पुणे ट्रिब्यूनल ने एक महत्त्वपूर्ण फैसले में व्यवस्था दी है कि प्रवासी विदेशी कंपनियों को कर संधि के तहत गैर-भेदभावकारी उपबंध के तहत किसी प्रकार की राहत नहीं दी जा सकती, बशर्ते कि कर के भेदभाव को लेकर किया गया दावा अतार्किक और निराधार नहीं हो।
कर संधि में गैर-भेदभावकारी उपबंध मॉडल कर संधि की धारा 24 में यह उल्लिखित है कि प्रवासी करदाताओं को स्रोत देश में कराधान में भेदभाव से राहत दी जाएगी। इस तरह की राहत के पीछे मुख्य उद्देश्य यह है कि राष्ट्रीय या विदेशी को स्रोत देश के आधार पर कराधान के मामले में किसी प्रकार के दोहरे मानदंड का सामना न करना पड़े।
खासकर उस स्थिति में जब दशाएं दोनों के लिए बराबर हो। व्याख्या के तौर पर अगर अमेरिका की किसी कंपनी की एक शाखा भारत में क्रियाशील है, तो यह मामला कतई नहीं बनता है कि उसे किसी प्रकार से कराधान में कम सुविधा मुहैया कराई जाए। अगर स्थितियां बराबर हों, तो चाहे वह कंपनी भारतीय हो या विदेशी, कर में राहत दोनों के लिए समान होनी चाहिए।
हालांकि अनुच्छेद 24 में राहत को लेकर कुछ सीमाओं का भी जिक्र किया गया है। इसमें कहा गया है कि गैर-भेदभावकारी उपबंध किसी भी तरह से इस तरह की राहत नहीं देता है, जिसमें यह बाध्यकारी हो कि प्रवासी को उसके सामाजिक अस्तित्व या पारिवारिक जिम्मेदारी आदि के आधार पर किसी प्रकार की राहत मुहैया कराई जाए, जो किसी देश के नागरिक को मुहैया कराई जाती है। इस प्रकार गैर-भेदभावकारी कर राहत में कुछ शर्तें हैं, जो इस संधि के तहत वर्णित किए गए हैं।
मामले की वास्तविकता
अमेरिका की एक कंपनी अपनी शाखा के जरिये अपने कंप्यूटर सॉफ्टवेयर का निर्यात व्यापार करती है। कई वर्षों के बाद कंपनी यह दावा करती है कि सॉफ्टवेयर के निर्यात से जो लाभ हो रहा है, उसके आधार पर उसे कटौती की सुविधा मिलनी चाहिए।
जब इसकी जांच की गई, तो जांचकर्ता अधिकारी ने इस तरह की कटौती से इनकार कर दिया और यह कहा कि इस तरह की कटौती सिर्फ भारतीय कंपनियों को ही मिल सकती है। उन्होंने घरेलू भारतीय कर कानून के हवाले से यह बात कही। भारतीय कानून की धारा 80 एचएचई के तहत इस प्रकार की छूट भारतीय कंपनियों को ही दी जा सकती है।
दिलचस्प बात तो यह है कि उस कंपनी ने कटौती का अपना दावा वापस ले लिया, जब इसकी जांच की जा रही थी। दरअसल यह कदम कंपनी ने तब उठाया जब कर काउंसेलर ने उसे कानूनी राय के तहत ऐसा करने को कहा।
आयुक्त के पास जब अपील की गई, तो उससे पहले जांचकर्ता ने अपील (सीआईटी (ए)) में यह दावा किया कि कटौती के दावे को अगर मान लिया जाता है, तो यह अमेरिका-भारत कर संधि का उल्लंघन होगा। सीआईटी (ए) ने इस तरह के दावे को खारिज कर दिया और कहा गया कि इसे लागू नहीं करने की वजह यह रही कि कंपनी ने खुद ही अपना हाथ इस दावे से खींच लिया।
सीआईटी (ए) ने यह तर्क दिया कि इस तरह की कटौती सिर्फ भारतीय कंपनियों को उसके स्थानीय अस्तित्व के कारण मिलता है और इससे किसी प्रकार के भेदभाव का मामला नहीं बनता है। सीआईटी (ए) ने एडवांस अथॉरिटी रूलिंग का हवाला देते हुए कहा कि फ्रांस-भारत कर संधि के मुताबिक अगर भारतीय कंपनी की तुलना में विदेशी कंपनी से ज्यादा कर लिया जाता है, तो यह किसी भी प्रकार से भेदभाव का मामला नहीं बनता है।
ट्रिब्यूनल आदेश
ट्रिब्यूनल ने यह आदेश दिया कि इस तरह के भेदभाव को दूर करने के लिए न केवल करदाता को कर प्रणाली में व्याप्त भेदभाव को स्पष्ट करना चाहिए बल्कि उसे यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि किस आधार पर इस तरह का भेदभाव किया जा रहा है।
ओईसीडी कमेंटरी में योग्यता के संदर्भ में जो बात की गई है, उसके आधार पर ट्रिब्यूनल ने यह व्यवस्था दी कि अमेरिकी मॉडल कन्वेंशन में इस तरह की तकनीकी व्याख्या मौजूद है। इसके बाद ट्रिब्यूनल ने यह पाया कि अमेरिकी मॉडल कन्वेंशन में जिन तकनीकी व्याख्याओं का जिक्र किया गया है, उसके आधार पर असमानता की जांच कर पाना कठिन है।
चाहे वह अमेरिकी कंपनी हो या भारतीय कंपनी, इसके आधार पर यह स्पष्ट करना कि किस तरह की असमानता या भेदभाव हो रहा है, कह पाना मुश्किल है।
निर्यात पर कर छूट
ट्रिब्यूनल ने यह स्पष्ट कर दिया है कि किसी प्रकार की कर राहत के लिए करदाता की आवासीय स्थिति स्पष्ट रुप से आवश्यक है। कानून में भी इस बात को स्पष्ट कर दिया गया है कि भारतीय कंपनी के अलावा किसी भी विदेशी कंपनी को इस तरह की सुविधा उपलब्ध नहीं कराई जाएगी।
ट्रिब्यूनल ने यह पाया कि विदेशी कंपनियों को इस तरह के मुआवजा देने के पीछे यह तर्क दिया जा रहा है कि इससे देश को ज्यादा से ज्यादा विदेशी कमाई होगी और भारत का विदेशी संग्रह भी बढ़ेगा। यह भी सही है कि स्थानीय करदाता जितना कर अदा करते हैं, अगर छूट देकर भी इसकी तुलना विदेशी कर से की जाए, तो वह कम होगी।
इसलिए ऐसा माना जाता है कि इस आधार पर असमानता और भेदभाव कायम रखने की पारंपरिक कोशिश की जाती है। इसी के आधार पर अगर अमेरिकी कंपनी के मामले को प्रथम दृष्टया देखा जाए, तो मामला सही प्रतीत होता है।
महत्त्वपूर्ण सिद्धांत
भारतीय कर संधियों में गैर-विभेदकारी उपबंधों की विशिष्ट व्याख्या की गई है, जिसमें खर्च में कटौती, कर की अलग अलग दर, विशेष सीमा के बाहर कर आदि की स्पष्ट व्याख्या की गई है। मेरी राय में छोटी अथॉरिटी का कर की दर के संबंध में एडवांस अथॉरिटी रूलिंग की तरफ जरूरत से ज्यादा झुकाव सही नहीं है।
अगर निवासी और अप्रवासी के मुद्दे पर भेदभाव की सीमा को विस्तारित किया जाए, तो यह सही नहीं है। बहुत सारे देशों में गैर भेदभावकारी उपबंध को घरेलू कानून से बाहर करके देखा जाता है। अगर ऐसा न हो तो घरेलू कानून की कोई अहमियत ही नहीं रह जाएगी।
मैं ये मानता हूं कि ट्रिब्यूनल ने गैर-भेदभावकारी कानून के संबंध में एक सही उदाहरण पेश किया है। इस प्रकार जिस प्रकार का मुआवजा या रियायत स्थानीय को दिया जाता है, वह किसी भी सूरत में प्रवासी को नहीं मिलना चाहिए। यह एक ऐसा सिद्धांत है, जिसके जरिये विदेशी कंपनियों को यह कहने से रोका जा सकता है कि उसके साथ भेदभाव हो रहा है।
(लेखक बीएमआर ऐंड एसोसिएट्स में एक पार्टनर हैं। यहां दिए गए विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)