आदरणीय प्रधानमंत्री
आपने कुछ दिन पहले एक सम्मेलन में वरिष्ठ बैंक अधिकारियों को संबोधित किया था। आपने इसमें जो बातें कहीं उन्हीं से प्रेरित होकर मैं आपको पत्र लिख रहा है। आपने कहा था कि फंसे कर्ज (एनपीए) का दौर पीछे छूट चुका है और अब बैंकों में पर्याप्त पूंजी हैं तथा बैंकिंग प्रणाली में पर्याप्त नकदी उपलब्ध है। सुधरे हालात के बीच बैंकों को रोजगार एवं पूंजी सृजन करने वाली इकाइयों की सहायता करनी चाहिए। बैंकों के बहीखाते मजबूत हो चुके है और अब राष्ट्र का बहीखाता दुरुस्त करने का समय आ गया है।
आपने बैंकों से उद्यमशीलता को बढ़ावा देने का आह्वान किया है। आपने बैंक अधिकारियों को बैंक-ग्राहक संबंध से ऊपर उठकर विकास कार्यों में एक भागीदार का दृष्टिकोण अपनाने की सलाह दी है। आपने कहा है कि बैंक यह सुनिश्चित करें कि उनकी प्रत्येक शाखा में 15 अगस्त, 2022 तक शत-प्रतिशत ऑनलाइन लेनदेन करने वाले ग्राहकों की संख्या कम से कम 100 तक पहुंच जाए। आपने बैंकरों को यह भी आश्वासन दिया कि सरकार उनके व्यावसायिक निर्णयों के पीछे पूरी ताकत के साथ खड़ी है। मैं आपके शब्दों को उद्धृत करता हूं, ‘आप मेरे शब्दों एवं इस वीडियो क्लिप को सहेज कर रख लें। राष्ट्र के हित में उठाए गए कदमों के लिए मैं आपके साथ, आपके सन्निकट और आपके साथ खड़ा हूं। अगर एक ईमानदार, उपयुक्त और राष्ट्र हित में निर्णय लेने में कोई चूक भी हो जाती है और इससे आपको कोई परेशानी होती है तो मैं एक दीवार की तरह आपके पीछे खड़ा रहूंगा।’ आपकी बातें सुनने के दौरान वहां मौजूद लोग बीच-बीच में तालियां बजाते रहे मगर वहां उपस्थित सभी बैंकर उत्साहित नहीं थे। परोक्ष रूप से कुछ बैंकरों ने कहा कि सरकार उन्हें उधारी देने के लिए प्रोत्साहित कर रही है जो फिलहाल तो ठीक है मगर उन पर इसके लिए दबाव डाला गया तो एनपीए फिर बढ़ सकता है। बैंक सोच समझ कर ऋण देना चाह रहे हैं लेकिन उनकी सतर्कता को लोग जोखिम लेने से पीछे हटने के बहाने के रूप में देख रहे हैं। बैंकरों का कहना है कि वे अच्छी साख वाले लोगों एवं इकाइयों का आवेदन स्वीकार करने के लिए तैयार बैठे हैं मगर आंख मूंदकर ऋण देने के पक्ष में वे नहीं हैं। उन्होंने कहा कि अगर ऋण देने में ढीला रवैया अपनाया गया तो फंसे कर्ज का अंबार एक बार फिर बैंकों को मुश्किल में डाल देगा। कुछ दिन पहले भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के पूर्व चेयरमैन प्रतीप चौधरी की गिरफ्तारी के बाद बैंक अधिकारियों का मनोबल कमजोर हो गया है। बैंकरों की अपनी चिंताएं हैं मगर इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि आपने बिल्कुल सटीक बातें कही हैं। 5 नवंबर को समाप्त हुए पखवाड़े में भारतीय बैंकिंग उद्योग का साख-जमा अनुपात 69.56 प्रतिशत था। इसका आशय यह है कि प्रत्येक 100 रुपये जमा के एवज में बैंकों ने केवल 69.56 रुपये ऋण दिया है। 9 दिसंबर, 2016 को समाप्त हुए पखवाड़े के बाद से यह सबसे न्यूनतम अनुपात है। पिछले दशक में साखा-जमा अनुपात 72 से 78 प्रतिशत के बीच रहा है।
कार्यशील पूंजी कारोबार बैंकों के हाथों से फिसलता जा रहा है और इसका लाभ म्युचुअल फंड उद्योग को मिल रहा है। म्युचुअल फंड उद्योग की प्रबंधनाधीन परिसंपत्ति अक्टूबर में 37.33 लाख करोड़ रुपये रही थी। पिछले एक दशक में यह पांच गुना से भी अधिक बढ़ गया है। दीर्घ अवधि में वित्त पोषण के लिए बीमा उद्योग भी सामने आ रहा है। बीमा उद्योग के पास इस समय करीब 45.5 लाख करोड़ रुपये हैं। अब प्रश्न है कि बैंक अगर उधार नहीं देंगे तो वे ब्याज कैसे अर्जित करेंगे? ब्याज नहीं मिलेगा तो उनकी कमाई भी नहीं बढ़ेगी। कुछ बैंकों को ऋण आवंटन की गुणवत्ता में सुधार करना होगा और वे तभी देश के उद्योग जगत को पूंजी देकर उत्साह का संचार कर पाएंगे।
आपने बैंकरों को उनके व्यावसायिक निर्णयों में पूरा साथ देने का निर्णय किया है और यह वाकई उत्साह बढ़ाने वाला है। मगर प्रश्न यह है कि व्यावसायिक निर्णय की परिभाषा का निर्धारण कैसे होगा? बैंकरों की गलतियां निकालना आसान है मगर हमें यह भी समझना चाहिए कि व्यावसायिक निर्णय किसी खास समय में उपलब्ध आंकड़ों एवं सूचनाओं के आधार पर लिए जाते हैं। क्या हमारी जांच एजेंसियों में बैंकरों के व्यावसायिक निर्णयों की व्याख्या करने की पूरी क्षमता मौजूद है?
ऋण आवंटन संबंधी निर्णय गलत साबित होने की स्थिति में इनकी समीक्षा की प्रक्रिया निर्धारित करने के लिए उच्च-स्तरीय कार्य बल का गठन का प्रस्ताव कैसा रहेगा? उच्चतम न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश इसके अध्यक्ष हो सकते हैं और साख मूल्यांकन में विशेषज्ञता रखने वाले सेवानिवृत्त बैंकर और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) एवं वित्त मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी इसके सदस्य हो सकते हैं। या फिर आप सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को जांच एजेंसियों की जद से मुक्त रखने पर विचार कर सकते हैं। जो गलतियां करें उन्हें जरूर सजा मिलनी चाहिए मगर हमें यह भी समझना चाहिए कि कभी-कभी वाजिब एवं उपयुक्त व्यावसायिक निर्णय भी गलत साबित हो सकता है। आप बैंकिंग उद्योग को प्रभावित करने वाले कुछ दूसरे महत्त्वपूर्ण विषयों पर भी विचार कर सकते हैं। इनमें बैंक के निदेशकमंडल की गुणवत्ता, मुख्य कार्याधिकारियों का कार्यकाल और उनके वेतन भत्ते से जुड़े विषय विचारणीय हो सकते हैं। आपकी सरकार ने बैंकों की हालत सुधारने के लिए कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं। अब सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में सुधार का कार्य शेष रह गया है। अपने फरवरी में कहा था कि सरकार को कारोबार में हस्तक्षेप करने के बजाय उसे बढ़ावा देने का माध्यम बनना चाहिए। सरकार आने वाले समय में सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण कर सकती है। अगर आने वाले समय में सरकार कुछ ही बैंक अपने अधीन रखना चाहेगी तो मुझे पूरा विश्वास है कि आप उन्हें भी एक कारोबारी उद्यम की तरह परिचालन करते देखना पसंद करेंगे। कई संरचनात्मक मुद्दों के समाधान खोजे गए हैं और बस कुछ छोटे विषय शेष रह गए हैं।
आपका
तमाल बंद्योपाध्याय
