विश्व स्तर पर निवेशक समुदाय का मिजाज निराशाजनक हो चुका है। इस बीच विश्व अर्थव्यवस्था को लेकर भी कोई सकारात्मक पूर्वानुमान नहीं जताए जा रहे। अमेरिकी अर्थव्यवस्था को लेकर खासतौर पर संदेह के बादल दोबारा मंडराने लगे हैं। अमेरिका के तमाम दक्षिणी राज्यों में कोविड-19 के रिकॉर्ड नए मामले देखने को मिल रहे हैं। जबकि ठीक इसी समय चीन के साथ उसके रिश्तों का तनाव भी उभार पर है। ऐसे में अनुमान यही है कि वृद्धि दर कमजोर बनी रहेगी या कम से कम निकट भविष्य में हालात अनिश्चित बने रहेंगे।
अमेरिका और चीन की कारोबारी जंग अब कई अन्य क्षेत्रों में फैल चुकी है। इसी सप्ताह सैन फ्रांसिस्को में एक कथित चीनी जासूस को गिरफ्तार किया गया और ह्यूस्टन में चीनी वाणिज्य दूतावास को बंद किए जाने की प्रतिक्रिया स्वरूप चीन के चेंगदू में अमेरिकी वाणिज्य दूतावास को बंद कर दिया गया। संभव है कि अमेरिकी कांग्रेस अगले पखवाड़े किसी वक्त एक और प्रोत्साहन पैकेज की योजना पेश करे। परंतु बाजार, जो पहले ही असाधारण राजकोषीय और मौद्रिक पैकेज के कारण तेजी पर हैं, वे बुरी खबरों पर भी सतर्क नजर बनाए रखेंगे।
प्रोत्साहन पैकेज और बढ़ती अनिश्चितता का तात्कालिक असर सोने की कीमतों में देखा जा सकता है। वैश्विक स्तर पर और भारत में भी सोना 2011 के बाद के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है। अनिश्चितता के वक्त में इस कीमती धातु में निवेश तथा संभावित मुद्रास्फीति से बचाव के रूप में इसका इस्तेमाल आम है। फिलहाल ये दोनों कारक काम करते दिख रहे हैं। विश्व स्तर पर सोने की कीमतें इस वर्ष 25 फीसदी तक बढ़ी हैं जबकि इसकी तमाम प्रतिस्पर्धी परिसंपत्तियों की स्थिति ठीक नहीं रही है। जाहिर है संकट के समय सुरक्षित निवेश की इसकी छवि मजबूत हुई है। इसके अलावा विकसित देशों के केंद्रीय बैंक और सरकारें जिस तरह बिना सोचे-समझे राजकोषीय और मौद्रिक पैकेज जारी कर रहे हैं उनके असर को लेकर भी जायज सवाल पूछे जा रहे हैं। कुल मिलाकर यह मानने की पर्याप्त वजह है कि इनसे मुद्रास्फीति संबंधी दबाव बनेगा। नियमित मंदी के उलट फिलहाल इन दबावों से निपटने के लिए ज्यादा अतिरिक्त क्षमता मौजूद नहीं है। ऐसे में मुद्रास्फीति पहले सोने जैसे परिसंपत्ति वर्ग में दिख सकती है। यही कारण है कि कारोबारी अनुमान पर कीमतें बढ़ा रहे हैं।
भारतीय नीति निर्माताओं को इस क्षण की भंगुरता का पूरा अंदाजा होना चाहिए। ईंधन कीमतें जहां एक तय दायरे में बनी हुई हैं, वहीं घरेलू मांग इतनी कम रही है कि चालू खाता अधिशेष की स्थिति नहीं बन सकी। कीमती धातुओं की भारी कीमत कभी भी भारत के बाहरी खाते के लिए अच्छी खबर नहीं रही।
इस बीच भारत को प्रतिफल की तलाश में आने वाली पूंजी के लिए तैयार रहना चाहिए जो रुपये के प्रबंधन और संचालन ढांचे दोनों पर दबाव उत्पन्न करेगी। विकासशील देशों के केंद्रीय बैंकों ने जो व्यापक मौद्रिक विस्तार किया है, कुछ अनुमानों के मुताबिक उसके चलते समेकित बॉन्ड प्रतिफल रिकॉर्ड स्तर तक गिर चुका है। वैश्विक बॉन्ड बाजार के 60 फीसदी का प्रतिफल एक फीसदी से भी कम है। भारत को इसे अवसर और चेतावनी दोनों रूप में देखना चाहिए। पूंजी का इस्तेमाल उत्पादक परिसंपत्ति निर्माण में किया जा सकता है। परंतु इसे ऐसे क्षेत्रों में निर्देशित किया जाना चाहिए जहां यह सामाजिक और निजी प्रतिफल का उपयुक्त मिश्रण मुहैया कराए। इसे पूरी तरह शेयर और परिसंपत्ति कीमतों को बढ़ावा देने में नहीं व्यय कर देना चाहिए। सरकार को दिन रात काम करके आकर्षक वित्तीय योजनाएं पेश करनी चाहिए जो प्रतिफल की चाह में आ रही इस पूंजी का देश में नई योजनाओं और निर्माण में निवेश सुनिश्चित कर सकें।
