वर्ल्ड हेल्थ डे (World Health Day) यानी 7 अप्रैल का दिन इस बात की याद दिलाता है कि हमें अपनी सेहत और उससे जुड़ी सुरक्षा को गंभीरता से लेना चाहिए। ऐसे में अगर आपकी हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी पुरानी है और उसका कवरेज बहुत कम है, तो इसे बेहतर प्लान में पोर्ट कर लेना समझदारी होगी।
आज भी कई लोग ₹2–3 लाख के हेल्थ इंश्योरेंस प्लान से काम चला रहे हैं, जो 10 साल पहले लिया गया था। लेकिन अब मेडिकल खर्च हर साल करीब 14–15% की दर से बढ़ रहा है। ऐसे में ये राशि अब काफी नहीं मानी जा सकती।ManipalCigna Health Insurance के हेड ऑफ प्रोडक्ट्स एंड ऑपरेशंस आशीष यादव के मुताबिक, “2.5 से 3 दिन के हॉस्पिटल में भर्ती होने का औसत खर्च ₹1.5–1.75 लाख तक पहुंच गया है। मेट्रो शहरों में ये खर्च और भी ज्यादा है।”
Policybazaar के हेल्थ इंश्योरेंस हेड सिद्धार्थ सिंघल कहते हैं, “कैंसर, किडनी ट्रांसप्लांट या लंग ट्रांसप्लांट जैसे गंभीर इलाज में ₹20–30 लाख या उससे ज्यादा खर्च आ सकता है।” अगर किसी फैमिली फ्लोटर पॉलिसी में से किसी एक सदस्य का पूरा कवरेज खर्च हो जाए, तो बाकी परिवार खतरे में पड़ सकता है।
सिंघल सलाह देते हैं कि कम से कम ₹10 लाख का बेस पॉलिसी और ₹90 लाख का सुपर टॉप-अप प्लान एक साथ लेना चाहिए, चाहे व्यक्ति अकेला हो या परिवार के तीन सदस्य हों। हालांकि दो अलग-अलग पॉलिसियों से क्लेम प्रोसेस थोड़ी जटिल हो सकती है, इसलिए दोनों प्लान एक ही बीमा कंपनी से लेना बेहतर होगा।
यादव का कहना है कि पॉलिसी में न सिर्फ कवरेज ज्यादा होना चाहिए, बल्कि उसमें इंफ्लेशन को कवर करने के लिए नो-क्लेम बोनस जैसी सुविधा भी होनी चाहिए।
हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसी लेते समय अक्सर लोग सब-लिमिट की शर्तों को नजरअंदाज कर देते हैं। लेकिन ये शर्तें क्लेम के समय बड़ा असर डाल सकती हैं।
सिर्फ रूम रेंट ही नहीं, डॉक्टर की फीस और इलाज के बाकी खर्च भी उसी रूम रेंट लिमिट से जुड़े होते हैं। यानी अगर आपने तय सीमा से महंगे रूम का चुनाव किया, तो बाकी खर्चों में भी कटौती होगी।
इसके अलावा, कुछ पॉलिसियों में मोतियाबिंद (cataract), हर्निया, नी रिप्लेसमेंट जैसे खास इलाजों पर भी सब-लिमिट होती है।
को-पेमेंट में पॉलिसीधारक को हर क्लेम का एक तय प्रतिशत खुद चुकाना होता है। जैसे, अगर को-पेमेंट 20% है और अस्पताल का बिल ₹1 लाख आया, तो ₹20,000 आपको देने होंगे।
डिडक्टिबल में एक निश्चित रकम तक का खर्च बीमाधारक को ही उठाना पड़ता है। उसके बाद का भुगतान बीमा कंपनी करती है।
एक्सपर्ट्स की सलाह है कि अगर आप प्रीमियम दे सकते हैं तो को-पेमेंट और डिडक्टिबल से बचें। लेकिन अगर आप सीनियर सिटिजन हैं और प्रीमियम कम रखना चाहते हैं, तो उतना डिडक्टिबल चुनें जितना आप आराम से वहन कर सकें।
अगर आप हेल्थ इंश्योरेंस खरीदने की सोच रहे हैं, तो क्लेम सेटलमेंट रिकॉर्ड और वेटिंग पीरियड जैसे पॉइंट्स को नजरअंदाज न करें। एक्सपर्ट्स का कहना है कि पॉलिसी चुनते समय इन बातों की जांच ज़रूर करनी चाहिए।
SecureNow के को-फाउंडर कपिल मेहता कहते हैं कि ऐसे इंश्योरर को चुनना बेहतर होता है जिनका क्लेम सेटलमेंट रेशियो 90 फीसदी से ज्यादा हो। भले ही यह डेटा रिटेल या ग्रुप पॉलिसी के हिसाब से अलग-अलग न हो, फिर भी यह इंश्योरेंस कंपनी की परफॉर्मेंस समझने का अहम पैरामीटर है।
इसके अलावा, मेहता सलाह देते हैं कि इंश्योरेंस रेगुलेटर द्वारा जारी की गई शिकायतों से जुड़ी रिपोर्ट भी देखें। इंडस्ट्री बॉडी जैसे कि Insurance Broking Association से भी आपको कंपनियों की साख और सर्विस को लेकर अहम जानकारी मिल सकती है।
अब इंश्योरेंस रेगुलेटर ने प्री-एक्सिस्टिंग डिज़ीज़ (PEDs) के लिए वेटिंग पीरियड की सीमा अधिकतम तीन साल तय की है। अगर आप थोड़ा ज्यादा प्रीमियम देने को तैयार हैं, तो कुछ पॉलिसी ऐसी भी मिलती हैं जो पहले दिन से ही PED कवर देती हैं।
इसके अलावा, मोतियाबिंद (cataract) और हर्निया जैसी कुछ बीमारियों के लिए वेटिंग पीरियड अब दो साल से ज्यादा नहीं हो सकता। कुछ पॉलिसी तो ऐसी भी हैं जिनमें इन बीमारियों पर वेटिंग पीरियड लागू ही नहीं होता।
आजकल कई मेडिकल सर्जरी जैसे लैप्रोस्कोपिक प्रक्रिया, मोतियाबिंद ऑपरेशन और टॉन्सिल हटवाना जैसी सर्जरी में 24 घंटे अस्पताल में भर्ती होने की जरूरत नहीं होती। इन्हें ‘डे-केयर प्रक्रिया’ कहा जाता है और ज़्यादातर हेल्थ इंश्योरेंस पॉलिसियों में ये कवर होती हैं।
इंश्योरेंस समाधान की सह-संस्थापक शिल्पा अरोड़ा कहती हैं, “ऐसी सर्जरी आम तौर पर डे-केयर कैटेगरी में आती हैं और अधिकतर पॉलिसियों में शामिल होती हैं।”
बीमा विशेषज्ञ मेहता के मुताबिक, सभी बीमा कंपनियों को रेगुलेटर द्वारा तय की गई ऐसी सर्जरी की लिस्ट कवर करनी होती है। लेकिन पॉलिसी में कुछ आधुनिक इलाजों पर लिमिट हो सकती है, इसलिए शर्तें ध्यान से पढ़नी चाहिए।
अगर आपकी सम इंश्योर्ड राशि एक साल में खत्म हो जाती है, तो रिस्टोर बेनिफिट के ज़रिए वह राशि दोबारा ऑटोमैटिकली मिल सकती है। अरोड़ा के अनुसार, “यह फायदा खास तौर पर उन लोगों के लिए जरूरी है जिन्हें बार-बार इलाज की जरूरत होती है या जिन्हें क्रॉनिक बीमारियां हैं।”
हालांकि, इसके साथ कुछ शर्तें जुड़ी होती हैं। मेहता बताते हैं कि कई बार बीमा कंपनियां सम इंश्योर्ड तो रिस्टोर कर देती हैं, लेकिन वह उसी बीमारी के लिए दोबारा इस्तेमाल नहीं की जा सकती, जिसके लिए पहले की बार हुई थी।
कैशलेस इलाज की सुविधा के लिए बीमा कंपनी की वेबसाइट या ऐप पर जाकर नेटवर्क अस्पतालों की लिस्ट समय-समय पर चेक करते रहना चाहिए, क्योंकि ये लिस्ट बदल सकती है।
अपनी मौजूदा पॉलिसी को ध्यान से पढ़ें और देखें कि उसमें क्या फायदे छूट रहे हैं या क्या-क्या एक्सक्लूजन हैं। अगर जरूरत हो, तो कोई अतिरिक्त राइडर जोड़ें या फिर उसी कंपनी की बेहतर पॉलिसी में शिफ्ट करें। बीमा सलाहकार यादव कहते हैं, “ये इस बात पर निर्भर करता है कि कंपनी की अंडरराइटिंग पॉलिसी क्या है।” अगर उसी कंपनी में शिफ्ट करना मुमकिन न हो, तो किसी दूसरी बीमा कंपनी की बेहतर पॉलिसी में पोर्ट करने का विकल्प भी है।