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  लेख  क्या मंदी के दौर में उद्योगों के लिए छंटनी के अलावा और भी विकल्प हैं?
लेख

क्या मंदी के दौर में उद्योगों के लिए छंटनी के अलावा और भी विकल्प हैं?

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —October 29, 2008 10:32 PM IST
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अस्तित्व बचाने का संकट
धर्मकीर्ति जोशी
प्रमुख अर्थशास्त्री, क्रिसिल


वैश्विक मंदी की आहट अब भारत में दस्तक दे चुकी है। मंदी के इस दौर में उद्योग जगत की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं और यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है।

इन्हीं मुश्किलों के चलते कंपनियों ने नौकरियों में  छंटनी शुरू कर दी है और कुछ ऐसा करने की तैयारी में हैं। वक्त की नजाकत को देखते हुए कंपनियों का यह फैसला सही ही लगता है क्योंकि अगर वे खुद ही खत्म हो गईं तो फिर क्या होगा? यही सवाल उनके जेहन में उठना लाजिमी ही है।

वाकई में इस समय नौकरियों पर तलवार लटकी हुई है। कुल मिलाकर, यह ऐसा दौर है जब कर्मचारी तरक्की के नौकरी बचाने के बारे में सोच रहे हैं। भारत में तो हालत फिर भी काफी बेहतर है लेकिन वैश्विक स्तर पर यह मंजर बहुत ही खतरनाक है। अमेरिकी वित्तीय व्यवस्था के लीमन ब्रदर्स जैसे किले इस मंदी के तूफान में हवा हो गए हैं।

जहां तक छंटनी का सवाल है तो कंपनियां अपने आप को बचाने के लिए छंटनी का इस्तेमाल काफी बाद में करती हैं। इससे पहले वे कई तरह से अपने खर्चों में कटौती करके स्थिति को नियंत्रण में करने का प्रयास करती हैं। हर संभव विकल्प तलाशने के बाद भी जब हालात बेकाबू हो जाएं तभी कंपनियां छंटनी करने लगती हैं।

दरअसल मंदी के माहौल में छंटनी से किसी को अचंभा नहीं होना चाहिए। मंदी के दौर में मांग में कमी आ जाती है। ऐसे में कंपनियों को अपने उत्पादन में भी कमी लानी पड़ती है। मान लीजिए कि किसी कंपनी के किसी उत्पाद की 1000 यूनिट हर महीने बिकती हैं और उसके लिए 500 कर्मचारी काम करते हैं। 

कुछ वक्त बाद अगर उसी उत्पाद की मांग 1000 यूनिट से घटकर 700 रह जाए तो कंपनी के लिए उतने ही यानी 500 कर्मचारियों को  वेतन देना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि मांग और बिक्री कम होने से कंपनी की आमदनी में कमी तो आएगी और उस कंपनी के लिए अधिक वक्त तक उतने कर्मचारियों को नौकरी पर रखने के बजाए उनकी छंटनी तो करनी ही पड़ेगी।

और अगर वह कंपनी ऐसा नहीं करेगी तो हो सकता है कि कुछ वक्त के बाद  उसके ही  अस्तित्व पर संकट खड़ा हो जाए। इस दौर में कुछ सेक्टरों की हालत बेहद पतली है। विमानन उद्योग की हालत अब सबके सामने है। अगली बारी रियल एस्टेट की नौकरियों की है। फिर ऑटोमोबाइल की बारी आ सकती है।

निर्यात में कमी आने से रिटेल खासकर टेक्सटाइल की नौकरियों पर खतरा पड़ता नजर आ रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी और सूचना प्रौद्योगिकी आधारित सेवाएं (आईटीईएस) भी इसकी जद में आ जाएं तो अचरज नहीं होना चाहिए। कुछ लोगों के दिमाग में यह सवाल कौंध सकता है कि रुपये के मुकाबले डॉलर की कीमतों में कमी आने की वजह से निर्यातकों की आमदनी तो बढ़ेगी ही।

इस सवाल का बड़ा सीधा और सधा हुआ जवाब यह है कि अर्थशास्त्र में कीमत से ज्यादा क्रय शक्ति मायने रखती है। जब आपका खरीदार, खरीदने की स्थिति में ही नहीं तब फिर आप अपना उत्पाद बेचेंगे किसको? ज्यादातर निर्यात अमेरिका और उन्हीं देशों को होता है जहां पर मंदी की मार सबसे ज्यादा पड़ी है।

ऐसे में मांग में कमी के चलते निर्यात में कमी आना स्वाभाविक ही है। निर्यात में कमी मतलब उत्पादन घटाना और उत्पादन घटाने यानी नौकरियों पर तलवार। इन स्थितियों में भी फार्मास्युटिकल्स और एफएमसीजी में काम करने वाले लोग कुछ राहत की सांस ले सकते हैं।  बातचीत: प्रणव सिरोही

विकल्पों की नहीं है कमी
अवनि रॉय
राज्यसभा सदस्य

मंदी के दौर में उद्योग जगत के लिए छंटनी करने के अलावा और भी विकल्प मौजूद हैं। लेकिन उद्योग जगत सबसे आसान सा विकल्प ढूंढने की फिराक में रहता है। उन्हें लगता है कि अगर वह कर्मचारियों की छंटनी करते हैं तो उनके घाटे की भरपाई हो सकती है और कंपनी को चलाने में मदद भी मिल जाएगी।

उद्योगों में जो बड़े अधिकारी हैं, उन्हें बहुत ज्यादा वेतन भी मिलता है। हर कंपनी में साधारण काम के लिए भी ऐसे अधिकारियों या कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती है। उन अधिकारियों की नौकरी और पद को खत्म नहीं किया जाता है।

हालांकि उनके पद बेहद बेमानी हैं और उन्हें बहुत वेतन देने से कंपनी का खर्च ही बढ़ता है। जब छंटनी की बारी आती है तब निशाना बनते हैं छोटे स्तर के कर्मचारी या फिर मजदूर हालांकि इन्हें कम ही पैसे मिलते हैं। उद्योगों के पास कई विकल्प हैं। वे अपने खर्च में कटौती कर सकते हैं। कंपनियां कर्मचारियों को बाहर विदेशी दौरों पर भेजने और अनावश्यक खर्च को घटा सकती हैं।

कंपनी को बहुत बड़ी संख्या में वाहन रखने की भी कोई जरूरत नहीं है। ऊंचे पदों पर बैठे अधिकारियों को वेतन के साथ ही बेतहाशा सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं, इनमें भी कटौती करनी चाहिए। कंपनियां बाजार की प्रतियोगिता की होड़ में कई खर्चीले कदम उठाती है जो सही नहीं है।

दरअसल इस संकट के असर को अभी छोटे स्तर के कर्मचारी और मजदूर झेल रहे हैं इसलिए सरकार को यह बड़ी समस्या नहीं लग रही है। अभी हाल में ही हम सबने जेट एयरलाइंस का मामला देखा। जब छोटे स्तर के कर्मचारियों की छंटनी होती है तो उनके पास अपनी आर्थिक सुरक्षा के लिए कोई विकल्प नहीं बचता है। इसके अलावा कंपनी की ओर से कई तरह के दबाव भी बनाए जाते हैं।

इस तरह का सिलसिला खत्म होता नहीं दिख रहा है। जेट एयरलाइंस ने राजनीतिक दबाव में आकर भले ही फैसला बदल दिया हो लेकिन वह कब तक इस पर अडिग रहेगी, कहना मुश्किल है। अब किंगफिशर को ही ले लीजिए वे भी कुछ ऐसा ही फैसला करने वाले हैं। कई बड़ी कंपनियों को सेंसेक्स के धराशायी होने पर भी बहुत नुकसान हुआ है।

यह तो सच है कि आज या कल इन कंपनियों को उपाय के तौर पर कुछ कदम जरूर उठाने होंगे और वह कदम हमेशा कर्मचारियों और मजदूरों की छंटनी से ही जुड़ा होगा। मजदूर के पास जो मांग करने का अधिकार है उससे भी उन्हें वंचित किया जा रहा है।

देश में कई तरह के श्रम कानून भी हैं जो उनकी आर्थिक, सामाजिक सुरक्षा कर सकते हैं लेकिन उसका फायदा भी मजदूरों को नहीं मिल पाता है। कोई भी उनकी बात सुनने को तैयार नहीं है। फिलहाल हालात ऐसे है कि न तो श्रम मंत्रालय, न केंद्र सरकार और न ही कोई राज्य सरकार उनकी सुरक्षा के लिए कोई उपाय करने का इरादा कर रही है बल्कि ये सभी कॉन्ट्रैक्ट आधार की नौकरियों का ही पक्ष ले रही हैं।

अब आप सरकार की ही बात देख लें तो आप पाएंगे कि कई मामलों में सरकार भी स्थायी कर्मचारी रखने के बजाय कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर कर्मचारी रखने के लिए ज्यादा इच्छुक हो रही है। इसके जरिए उन्हें यही फायदा दिखता है कि वे जब चाहें तब इन्हें निकाल सकते हैं और जितना वेतन देना चाहते हैं, उतना ही देते हैं। सरकार अब तो इस संकट को स्वीकार करने को तैयार नहीं है, ऐसे में हालात बहुत खराब हो सकते हैं तथा कर्मचारी और मजदूर कानून को हाथ में ले सकते हैं।  बातचीत:शिखा शालिनी

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