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भारत की विकास यात्रा में सेवा और विनिर्माण दोनों ही आवश्यक

भारत की विकास यात्रा में यह बहस पूरी तरह बेमानी है कि हमें सेवा और विनिर्माण के बीच चयन करना चाहिए अथवा नहीं। विस्तार से बता रहे हैं अजय छिब्बर

Last Updated- February 14, 2024 | 9:34 PM IST
Factories

अधिकांश विकसित देशों और बाद में विकसित हुए देशों मसलन कोरिया और चीन तथा वर्तमान में वियतनाम आदि ने जिस ढांचागत बदलाव का अनुसरण किया उसमें उन्होंने पहले औद्योगीकरण को अपनाया और उसके बाद सेवा क्षेत्र का विकास किया और करोड़ों लोगों को कृषि क्षेत्र से बाहर निकाला। भारत की बात करें तो यह ढांचागत बदलाव एकांगी नजर आता है।

भारत जिस परिस्थिति से गुजरा उसे डैनी रॉड्रिक ने ‘औद्योगीकरण के समयपूर्व समाप्त होने’ के रूप में परिभाषित किया है। हमारे देश में उद्योग जगत की हिस्सेदारी 2008 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 32 फीसदी के साथ अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी और उसके बाद यह घटकर जीडीपी के 25 फीसदी रह गई।

इसके उलट भारत ने सेवा क्षेत्र में काफी अच्छा काम किया, खासकर आईटी से जुड़ी सेवाओं, स्वास्थ्य सेवा और ई-सेवाओं के मामले में। इसकी वजह से कुछ लोगों का यह भी कहना है कि भारत को नई सेवा आधारित वृद्धि का अग्रदूत होना चाहिए और उसे औद्योगीकरण पर अपनी ऊर्जा और संसाधन नहीं बरबाद करने चाहिए।

हमें दोनों की आवश्यकता है। भारत एक बड़ा, विविधता वाला देश है जहां रोजगार चाहने वाले युवाओं की भरमार है। इन युवाओं के पास अलग-अलग तरह की शिक्षा और कौशल हैं।

इंजीनियरिंग करने वाले युवाओं का एक वर्ग महंगी सेवाओं की तेज वृद्धि से लाभान्वित है और उनकी मांग की भरपाई नहीं हो पा रही है। वहीं बुनियादी स्कूली शिक्षा हासिल करने वाले युवाओं के एक हिस्से को कम कौशल वाले विनिर्माण संबंधी रोजगार की आवश्यकता है।

ऐसे रोजगारों की कमी का अर्थ यह है कि बड़ी तादाद में युवा या तो खेती के काम में फंसे हुए हैं (बीते पांच साल में छह करोड़ लोग खेती में नए जुड़े) या फिर वे बेरोजगार हैं। इससे यह भी पता चलता है कि आखिर क्यों महिलाओं की श्रम शक्ति भागीदारी कमजोर है।

हर वर्ष 80 लाख से एक करोड़ लोग श्रम शक्ति में शामिल होते हैं और अपनी तमाम सफलता के बावजूद सेवा क्षेत्र इतने लोगों को रोजगार नहीं दे सकता। खासतौर पर ग्रामीण इलाकों के लोगों को जिनके पास केवल स्कूली शिक्षा होती है।

इन लोगों का बेहतर इस्तेमाल करने के लिए भारत के पास उद्योग जगत के इस्तेमाल के सिवा कोई विकल्प नहीं है। बहरहाल, देश की औद्योगिक रणनीति में आयात संरक्षण और पांच वर्ष की उत्पादन से संबद्ध प्रोत्साहन योजना यानी पीएलआई शामिल हैं जो अब कुल 17 क्षेत्रों को प्रोत्साहन और 4 से 6 फीसदी की सब्सिडी मुहैया कराती हैं। तकरीबन 270 अरब डॉलर के बिल वाली यह प्रक्रिया सही हल नहीं नजर आती।

संरक्षण की यह प्रक्रिया न केवल हमें उन पुराने दिनों में वापस ले जाती है जहां उपभोक्ताओं को उत्पादों की ऊंची कीमत चुकानी पड़ती थी बल्कि अब जबकि वैश्विक और क्षेत्रीय मूल्य श्रृंखलाओं की विश्व व्यापार में अहम भूमिका है, वहां इनकी लागत भी बहुत अधिक है।

अगर आप सोचते हैं कि युद्ध और महामारी की वजह से वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं की भूमिका में कमी आई है तो उन्हें जानना चाहिए कि उनकी भूमिका पहले से कहीं अधिक मजबूत हुई है। भारत को ऐसे तरीके निकालने होंगे ताकि वह वैश्विक मूल्य श्रृंखला का हिस्सा बन सके।

पीएलआई योजना ने मोबाइल फोन क्षेत्र में कुछ सुविधाएं प्रदान की हैं जहां भारत में उत्पादन और यहां से होने वाले निर्यात में तेजी से इजाफा हुआ है। चिप निर्माण और आईटी हार्डवेयर में अधिक निवेश जुटाने के प्रयास जारी हैं लेकिन कई लक्षित क्षेत्रों में कोई खास सुधार नहीं नजर आया है। स्थानीय निर्माण को बल देने के लिए लैपटॉप का आयात प्रतिबंधित करने की योजना आईटी सेवा निर्यात को प्रभावित कर सकती है।

अभी इसे पूरी तरह टाला नहीं गया है। पीएलआई संबद्ध निवेश रोजगार के लिए आवश्यक बड़ा पैमाना नहीं तैयार कर सकता। खासतौर पर कम कौशल वाले विनिर्माण के क्षेत्र में। अप्रत्याशित जगहों से सफलता मिल सकती है। कई उदाहरणों में से एक की बात करें तो भारत अब वैश्विक स्तर पर पुरस्कार पाने वाली व्हिस्की और जिन बनाता है। आयात में कमी आई है और निर्यात बढ़ा है। रोजगार भी तैयार हो रहे हैं। इसका अनुमान कोई नहीं लगा सकता था।

हमें यह विश्लेषण करना चाहिए कि भारतीय विनिर्माण में नई जान फूंकने के लिए पीएलआई सब्सिडी की आवश्यकता क्यों है। इसका जवाब यह है कि देश में उद्योग जगत की कारोबारी सुगमता की लागत बहुत अधिक है। अधोसंरचना में सुधार हो रहा है लेकिन इसका इस्तेमाल अभी भी महंगा है। पेट्रोल की कीमतें चीन तथा अन्य प्रतिस्पर्धी देशों से 50 फीसदी अधिक हैं जबकि डीजल कीमतें 20 फीसदी अधिक हैं।

ऐसा इसलिए कि सरकार पीएलआई जैसी योजनाओं की भरपाई के वास्ते राजस्व जुटाने के लिए इन पर कर और उपकर लगाती है। भारत का रेल मालभाड़ा चीन से तीन गुना और शायद दुनिया में सबसे अधिक है। उत्पादकों के लिए बिजली की कीमतें चीन तथा अन्य प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में 30-40 फीसदी तक अधिक हैं।

इतना ही नहीं 10 से अधिक कर्मचारियों वाली कंपनी के लिए रोजगार देने को मुश्किल बनाने वाले श्रम कानून देश में श्रम गहन विनिर्माण को कम आकर्षक बनाते हैं। उद्योग जगत या तो अधिक पूंजी गहन बनने को प्राथमिकता देता है या फिर दैनिक श्रमिकों को रखकर श्रम कानूनों से बचता है। अक्सर कम उत्पादक गतिविधियों में ऐसा किया जाता है।

भूमि भारत का सबसे दुर्लभ संसाधन है। हमारे यहां इसका सही ढंग से इस्तेमाल नहीं किया जाता है और इसके अधिग्रहण की लागत बहुत अधिक है। देश की आबादी का 40 फीसदी से अधिक खेती के काम में लगा है जबकि 70 फीसदी के खेतों की जोत बहुत छोटे आकार की है। इससे जमीन की उत्पादकता बहुत प्रभावित होती है। भारत फ्लोर एरिया अनुपात के क्षेत्र में दुनिया के सबसे कमजोर देशों में शामिल है जिसकी वजह से शहरों का गैर किफायती प्रसार हुआ।

पूंजी की लागत में कमी आई है लेकिन अभी भी वह चीन तथा अन्य प्रतिस्पर्धी एशियाई देशों से अधिक है। बिना इन मसलों का समाधान किए सब्सिडी वाले क्षेत्र जरूर पीएलआई योजना की अवधि को पांच वर्ष से आगे बढ़ाने के लिए लॉबीइंग करेंगे और आयात संरक्षण बढ़ाने की मांग करेंगे।

आईटी उद्योग, स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र और ई-कॉमर्स क्षेत्र इन कारकों से बहुत कम प्रभावित हैं और इसलिए तुलनात्मक रूप से फले-फूले हैं। परंतु बैंक ऑफिस आउटसोर्सिंग को अब खतरा उत्पन्न हो सकता है क्योंकि आर्टिफिशल इंटेलिजेंस की चुनौती हमारे सामने है।

आईएमएफ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भारत आर्टिफिशल की चुनौती से निपटने के लिए कई अन्य जी20 देशों की तुलना में कम तैयार है। हालांकि भारत को स्टार्टअप पर जोर देना जारी रखना चाहिए और पर्यटन जैसे रोजगारपरक क्षेत्रों पर भी।

स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ‘हम दुनिया में एक व्यायामशाला की तरह प्रवेश करते हैं ताकि स्वयं को मजबूत बना सकें।’ हमें बेहतर व्यापार और औद्योगिक नीति की आवश्यकता होगी ताकि देश को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाया जा सके एवं नई चुनौतियों के लिए तैयार किया जा सके। हमें विनिर्माण और सेवा दोनों की जरूरत है।

हमें कुछ बुनियादी दिक्कतों को दूर करके कारोबारी सुगमता की लागत कम करनी होगी ताकि भारत को 2047 तक उन्नत अर्थव्यवस्था बनाया जा सके।
(लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी के प्रतिष्ठित विजिटिंग स्कॉलर हैं)

First Published - February 14, 2024 | 9:34 PM IST

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