प्रतीकात्मक तस्वीर | फाइल फोटो
नवीनतम क्यूएस एशिया यूनिवर्सिटी रैंकिंग उन चुनौतियों की ओर इशारा करती हैं जिनका सामना भारत को विश्व की सेवा क्षेत्र की राजधानी के रूप में अपनी पहचान बनाने के लिए करना पड़ रहा है। भारत दुनिया की अग्रणी कंपनियों के वैश्विक क्षमता केंद्रों के लिए एक पसंदीदा स्थान के रूप में अपनी स्थिति को अपनी बढ़ती घरेलू बौद्धिक पूंजी का एक संकेतक मानता है। लेकिन वैश्विक उच्च शिक्षा का विश्लेषण करने वाली फर्म, क्वाक्वेरेली साइमंड्स (क्यूएस) द्वारा संकलित वार्षिक रैंकिंग से पता चलता है कि देश अपनी उच्च शिक्षा में गंभीर सुधार किए बिना इस मानव संसाधन पर भरोसा नहीं कर पाएगा।
भारत ने न केवल सबसे अधिक प्रतिनिधित्व वाली उच्च शिक्षा प्रणाली के रूप में अपना शीर्ष स्थान चीन के हाथों गंवा दिया, बल्कि उसके कई प्रमुख संस्थानों की रैंकिंग में भी उल्लेखनीय गिरावट आई। इस वर्ष 137 भारतीय विश्वविद्यालयों ने इस सूची में प्रवेश किया, जिससे इसमें शामिल देश के विश्वविद्यालयों की कुल संख्या 294 हो गई। उच्च तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा देने की चीन की ऊर्जावान और सक्षम नीति का अंदाजा इसके 261 संस्थानों के जुड़ने से लगाया जा सकता है जिससे वहां के संस्थानों की कुल संख्या 395 हो गई है। कोई भी भारतीय संस्थान शीर्ष 10 में जगह नहीं बना पाया। इसमें हॉन्ग कॉन्ग, चीन और वैश्विक नवाचार के उभरते केंद्र सिंगापुर के संस्थान रहे।
भारत का शीर्ष प्रदर्शन करने वाला विश्वविद्यालय भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली रहा लेकिन उसकी 59वीं रैंकिंग पिछले वर्ष के 44वें स्थान से 15 पायदान नीचे है। आईआईटी बंबई 2025 में 48 से गिरकर 71 पर आ गया और आईआईटी खड़गपुर पिछले साल के 60 से गिरकर 77 पर पहुंच गया। मद्रास और कानपुर सहित सभी प्रमुख आईआईटी ने कम से कम 2021 के बाद से अपनी सबसे निचली रैंक दर्ज की।
भारत की शीर्ष 10 रैंकिंग में शामिल सात संस्थानों में से केवल चंडीगढ़ विश्वविद्यालय ही 120 से 109 पर पहुंचा है। कोई भी भारतीय विश्वविद्यालय वैश्विक स्तर पर शीर्ष 100 में स्थान नहीं रखता है। हालांकि चीन के कई विश्वविद्यालय इसमें शामिल हैं, जिनमें 14वें स्थान पर पेकिंग विश्वविद्यालय है।
विडंबना है कि यह खराब प्रदर्शन ऐसे समय में दिख रहा है, जब भारत सरकार ने पिछले एक दशक में उच्च शिक्षा में कई सुधार पेश किए हैं। इन सुधारों में, आईआईटी के लिए अधिक शासी स्वायत्तता, केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए संसाधन जुटाने के मानदंडों में ढील, और विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश का रास्ता आसान बनाना शामिल है। लेकिन इनमें से किसी ने भी भारतीय विद्यार्थियों को उच्च अध्ययन के लिए स्वदेश में ही रहने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार विदेश में पढ़ने वाले भारतीय विद्यार्थियों की संख्या इस साल 18 लाख तक पहुंच गई है, जो 2023 में 13 लाख थी। विदेश जाने में यह स्थिर वृद्धि शीर्ष भारतीय संस्थानों में उपलब्ध सीमित सीटों के साथ-साथ इन क्षेत्राें में उपलब्ध रोजगार के अवसरों के कारण है। ये रुझान भारतीय उच्च शिक्षा में गुणवत्ता की गंभीर कमी की ओर इशारा करते हैं। इनसे यह भी पता चलता है कि केंद्रीय और राज्यों के विश्वविद्यालयों को शिक्षण मानकों और संसाधनों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
यह स्थिति केवल तकनीकी और वैज्ञानिक अनुसंधान पर केंद्रित संस्थानों की ही नहीं है, जिनके लिए क्यूएस रैंकिंग के मानदंड अनुकूल प्रतीत होते हैं, बल्कि कला और मानविकी के लिए भी ऐसा ही है। कला और मानविकी की उपेक्षा को कम करके नहीं आंका जा सकता। विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों में बढ़ते हस्तक्षेप और केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा विशिष्ट विचारधाराओं के अनुरूप पाठ्यक्रम तैयार करने के प्रयासों ने उच्च शिक्षा की ईमानदारी और गुणवत्ता को लगातार कमजोर किया है।
प्रतिभाशाली शिक्षाविद और उत्कृष्ट छात्र बेहतर संसाधनों वाले स्वतंत्र अनुसंधान के अवसरों की तलाश में तेजी से अन्यत्र जा रहे हैं। अनुसंधान के लिए एक तटस्थ लेकिन सक्षम वातावरण, चाहे वह कला का क्षेत्र हो या विज्ञान का, वह आदर्श है जिसकी ओर भारत को लक्ष्य बनाना चाहिए।