भौगोलिक पहचान (जीआई) का तमगा बौद्धिक संपदा के संरक्षण के लिए सबसे बढ़िया रास्ता तो नहीं है लेकिन किसी खास भौगोलिक क्षेत्र में किसी विशेष उत्पादन को फायदा पहुंचाने के लिहाज से यह काफी कारगर साबित होता है।
व्यावसायिक फायदे के लिए भारत में अभी तक इस क्षेत्र में रफ्तार बहुत सुस्त है। वस्तुओं की भौगोलिक पहचान (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम को लागू करने के अलावा पिछले पांच वर्षों में कुछ ही वस्तुओं को इसके दायरे में लाया गया है।
अचंभित करने वाली बात है कि उम्दा किस्म के लंबे सुगंधित बासमती चावल को अभी भौगोलिक पहचान के अंतर्गत नहीं लाया गया है जबकि विदेशी बाजारों में इसकी प्रतिष्ठा को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं। नतीजतन, भारतीय बासमती चावल से गुणवत्ता के मामले में कमतर दूसरे देशों के खुशबूदार चावल कासमती और जासमती जैसे मिलते-जुलते नामों से धड़ल्ले से बेचे जा रहे हैं।
जाहिर तौर पर यदि बासमती को भौगोलिक पहचान के दायरे में ले लिया गया होता तो बासमती का पेटेंट रखने वाली अमेरिकी कंपनी राइस टेक इंक और दूसरी विदेशी कंपनियों से लंबी कानूनी लड़ाई से बचा जा सकता था। अगर बासमती को घरेलू भौगोलिक पहचान के तहत मान्यता दी जाती (वैश्विक स्तर पर इसके लिए पाकिस्तान का सहयोग भी जरूरी है) तब न तो व्यापार में दिक्कतें आतीं, साथ ही विदेशी अदालतों में भारत का मामला और मजबूत हो जाता।
भाग्य से कुछ देसी उत्पादों को आसानी से भौगोलिक पहचान के तहत मान्यता मिल गई। कांजीवरम की सिल्क साड़ियां, अलफांसो आम, नागपुर के संतरे, बीकानेरी भुजिया, कोल्हापुरी चप्पल और इन जैसे कई उत्पाद इस सूची में शामिल होने में कामयाब रहे। जबकि कुछ विशिष्ट उत्पादों को आज भी इसका फायदा नहीं मिल पा रहा है। विश्व व्यापार संगठन के इस दौर में व्यापार संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकारों (ट्रिप्स) के आने तक भौगोलिक पहचान को अंतरराष्ट्रीय मान्यता जैव विविधता और कई अन्य दूसरे प्रावधानों के आधार पर मिलती रही।
इस तरह ट्रिप्स के आने से भौगोलिक पहचान तमगे को खासतौर पर व्यापार के लिहाज से और ताकत मिल गई है। हालांकि कुछ कारणों के चलते ट्रिप्स ने अनुच्छेद 23 के तहत वाइन और दूसरे एल्कोहॉलिक उत्पादों को विशेष छूट दी। विकसित देशों में ये उत्पाद राजस्व अर्जित करने के महत्वपूर्ण माध्यम हैं। दूसरी ओर विकासशील देशों के भौगोलिक पहचान वाले उत्पादों को अनुच्छेद 22 के तहत सामान्य छूट ही दी गई। भारत समेत सभी विकासशील देशों के सामने अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए भौगोलिक पहचान के मामलों को लेकर और संवेदनशीलता बरतने की जरूरत है।
भारत में इस तरह की मान्यता देने के रास्ते में कुछ बाधाएं जरूर हैं। मसलन भारत में विशिष्ट उत्पादों के उत्पादक संगठित क्षेत्र में काम नहीं करते और एक साथ विशेष सुविधाएं देना भी मुमकिन नहीं है। लेकिन वाणिज्य मंत्रालय अपनी सही भूमिका का निर्वहन करने में नाकाम रहा है। मंत्रालय ने कुछ ही उत्पादों को भौगोलिक पहचान का तमगा देने के लिए चयनित किया है जो इसके अपने प्रशासनिक दायरे के अंतर्गत आते हैं। मंत्रालय को इस तरह का रवैया बदलना होगा। वहीं ट्रिप्स अनुबंधों को भी दोहरे मानदंडों से बाज आना चाहिए। भारत को दोहा प्रस्ताव को साथ लेकर इस मामले में पहल करनी चाहिए।