उपायुक्त (अपील) या ट्रिब्यूनल या न्यायालय के पास जो रिमांड का अधिकार होता है, उसका इस्तेमाल कर वह उस निचली अथॉरिटी को किसी मामले को फिर से भेज सकता है, जिस पर उस निचली अथॉरिटी ने फैसला सुना दिया हो।
इस तरह की स्थिति इसलिए बनती है, क्योंकि उपायुक्त या ट्रिब्यूनल या न्यायालय ऐसा महसूस करते हैं कि मामले की शुरुआती अपील में कुछ बातों पर गौर नहीं किया जाता है। इस तरह की स्थिति में अपीली प्राधिकरण मामले पर फिर से विचार कर सकता है और यहां तक कि उस पर अपना अंतिम निर्णय भी दे सकता है।
लेकिन प्राय: ऐसा संभव नहीं होता है क्योंकि कभी कभी इन बड़े स्तरों पर भी ऐसे मामले की सही तरीके से छानबीन नहीं हो पाती, जिसमें ज्यादा विस्तृत जानकारियों का पुलिंदा होता है या जिसमें अधिक छानबीन की दरकार होती है या जिसमें लेखा-जोखा की ज्यादा संदर्भ पुस्तकों को टटोलने की बात होती है। इसलिए ट्रिब्यूनल या न्यायालय को जो रिमांड की शक्ति मिली हुई है, वह बहुत बडा मुद्दा नहीं है और किसी मामले में वे इसका सही तरीके से इस्तेमाल भी नहीं कर पाते हैं।
हालांकि उपायुक्त (अपील) ने दुर्भाग्यवश बहुत सारे मामलों को संबद्ध प्राधिकार को रिमांड के जरिये वापस भेजने का काम किया है और इसमें यह दिखाने की कोशिश की जाती है कि मामले को आसानी से हल किया जा रहा है। वर्ष 1980 में सीमा शुल्क कानून के तहत धारा 128 ए (3) में विशेष तौर पर रिमांड की शक्ति को जगह दी गई थी। इसके लागू होने के 21 सालों के बाद ही रिमांड के जरिये मामले को वापस किए जाने की संख्या में काफी बढोतरी हो गई।
इसलिए 2001 में सीमा शुल्क की धारा 128ए (3) और उत्पाद शुल्क की धारा 35ए (3) में कुछ संशोधन किए गए और रिमांड से जुड़े कुछ विशेष उपबंधों को हटा दिया गया। इस संशोधित धारा में उपायुक्त (अपील) को रिमांड के बदले पहले आश्वस्त होने, फिर उसमें सुधार करने और बाद में उसे खत्म करने संबंधी अधिकार प्रदान किए गए। हालांकि न्यायालय और ट्रिब्यूनल इन संशोधन में आए शब्दों और अधिकारों की व्याख्या अलग तरीके से करने लगे।
13 फरवरी 1997 को सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय संघ और उमेश धाइमोडे (मैनुएससी14631997) के मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया था। इस निर्णय में कहा गया था कि उपायुक्त (अपील) को रिमांड की शक्ति प्राप्त है। हालांकि यह बात 2001 के संशोधन से पहले कही गई थी। आज भी सीसीई अहमदाबाद बनाम मेडिको लैब्स (मैनुजीजे06352004) के एक मामले में गुजरात उच्च न्यायालय का निर्णय सुनाया था कि उपायुक्त (अपील) को रिमांड की शक्ति है। वैसे इसके विरोध में भी एक उच्च न्यायालय का निर्णय सामने आया।
पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने सीसीई जालंधर बनाम बी सी कटारिया (मैनुपीएच03122007) के मामले में यह आदेश सुनाया था कि अगर एक बार इस बात की घोषणा हो जाती है कि रिमांड के तहत किसी प्रकार के विशेष अधिकार नहीं रहे, तो उपायुक्त को भी इस संबंध में किसी प्रकार के अधिकार नहीं मिल सकते हैं। यह निर्णय ऊपर दिए गए दो निर्णयों से बिल्कुल अलग थे, हालांकि संशोधन के मुताबिक यह निर्णय सही प्रतीत हो रहा था।
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस मामले में विधायिका की आवश्यक झुकाव के प्रति संबोधन के मामले में रिमांड के संबंध में दिए गए विशिष्ट अधिकारों को खत्म करने की वकालत की। न्यायालय ने आगे यह अवलोकन किया कि सर्वोच्च न्यायालय ने रिमांड को लेकर जो पूर्ववर्ती निर्णय सुनाए हैं, वह संशोधन से पहले के हैं। संशोधन के बाद तो रिमांड संबंधी विशिष्ट अधिकारों को खत्म करने की बात कही गई थी। रोचक बात यह है कि जब दो न्यायालय किसी एक मुद्दे पर अलग-अलग निर्णय सुनाती है।