भारतीय अखबारों के कारोबार का प्रदर्शन अच्छा हो रहा है। दैनिक भास्कर और अन्य ब्रांडों की प्रकाशक कंपनी डी बी कॉर्प ने मार्च 2024 में समाप्त हुए वित्त वर्ष में 2,482 करोड़ रुपये के राजस्व पर 703 करोड़ रुपये का एबिटा (ब्याज, कर, मूल्यह्रास से पहले की कमाई) दर्ज किया। यह एक ऐसे कारोबार का 28 फीसदी सकल मार्जिन है जिसमें दुनिया के अधिकांश हिस्से में कमी आ रही है। डीबी कॉर्प की तरह ही अन्य अखबार प्रकाशकों के लिए भी पिछले कुछ साल अच्छे रहे हैं और इसकी वजह न्यूजप्रिंट की कम होती कीमतें और विज्ञापन की बढ़ती आमदनी है।
यह बात बिल्कुल हैरान कर देने वाली है। पिछला भारतीय पाठक सर्वेक्षण 2019 में किया गया था। अब पांच साल से पाठकों का कोई डेटा नहीं है। बेची जाने वाली प्रतियों या उसके प्रसार का डेटा अप्रासंगिक हो गया है क्योंकि प्रकाशक सर्वेक्षणों का सहारा लेते रहते हैं और यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे किस संस्करण के लिए या किस बाजार में अपने कारोबार को बढ़ाना चाहते हैं और कहां अपनी उपस्थिति कम करना चाहते हैं। अब सवाल यह है कि आखिर विज्ञापनदाता अपने विज्ञापन देने के लिए अखबारों का इस्तेमाल कैसे कर रहे हैं? यदि कोई मापदंड नहीं है तो वे किस आधार पर अखबारों में विज्ञापन देने के लिए खर्च कर रहे हैं? इस लेख का यही मुख्य बिंदु है।
जो अखबारों के लिए सच है वही थोड़े अलग मायने में टेलीविजन, डिजिटल, रेडियो और अन्य मीडिया के लिए भी सच है। तकरीबन 2.3 लाख करोड़ रुपये मूल्य वाले भारतीय मीडिया और मनोरंजन कारोबार में विज्ञापनदाता, मीडिया खरीदार और विश्लेषक हवा में तीर मारकर काम कर रहे हैं। वर्ष 2022 में ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क) को मीडिया के साथ कोई भी डेटा साझा करने से मना कर दिया गया था। इसके सबस्क्राइबर जैसे कि प्रसारणकर्ता, विज्ञापनदाता और मीडिया एजेंसियां डेटा हासिल करती हैं।
इसकी वेबसाइट पर भी कुछ आंकड़े उपलब्ध हैं लेकिन यदि आप विभिन्न क्षेत्रों, भाषाओं या श्रेणी के आधार पर रुझान का विश्लेषण करना चाहते हैं तब यह और कठिन हो जाता है। वर्ष 2023 में 69,600 करोड़ रुपये के राजस्व के साथ टेलीविजन ही मीडिया एवं मनोरंजन कारोबार का सबसे बड़ा हिस्सा दिखा। इसका विश्लेषण करने की आवश्यकता है। हममें से अधिकांश लोग अपनी जरूरत के मुताबिक अपने किसी दोस्ताना मीडिया एजेंसियों से आंकड़े हासिल करते हैं लेकिन यह इतने बड़े कारोबार का विश्लेषण करने का एक टिकाऊ तरीका नहीं है।
अगर आप सोचते हैं कि डिजिटल मीडिया सबसे अच्छा है तो इस पर दोबारा सोचिए। कई सालों से बार्क कोशिश कर रहा था कि विभिन्न मीडिया माध्यमों के तुलनात्मक अध्ययन के लिए एक ऐसा पैमाना बनाया जाए जिससे उदाहरण के तौर पर यह पता चल सके कि स्टार प्लस को कितने लोग टीवी पर और ऑनलाइन, डिज्नी+हॉटस्टार, यूट्यूब आदि पर देखते हैं। लेकिन ये कोशिश नाकाम रही क्योंकि इससे जुड़े विभिन्न पक्ष आपस में सहमति नहीं बना पाए।
वहीं दूसरी तरफ डिजिटल के लिए कॉमस्कोर, नीलसन, ऐप एनी, सिमिलर वेब और दूसरी कंपनियां हैं। लेकिन कई बड़े ऐप और वेबसाइट थर्ड-पार्टी की पैमाइश की अनुमति नहीं देते। अगर आप शीर्ष10 स्ट्रीमिंग ब्रांड की ऐसी सूची कोई पाना चाहे जिस पर सब सहमत हों और इसको लेकर कोई विरोध ना हो तो यह नामुमकिन है। विज्ञापन देने वाली कंपनियां अमूमन, गूगल (यूट्यूब) और मेटा (फेसबुक, व्हाट्सऐप और इंस्टाग्राम) के आंकड़े को मान लेती हैं। ऑनलाइन जिसे सबसे अधिक पारदर्शी माध्यम माना जाता है वह दरअसल आंकड़ों की एक अंधेरी सुरंग है।
यह दिलचस्प है कि अखबार पढ़ने वाले प्रत्येक हजार लोगों तक पहुंचने के लिए विज्ञापन देने वाली कंपनियां ऑनलाइन के मुकाबले छह गुना अधिक पैसे का भुगतान करती हैं। मीडिया एजेंसी लोडेस्टार यूएम के आंकड़े के मुताबिक टीवी पर वे डिजिटल की तुलना में चार गुना ज्यादा पैसे (जनवरी 2024 तक) का भुगतान करती हैं। बिना किसी उपयुक्त थर्ड-पार्टी के मापदंड के क्या डिजिटल, प्रिंट या टीवी के बराबर विज्ञापन दरें पा सकता है, भले ही उसकी पहुंच का दायरा या कमाई उनसे ज्यादा क्यों ना हो? हालांकि अभी प्रिंट के पास भले ही कोई पैमाना न हो लेकिन ज्यादातर खर्च पिछले आंकड़ों और उनके अनुमानों पर आधारित होता है।
अखबार के प्रकाशक, पाठकों की डेटा की कमी के बावजूद आशावादी हैं। उनका मानना है कि अगर गूगल या मेटा को अपने आंकड़ों को प्रमाणित करने या ऑडिट करने के लिए नहीं कहा जाता तब आखिर अखबार के प्रकाशकों के लिए ऐसा क्यों कहना चाहिए। इसके अलावा कई बड़े अखबारों जैसे कि मलयाला मनोरमा या दैनिक भास्कर जैसे कई बड़े अखबारों की विज्ञापन राजस्व का तीन-चौथाई हिस्सा उन शहरों और कस्बों के स्थानीय खुदरा कारोबारियों से मिलता है जहां अखबार की बिक्री होती है। रिटेलर इसलिए विज्ञापन देते हैं क्योंकि उन्हें उसी दिन विज्ञापन पर प्रतिक्रिया मिल जाती है। आमतौर पर शहर के दो शीर्ष अखबार ही सबसे बेहतर प्रतिक्रिया देते हैं।एक दशक से भी पहले, अखबारों के ज्यादातर विज्ञापन ‘राष्ट्रीय स्तर के विज्ञापनदाताओं’ से मिलते थे जो अपनी पहुंच पूरे देश में बनाना चाहते थे। कई मायनों में, आंकड़ों के मापदंड की कमी ने अखबारों को डिजिटल की तरह बना दिया है जिसमें प्रदर्शन पर ध्यान देने के साथ ही स्थानीय विज्ञापन के साधनों पर जोर दिया जाता है।
आंकड़ों की कमी, होम डिलिवरी और कम कीमत मिलकर यह सुनिश्चित करते हैं कि भारतीय अखबार एक बेहतर कारोबार बना रहे भले ही अमेरिकी बाजार दो दशक पहले के अपने कारोबार की तुलना में आधे से भी कम आकार का हो गया। इन आंकड़ों की कमी का टीवी पर ज्यादा असर पड़ा है। अगर बार्क का कोई मिश्रित पैमाना होता तब आपको अंदाजा मिलता है कि भारतीय दर्शक जो स्ट्रीमिंग पर देखते हैं उनमें से आधे से अधिक कैचअप टीवी यानी ऐसे प्रोग्राम होते हैं जो टीवी पर पहले प्रसारित हो चुके हैं और उन्हें ही दोबारा स्ट्रीमिंग माध्यमों के जरिये देखा जाता है। यह भी अंदाजा मिलता है कि मुख्यधारा की फिल्मों को स्ट्रीमिंग के दर्शक खूब देखते हैं। लेकिन ये पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं हो पा रही है जिससे टेलीविजन की कमाई के नुकसान को कुछ हद तक रोका जा सके।
परंपरागत तौर पर मीडिया को मापने के तरीके को भारत में गंभीरता से लिया गया है। अखबार कितने लोग पढ़ते हैं इसका सर्वेक्षण 1974 में शुरू हुआ। टीवी की रेटिंग की माप के लिए कि लोग क्या देख रहे हैं, उसके लिए डायरी में लिखने का तरीका 1983 में शुरू हुआ। इसके बाद 1991 में टैम के साथ ही इलेक्ट्रॉनिक रेटिंग की परंपरा शुरू हुई। इसका अर्थ यह था कि विज्ञापनदाता यह देख सकते थे कि किस माध्यम में अधिक वृद्धि हो रही है और वे इसमें निवेश कर सकते थे। जो प्रोग्राम बना रहे थे उन्हें भी पता चल जाता था कि क्या लोकप्रिय हो रहा है और क्या नहीं चल सकता है। अब यह सब काफी अस्पष्ट हो गया है। इसके अलावा एक और परेशानी यह है कि भारत की जनगणना 2011 के बाद नहीं हुई है। मीडिया शोध से जुड़े जितने भी आंकड़े दिखाए जाते हैं वे सभी 2011 के जनगणना के अनुमानों पर आधारित हैं। 2021 में कोरोना महामारी के कारण जनगणना नहीं हो पाई। इसलिए मीडिया में जो विज्ञापन खर्च हो रहा है वह अंधेरे में तीर चलाने जैसा ही है। शायद अखबारों के प्रकाशक भी सही हैं कि अगर बड़े मंच और विज्ञापनदाता डेटा की परवाह नहीं करते हैं तब आखिर प्रकाशकों को इसकी परवाह क्यों करनी चाहिए?