पिछले कुछ वर्षों के दौरान तकनीक-राष्ट्रवाद (टेक्नो-नैशनलिज्म) पर अच्छी खासी चर्चा हुई है। दुनिया के हरेक हिस्से में आर्थिक विश्लेषक, नीति निर्धारक और नीतिगत विषयों पर मंथन करने वाले संस्थान इस बात पर बहस कर रहे हैं कि आखिर मोटे तौर पर दुनिया और खास तौर पर उनके देशों के लिए तकनीक-राष्ट्रवाद के क्या मायने हैं।
तकनीक-राष्ट्रवाद और तकनीक-वैश्वीकरण की परिभाषा इस बात पर निर्भर कर सकती है कि इसका इस्तेमाल कौन कर रहा है। मोटे तौर पर कहें तो तकनीक-वैश्वीकरण के तहत सामाजिक समस्याओं के समाधान के वास्ते एक साझे मंच पर सभी देशों और लोगों को लाने के लिए आपस में तकनीक एवं नवाचार का आदान-प्रदान होता है। दूसरी तरफ तकनीक-राष्ट्रवाद का सहारा लेकर राष्ट्र कुछ विशिष्ट तकनीक में अपनी श्रेष्ठता का इस्तेमाल कर वैश्विक व्यवस्था में आगे बढ़ते हैं और दूसरे देशों पर वर्चस्व स्थापित करते हैं।
हालांकि इन दोनों में कोई भी शब्द वैश्विक स्तर पर मौजूदा हालात का सटीक विश्लेषण नहीं करता है। वास्तव में दुनिया तकनीक हासिल करने की होड़ में पुराने विकसित राष्ट्रों के गुटों के बीच वर्चस्व की लड़ाई में फंसी है। इसमें एक तरफ अमेरिका और दूसरी तरफ चीन एवं अन्य देश हैं। इस टकराव का मकसद नई तकनीकों-कृत्रिम मेधा, क्वांटम कंप्यूटिंग, रोबोटिक्स, मटीरियल साइंसेस, बायोटेक और इंटरनेट ऑफ थिंग्स सहित अन्य-पर प्रभुत्व स्थापित करना है। ये नई तकनीक भविष्य की दशा-दिशा तय करेगी। एक दशक पहले तक विकसित देश तकनीक के मोर्चे पर काफी अग्रणी समझे जाते थे और अन्य देश उनके पीछे आपस में सहयोगात्मक प्रतिस्पद्र्धा करते हुए आगे बढ़ते थे। कई खंडों में अमेरिका सबसे आगे था, यह अलग बात थी कि यूरोपीय संघ, ब्रिटेन, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देश भी कुछ खास क्षेत्रों में अपनी मजबूती रखते थे। तब चीन आर्थिक मोर्चे पर तेजी से प्रगति कर रहा था, लेकिन आधुनिक तकनीक के मामले में वह कम से कम पांच वर्ष पीछे समझा जाता था।
अब हालात बदल चुके हैं। ज्यादातर विश्लेषक चीन को कृत्रिम मेधा एवं डेटा एनालिटिक्स, जीन संवद्र्धन और यहां तक कि क्वांटम कंप्यूटिंग में अगर इन देशों से आगे नहीं तो कम से कम उनके बराबर जरूर समझ रहे हैं। हालांकि चीन जिस तरह से अपनी महत्त्वाकांक्षा का परिचय देता है और निजी कंपनियों के जरिये दोस्तों एवं प्रतिस्पद्र्धियों दोनों से चोरी-छुपे सूचनाएं एकत्र करता है वह पश्चिम देशों को परेशान करता है।
इन चिंताओं से एक दूसरे के खिलाफ प्रतिक्रियात्मक कदम उठाने की मुहिम शुरू हो गई है। अमेरिका और कई यूरोपीय देशों ने चीन की कंपनियों जैसे दूरसंचार उपकरण विनिर्माता हुआवे, वीडियो कैमरा बनाने वाली हाइकविजन और सोशल मीडिया कंपनी बाइटडांस को कुछ खास खंडों में कारोबार करने से रोक दिया है। पश्चिमी देशों की तकनीकी कंपनियों को चीन के साथ प्रमुख तकनीक साझा नहीं करने की सख्त हिदायत दी गई है। इसके जवाब में चीन भी उन खंडों में तकनीक का विकास जोर-शोर से कर रहा है, जहां यह पीछे चल रहा है। चिप निर्माण इनमें एक ऐसा ही खंड है।
ज्यादातर विकासशील एवं पिछड़े देश इनमें किसी भी खेमे में नहीं आते हैं। इसकी वजह यह है कि वे तकनीक का इस्तेमाल करने वाले हैं, न कि इनका विकास और इन पर शोध करते हैं। नई तकनीक अपनाने के मामले में पिछले कुछ दशकों के दौरान ज्यादातर देश पश्चिमी देशों पर निर्भर रहे, लेकिन अब उनके पास चीन की तरफ रुख करने का विकल्प मौजूद है। चीन इन देशों को मदद करने और अपने उत्पाद एवं अपनी सेवाएं सस्ते दामों पर देने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। इसके साथ ही इन देशों के लिए पसंदीदा तकनीक आपूर्तिकर्ता बनने के साथ ही उन्हें वित्तीय सहायता भी दे रहा है।
इस तरह, चौथी औद्योगिक क्रांति के मुहाने पर खड़ी दुनिया दो खेमों में बंटती जा रही है। इनमें एक खेमा उन देशों का है, जो नई तकनीक ईजाद कर रहे हैं। दूसरा खेमा उन देशों का है, जो नई तकनीक के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं।
इस खेल में आखिर भारत कहां खड़ा है? हाल तक यह पुराने विकसित देशों के साथ चीन से नई तकनीक ले रहा था। हाल में चीन के साथ तनाव बढऩे के बाद भारत अब आत्मनिर्भरता और तकनीक-राष्ट्रवाद पर जोर दे रहा है। भारत ने चीन के कई मोबाइल ऐप्लीकेशन पर भी पाबंदी लगा दी है और स्थानीय स्तर पर ही 5जी तकनीक का विकास करने की बात कह चुका है। इसी दौरान सरकार ने कृत्रिम मेधा और क्वांटम कंप्यूटिंग के लिए भी अपना दृष्टिकोण सार्वजनिक किया है। हालांकि इसमें थोड़ी देर लगेगी क्योंकि हुआवे, हाइकविजन और चीन की अन्य कंपनियों की भारत में बड़े पैमाने पर उपस्थिति है।
दरसअल मुद्दा यह है कि एक के बाद एक सरकारें दीर्घ अवधि के लक्ष्य के साथ एक स्पष्ट नीति वाली कार्य योजना समयसीमा एवं लक्ष्यों के साथ पेश करने में नाकाम रही हैं। पश्चिमी देशों में तकनीक विकास पर सरकारी विभाग (खासकर रक्षा में), निजी क्षेत्र और शोध करने वाले संस्थान एवं विश्वविद्यालय आपस में मिलकर काम करते हैं और निरंतर प्रगति करने के लिए एक दूसरे की उपलब्धियों का इस्तेमाल करते हैं।
चीन एक अलग ही ढांचे के साथ आगे बढ़ा। वहां सरकार ने संस्थानों और निजी कंपनियों दोनों जगहों पर तकनीक पर शोध की दशा-दिशा काफी हद तक तय की है। स्वतंत्रता के बाद भारत ने सोवियत संघ (यूएसएसआर) का ढांचा अपनाया था और सरकारी विभागों को शोध एवं तकनीक विकास पर ध्यान देने के लिए कहा था। हालांकि इससे भारत को कुछ क्षेत्रों में खास किस्म की उपलब्धि हासिल करने में मदद जरूरी मिली, लेकिन पूरी दुनिया में तकनीक विकास के क्षेत्र में तेजी से हो रहे बदलाव के साथ चलने में विशेष मदद नहीं मिल पाई। 1970 और 1980 के बीच अर्थव्यवस्था जरूरत से अधिक बंद रहने से भारत तकनीक के इस्तेमाल के मामले में पिछड़ गया।
1991 में आर्थिक सुधार शुरू होने के साथ सरकारों ने तकनीक विकास से अधिक आर्थिक समस्याओं पर ध्यान दिया। निजी क्षेत्र भी तकनीक स्वयं विकसित करने के बजाय इसे बाहर से मंगाने में व्यस्त था। हालांकि इस दौरान कुछ कंपनियों ने नए इस्तेमाल करने एवं उत्पादों के लिए नवाचार का इस्तेमाल जरूर किया। ऐसा नहीं है कि भारत आवश्यकता पडऩे पर अत्याधुनिक तकनीक विकसित नहीं कर सकता है। कुछ तकनीक तक पहुंच नहीं होने के बाद भारत ने संसाधन एवं विशेषज्ञता हासिल कर क्रायोजेनिक इंजन, नाभिकीय तकनीक और सुपर कंप्यूटर विकसित किए। हालांकि जहां तकनीक तक इसकी पहुंच आसानी से हो गई, वहां इसने दूसरे देशों के साथ प्रतिस्पद्र्धा करने में खास दिलचस्पी नहीं दिखाई।
अगर भारत तकनीक के लिए दूसरे देशों पर निर्भर रहने वाले देशों की फेहरिस्त से निकलना चाहता है तो अपना नजरिया बदलना होगा। केवल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) अधिक रहने से वैश्विक तकनीक के मंच पर इसे जगह नहीं मिलेगी।
(लेखक बिज़नेस टुडे और बिज़नेसवर्ल्ड के पूर्व संपादक और संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजैइकव्यू के संस्थापक एवं संपादक हैं।)
