है।
नया नेतृत्व? पूरा पटना संजय यादव की चर्चा कर रहा है, जो बिहार में हरियाणा से आए एक बेहद कीमती व्यक्ति हैं। तेजस्वी कहते हैं कि संजय यादव उनके ‘दार्शनिक, मार्गदर्शक और ट्यूशन टीचर’ हैं। लेकिन उनकी बहिन रोहिणी समेत दूसरे लोग कहते हैं कि वह इससे कहीं बढ़कर हैं। संजय और तेजस्वी की मुलाकात 2011 के आसपास अखिलेश यादव के जरिये हुई थी। (हरियाणवी प्रतिभाओं में कुछ तो ऐसा है कि राजद उन्हें चुंबक की तरह अपनी ओर खींचता है। लालू प्रसाद के दाहिने हाथ और पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रेम चंद गुप्ता मूल रूप से हिसार के थे और उन्होंने एक निर्यातक-आयातक के रूप में शुरुआत की और बाद में लालू प्रसाद के सलाहकार बन गए।)
संजय यादव कंप्यूटर साइंस की पढ़ाई के बाद हरियाणा के महेंद्रगढ़ में तब तक एक शांत जीवन बिता रहे थे, जब तक कि उन्हें बिहार की राजनीतिक हलचल में नहीं डाल दिया गया। यदि तेजस्वी की कुछ बहिनों और भाई तेज प्रताप की बात पर विश्वास किया जाए तो संजय यादव ही परिवार के दिल में सेंध लगाने के लिए जिम्मेदार हैं, खासकर तब जब लालू प्रसाद के लंबे समय से वफादार रहे अब्दुल बारी सिद्दीकी के दावे को दरकिनार कर उन्हें 2024 में राज्य सभा सीट दी गई।
तेजस्वी यादव महज चार महीने के थे जब उनके पिता बिहार के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने दिल्ली में स्कूली शिक्षा प्राप्त की, लेकिन पेशेवर क्रिकेट खेलने के लिए दसवीं कक्षा में पढ़ाई छोड़ दी। स्कूल में ही उनकी मुलाकात अपनी पत्नी, जो उस समय उनकी सहपाठी थीं, रेचल गोडिन्हो (अब राजश्री यादव) से हुई। वह हरियाणा से ही ताल्लुक रखती हैं। परिवार के विरोध के बावजूद दोनों ने शादी कर ली। अब तीस के दशक में पहुंच चुके तेजस्वी यादव रैलियों में कहते हैं, ‘मैं अभी युवा हूं, युवाओं की महत्त्वाकांक्षा और उनकी चाहत को समझता हूं। मेरे चाचा, जो मुख्यमंत्री हैं, अस्वस्थ हैं। आप ही बताइए क्या आप दिल्ली और गुजरात के लोगों को बिहार चलाने देंगे? या कोई बिहार का लाल आपका राज्य चलाएगा?’ भीड़ ज्यादा नहीं है, लेकिन लोगों का उत्साह साफ नजर आता है।
राजद में एक गुपचुप तरीके से एक बदलाव देखने को मिल रहा है। बताया जा रहा है कि यह संजय यादव के इशारे पर हो रहा है, हालांकि ये कदम सोचे-समझे हैं और सावधानी से उठाए जा रहे हैं। तेजस्वी को अब भी लालू प्रसाद की राजनीतिक विरासत के असली उत्तराधिकारी के रूप में पेश किया जा रहा है। यह उनकी चुनावी सभाओं में मंच पर कतार में सबसे स्पष्ट दिखाई देता है। जदयू और भाजपा की चुनावी सभाओं में केंद्र और राज्य के नेता मंच पर होते हैं।
राजद में मुखिया, ग्राम प्रधान होते हैं, जो दर्शाता है कि पार्टी और बिहार के गांवों के बीच संगठनात्मक संबंध बरकरार है। एक तरह से देखा जाए तो यह कांग्रेस के उलट है। बिखरा हुआ यादव समुदाय उनके पीछे एकजुट होता दिख रहा है। भाजपा को रोकने के लिए पूरे राज्य में विकल्प के अभाव में मुसलमान तेजस्वी को अपना सबसे अच्छा दांव मानते हैं। उनमें से एक ने कहा, ‘राजद से योगी आदित्यनाथ या अमित शाह को भी मैदान में उतार दीजिए, आप देखेंगे, उन्हें एक-एक मुस्लिम वोट मिलेगा।’
लेकिन लालू की विरासत दोधारी तलवार है क्योंकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की दिलचस्पी स्वाभाविक रूप से राजद के कार्यकाल के केवल उस हिस्से को उजागर करने में है जो अपहरण, जबरन वसूली और अराजकता को दर्शाता है। राजग सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण के कार्यान्वयन में लालू प्रसाद के योगदान की तुलना वर्तमान परिवार-प्रधान राजद से करता है। यह सच्चाई का केवल एक हिस्सा है।
तेजस्वी यादव ने 2025 के विधान सभा चुनाव में राजद के 36 फीसदी टिकट (143 में से 51) यादवों को आवंटित किए, जो आबादी का 14.26 फीसदी हैं। मुसलमानों, जिनकी आबादी 17.70 फीसदी है, को केवल 19 सीटें मिलीं, जो कुल का लगभग 13 फीसदी और 2020 के समान ही है। लेकिन इस बार राजद के उम्मीदवारों की सूची में अन्य जातियों को शामिल करना उल्लेखनीय है।
अतीत में भूमिहार राजद को एक राजनीतिक संभावना के रूप में सोच ही नहीं सकते थे। इस बार, राजद के टिकट पर चुनाव लड़ रहे छह उम्मीदवार भूमिहार हैं, जो एक ‘अगड़ा’ समुदाय है और पारंपरिक रूप से लालू प्रसाद की पार्टी का विरोधी रहा है। मोकामा के एक बाहुबली सूरजभान सिंह 2025 में राजद में शामिल हो गए और उन्होंने अपनी पत्नी को इस सीट से चुनाव मैदान में उतारा है (एक फौजदारी मामले में दोषी पाए जाने के कारण उनके चुनाव लड़ने पर रोक है)। तेजस्वी ने अपने सहयोगियों की सलाह मानकर निषाद और मल्लाह समुदाय के अस्थिर और अप्रत्याशित नेता मुकेश सहनी को उपमुख्यमंत्री पद की पेशकश करके उन्हें अपने पक्ष में करने की कोशिश की।
गौरा बौराम सीट पर उन्होंने राजद उम्मीदवार को सहनी की विकासशील इंसान पार्टी के पक्ष में चुनाव से हटने के लिए मजबूर किया, जिसकी उन्हें काफी कीमत चुकानी पड़ी। उन्होंने कभी भी सार्वजनिक रूप से नीतीश कुमार की आलोचना नहीं की।
पटना के बाकरगंज में एक छोटी सी दुकान चलाने वाले सुनील कुमार कहते हैं, ‘उन्हें एक मौका जरूर मिलना चाहिए। लोग उन्हें कम से कम एक बार आजमाना तो चाहते हैं।’ वह अपनी जाति नहीं बताते, लेकिन अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। वह इसे छिपाने की कोशिश करते हैं। लेकिन उनकी चाहत साफ दिखाई देती है।