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नकदी निकासी कर को वापस लेने का क्या औचित्य!

Last Updated- December 11, 2022 | 12:11 AM IST

केंद्रीय गृह मंत्री एवं पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने हाल ही में एक संवाददाता सम्मेलन में यह जोर देकर कहा था कि स्विस बैंक खातों में छिपा कर रखे गए धन का पता लगाने में उनकी सरकार ने अमेरिका और ब्रिटेन की सरकारों की तुलना में काफी अधिक काम किया है।
उन्होंने विपक्ष के नेता के इस आरोप को गलत बताया कि सरकार काले धन को लेकर नरम रवैया अपना रही है। हालांकि सरकार ने बैंकों से नकदी निकाले जाने पर लागू कर को हाल में ही समाप्त कर दिया है।
इसी सरकार ने अपने शुरुआती दिनों में नकदी आधारित लेन-देन को कम करने की कोशिश में यह कर लगाया था। इस नए कानून के तहत एक तय सीमा के बाद नकदी की निकासी पर कर लागू था। लोकसभा चुनावों की घोषणा के साथ ही चुनावी सौदेबाजी के लिए रास्ता  तैयार करने के लिए सरकार ने 1 अप्रैल, 2009 से यह कर समाप्त कर दिया है।
नकदी निकासी पर कर की चुपचाप समाप्ति इसी रणनीति का एक हिस्सा है। राजनीतिक नाटकबाजी से देश में ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि देश में बनने वाली सरकार सबसे ज्यादा पार्टियों वाली गठबंधन सरकारों में से एक होगी जिसकी एकमात्र विचारधारा सत्ता में लंबे समय तक भागीदारी पाना होगी।
भारतीय टेलीविजन मीडिया के जबरदस्त कवरेज और बढ़ती ‘स्टिंग ऑपरेशन’ की क्षमता को देखते हुए भी राजनीतिज्ञ चुनाव अभियानों के दौरान रुपये बांटते बड़ी प्रसन्नता से कैमरे पर देखे गए हैं। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि के उत्तराधिकारी एम. के. स्टालिन को वीडियो फुटेज में बच्चों के हाथों में रुपये रखते हुए स्पष्ट दिखाया गया।
यह ज्यादा समय पहले की बात नहीं है जब अखबारों, समाचार वेबसाइटों और पूरी दुनिया के टेलीविजन चैनलों पर भारतीय संसद के सदस्यों को दिखाया गया। भारत-अमेरिका परमाणु समझौते को लेकर विश्वास मत में क्रॉस-वोटिंग के प्रलोभन में वीडियो फुटेज में इन सांसदों को नोटों के बंडल सौंपते हुए दिखाया गया था।
इन आरोपों का खंडन कर दिया गया और सरकार बच गई थी। इसी बीच वह टेलीविजन चैनल भी, जो इस स्टिंग ऑपरेशन का हिस्सा बना था, निर्णायक सबूत के अभाव की बात कह कर इस मामले से पीछे हट गया। टेलीविजन चैनल स्मार्ट था। यदि उसने फुटेज दिखाने का जोखिम उठाया होता तो उसका भी  निमेश कंपानी जैसा हश्र होता।
कंपनी एक ‘शक्तिशाली’ अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त भारतीय निवेश बैंकर हैं। कंपानी ने उस कंपनी में अपना पैसा लगाया है जो तेलुगू समाचार पत्र इनाडू और कई भाषाओं में टेलीविजन चैनल चलाती है। आंध्र प्रदेश सरकार और केंद्र ने इनाडू से नाखुशी जाहिर करने के लिए वैश्विक प्राइवेट इक्विटी कंपनी के निवेश प्रस्ताव को मंजूरी नहीं दी।
विदेशी निवेशक के लिए विदेशी निवेश संवर्ध्दन बोर्ड से मंजूरी अनिवार्य थी। अंतत: प्रस्तावित आकार के सौदों की तुलना में बेहद छोटे आकार के सौदों के लिए ही मंजूरी दी गई। भारतीय होने के नाते कंपानी को सरकार से कोई मंजूरी लेने की जरूरत नहीं है और उन्होंने पूरी दिलेरी से निवेश को अंजाम दिया।
इसके तुरंत बाद आंध्र प्रदेश सरकार ने नागार्जुन फाइनैंस के जमाकर्ताओं से संबद्ध मामले में गंभीरता दिखाई। एक गैर-बैंकिंग फाइनैंस कंपनी नागार्जुन फाइनैंस ने जमा के पुनर्भुगतान में डिफॉल्ट किया। इसे लेकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कंपानी, जो इस कंपनी के गैर-कार्यकारी निदेशक थे, को भी जमा के भुगतान में डिफॉल्ट के लिए एक जिम्मेदार व्यक्ति के तौर पर निशाना बनाया गया।
हालांकि उन्होंने डिफॉल्ट मामले से काफी पहले ही कंपनी छोड़ दी थी। कंपानी की तलाश शुरू हो गई और उनकी गिरफ्तारी कर ली गई। आंध्र प्रदेश में अदालती प्रणाली के हर कोण से उन्हें जमानत दिए जाने से इनकार कर दिया गया। हालांकि इस डिफॉल्टर कंपनी के प्रमोटरों को जमानत मिल गई। हाल में ही सर्वोच्च न्यायालय ने आंध्र प्रदेश में इस कार्यवाही पर निर्णायक रूप से रोक लगा दी।
शायद इस निर्णायक मोड़ पर अगर नकदी निकासी पर लगे कर को समाप्त किए जाने के मामले को अदालत में चुनौती दी जाए तो इस फैसले पर रोक लगाई जा सकती है। यह पूरी तरह अस्पष्ट है कि क्या चुनावों के दौरान सरकार का यह कदम चुनाव आयोग  की आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है। सरकार ने मनी लाउंडरिंग की रोकथाम के घोषित उद्देश्य के साथ यह कदम खुलेआम उठाया है।
(लेखक जेएसए, एडवोकेट्स ऐंड सॉलिसिटर्स के पार्टनर हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी विचार हैं।)

First Published - April 13, 2009 | 3:08 PM IST

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