मार्केट रेगुलेटर सेबी (SEBI) ने छोटे निवेशकों के लिए पूंजी बाजार (capital markets) में हिस्सा लेना आसान और सस्ता बनाने के लिए बेसिक सर्विसेज डिमैट अकाउंट (BSDA) के नियमों की दोबारा समीक्षा करने का प्रस्ताव दिया है। इस हफ्ते जारी कंसल्टेशन पेपर में दिए गए प्रस्तावों का उद्देश्य वित्तीय समावेशन (financial inclusion) बढ़ाना और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस को बेहतर बनाना है।
BSDA एक कम-खर्च वाला डिमैट अकाउंट है, जिसे 2012 में उन निवेशकों की लागत कम करने के लिए शुरू किया गया था जिनका पोर्टफोलियो छोटा होता है। सेबी के नए कंसल्टेशन पेपर के अनुसार, मौजूदा पात्रता मानदंड कभी-कभी ऐसे निवेशकों को बाहर कर देते हैं जिनकी होल्डिंग्स की वास्तविक बाजार कीमत नहीं बन पाती।
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समाचार एजेंसी पीटीआई की रिपोर्ट के अनुसार, सेबी ने तीन मुख्य क्षेत्रों की पहचान की है, जहां बदलाव की जरूरत है:
जीरो-कूपन, जीरो-प्रिंसिपल (ZCZP) बॉन्ड ऐसे बॉन्ड होते हैं जो न तो ट्रेड होते हैं, न ट्रांसफर होते हैं, और न ही कोई रिटर्न देते हैं। ये बॉन्ड असल में निवेश से ज्यादा सामाजिक योगदान जैसे होते हैं।
BSDA की एलिजिबिलिटी यह देखकर तय होती है कि निवेशक का पोर्टफोलियो कितना कीमत का है। अगर ZCZP बॉन्ड को भी वैल्यू में जोड़ दिया जाए, तो पोर्टफोलियो की कीमत बेकार ही बढ़ सकती है, जबकि असल में उसकी कोई मार्केट वैल्यू नहीं होती। इससे निवेशक BSDA पाने से वंचित हो सकते हैं।
इसलिए सेबी का सुझाव है कि BSDA की पोर्टफोलियो वैल्यू तय करते समय ZCZP बॉन्ड को गिनती में नहीं लेना चाहिए।
डीलिस्टेड शेयरों में लिक्विडिटी नहीं होती और उनकी असली कीमत का सही अंदाजा लगाना मुश्किल होता है। सस्पेंडेड शेयरों की तरह, इनकी भी कोई वास्तविक बाजार कीमत नहीं बन पाती।
इसलिए सेबी ने सुझाव दिया है कि BSDA की वैल्यू तय करते समय डीलिस्टेड शेयरों को गिनती में शामिल न किया जाए, ताकि वैल्यूएशन ज्यादा न्यायसंगत और एकसमान हो सके।
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कुछ शेयर बाजार में लिस्टेड तो रहते हैं, लेकिन उनमें बहुत कम ट्रेडिंग होती है। फिर भी, तकनीकी रूप से इन्हें खास तरीकों से ट्रेड किया जा सकता है।
सेबी ने सुझाव दिया है कि BSDA की एलिजिबिलिटी तय करते समय ऐसे शेयरों के
लिए उनका आखिरी क्लोजिंग प्राइस इस्तेमाल किया जाए।
डिपॉजिटरी पार्टिसिपेंट्स (DPs) पर काम का बोझ कम करने के लिए सेबी चाहती है कि मौजूदा निवेशकों की BSDA एलिजिबिलिटी हर तीन महीने में सिस्टम द्वारा स्वतः जांची जाए।
सेबी ने यह भी प्रस्ताव दिया है कि निवेशक (beneficial owners) अपनी सहमति सिर्फ रजिस्टर्ड ईमेल से ही नहीं, बल्कि कई सुरक्षित डिजिटल तरीकों से भी दे सकें।
सेबी का मानना है कि इन बदलावों से सभी डिपॉजिटरी पार्टिसिपेंट्स के बीच एकरूपता बनी रहेगी और प्रशासनिक दिक्कतें कम होंगी।
PTI के अनुसार, सेबी ने इन प्रस्तावों पर जनता से 15 दिसंबर तक सुझाव मांगे हैं। अगर ये बदलाव लागू हो जाते हैं, तो नया फ्रेमवर्क छोटे निवेशकों को कम लागत वाली डिमैटसेवाओं का लाभ लेने में मदद कर सकता है, और उन्हें ऐसे निवेश रखने पर कोई अतिरिक्त फीस नहीं देना पड़ेगा जिनकी नकद कीमत नहीं होती।
(पीटीआई इनपुट के साथ)