अधीर रंजन चौधरी द्वारा लोक सभा में अपनी टिप्पणियों के लिए माफी मांगे जाने के बाद सदन से उनका निलंबन समाप्त कर दिया गया है। चूंकि उक्त टिप्पणियों को सदन की कार्यवाही से हटा दिया गया है इसलिए हम उन्हें दोबारा यहां नहीं लिख सकते हैं। असल बात यह है कि हम एक बार फिर लोकसभा में चौधरी की टूटीफूटी हिंदी में उनके भाषण सुन पाएंगे।
बात तो यह भी है कि चौधरी को 2019 में नेता प्रतिपक्ष और लोकसभा में कांग्रेस का नेता उनके वाक् कौशल के लिए नहीं बनाया गया था। सोनिया गांधी पश्चिम बंगाल के बेहरामपुर से सांसद चौधरी को बहुत पसंद करती हैं। वह उन्हें ‘लड़ाका’ कहती हैं जो कि वह हैं। ममता बनर्जी और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) दोनों के खिलाफ उन्होंने अथक लड़ाई लड़ी है।
दोनों ही उन्हें निशाना बनाते हैं, हालांकि दोनों की शैली एकदम अलग-अलग है। बनर्जी ने बतौर मुख्यमंत्री अपनी स्थिति का इस्तेमाल करके मुर्शिदाबाद और माल्दा जैसे चौधरी के प्रभाव वाले इलाकों में उनके कुछ करीबियों को आपराधिक मामलों में उलझा दिया है। कई ने इसी आशंका की वजह से तृणमूल कांग्रेस की सदस्यता ले ली। संसद में भाजपा उनके साथ खेलती है और गांधी परिवार द्वारा उनके साथ किए गए अन्याय की बात करती है।
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हाल ही में अविश्वास प्रस्ताव की बहस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चौधरी के भाषणों का उदाहरण देते हुए कहा था कि ‘गुड़ का गोबर कैसे किया जाता है कोई इनसे सीखे।’ भाजपा ने मजाक उड़ाते हुए विपक्ष के नेता को अपने कोटे का समय देने की पेशकश की ताकि वह भाषण दे सकें।
अतीत में गृहमंत्री अमित शाह ने चौधरी को खुद अपने ही जाल में उलझ जाने दिया था जब अनुच्छेद 370 पर चल रही बहस में नेता प्रतिपक्ष कश्मीर और संयुक्त राष्ट्र की भूमिका को लेकर पूरी तरह राह भटक गए थे। उनके भाषण के वीडियो फुटेज दिखाते हैं कि सोनिया गांधी मुड़कर उन्हें चुप रहने का इशारा कर रही हैं जिसकी उन्होंने अनदेखी कर दी। ऐसा मोटे तौर पर इसलिए हुआ कि चौधरी अपनी खराब हिंदी में भी बात कहने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
चौधरी को राजनीति विरासत में नहीं मिली है और उन्होंने अपने बलबूते पर यह मुकाम बनाया है। वह बंगाल के ऐसे इलाके से आते हैं जहां मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। उनके क्षेत्र के मतदाताओं में औसतन 51 फीसदी मुस्लिम हैं। माल्दा-मुर्शिदाबाद-उत्तर दिनाजपुर क्षेत्र दशकों तक कांग्रेस का गढ़ रहा है।
पूर्व रेल मंत्री अब्दुल गनी खान चौधरी इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। अंतर केवल यह है कि अधीर रंजन चौधरी एक मुस्लिम बहुल इलाके से चुनाव जीतने वाले हिंदू नेता हैं। वह लगातार पांच बार से लोकसभा सदस्य हैं। यह बात लोकसभा में वरिष्ठता की सूची में उन्हें ऊपर लाती है हालांकि पार्टी में शशि थरूर और मनीष तिवारी जैसे अच्छे वक्ता मौजूद हैं।
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चौधरी ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत राजीव गांधी के दौर में की थी। उन्होंने अपना दूसरा चुनाव 1996 में नवग्राम विधानसभा क्षेत्र से फरारी के दौरान जीता क्योंकि वह हत्या के आरोप में वांछित थे। उनके समर्थकों ने पूरे निर्वाचन क्षेत्र में उनके भाषण कैसेट रिकॉर्डर के माध्यम से बजाए। बाद में वह हत्या के अन्य आरोपों में जेल भी गए।
जेल में रहते हुए उन्होंने द स्टेट्समैन समाचार पत्र का सबस्क्रिप्शन लिया और बांग्ला से अंग्रेजी का शब्दकोष मंगाकर अंग्रेजी सीखी। बाद में उन्होंने संयुक्त राष्ट्र के एक कार्यक्रम में भाषण दिया और संवाददाताओं के समक्ष याद किया कि उन्होंने भाषा कैसे सीखी। राजनीति में धन की आवश्यकता होती है और उन्होंने वैसे ही धन जुटाया जैसे कि उन दिनों अन्य लोग जुटाते थे यानी सरकारी ठेकेदार बनकर।
उनकी राजनीति रॉबिनहुड शैली की राजनीति थी जो वाम उग्रपंथ से निकली थी। वास्तव में उसी ने उन्हें राजनीति में शामिल होने की प्रेरणा भी दी थी लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने उसे त्याग दिया। महिलाओं का शोषण करने की कोशिश करने वाले युवकों को सार्वजनिक रूप से घसीटा जाता, कुछ मातापिता जो अपनी बेटियों का विवाह करने में असमर्थ रहते, चौधरी उनकी आर्थिक मदद करते।
उन्होंने खेल, दुर्गा पूजा पंडाल, सामुदायिक पुस्तकालय आदि सभी की आर्थिक मदद की और बंगाल की राजनीति में अपनी जगह बनाई। उनकी शैली डराने और भय उत्पन्न करने की थी जो जल्दी ही ठंडी नाराजगी में बदल जाती। उसके बाद अगर आप उनके इलाके में बहने वाली भागीरथी नदी में गायब हो जाते तो इसके लिए आपके सिवा कोई जिम्मेदार न होता। वह आधा दर्जन मामलों में शामिल थे जिनमें हत्या और हत्या के प्रयास के मामले शामिल थे। वह ज्यादातर मामलों में बरी हो गए।
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परंतु अब यह बंगाल टाइगर अपनी धार खो रहा है। उनके जीतने का अंतर लगातार कम होता जा रहा है। सोमेन मित्रा के निधन के बाद उन्हें बंगाल प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया था। परंतु आने वाले महीनों में उन्हें इस जिम्मेदारी से मुक्त किया जा सकता है क्योंकि इंडिया गठबंधन के लिए उनका इस पद पर होना असहज स्थिति बनाता है। कारण यह कि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस कभी भी गठबंधन में शामिल नहीं हो सकते हैं। भाजपा उन्हें बनर्जी के खिलाफ उपयोगी मानती है इसलिए वह कभी उन्हें अपने पाले में लेने की कोशिश नहीं करेगी। उसके लिए वे बाहर ही अधिक उपयोगी हैं।
2022 में तत्कालीन विधायक और राज्य के मंत्री रहे सुब्रत दास के निधन के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने 50 वर्ष में पहली बार सागरदीघी विधानसभा सीट जीती। यह पूरी तरह चौधरी के प्रयासों की बदौलत हुआ। यह विधानसभा सीट उनके प्रभाव वाले क्षेत्र में आती है। उन्होंने तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ जमकर चुनाव प्रचार किया।
दो महीने के भीतर इस सीट से चुनाव जीतने वाले पहले कांग्रेसी बायरन विश्वास तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए। उनकी चाहें जो भी गलतियां और कमियां हों लेकिन चौधरी ने कभी पार्टी के साथ वफादारी को लेकर हिचकिचाहट नहीं दिखाई। परंतु अब शायद उनकी पार्टी को ही उनसे आस छोड़नी पड़े।