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आरटीआई को बना पाएंगे सार्थक !

Last Updated- December 14, 2022 | 10:00 PM IST

भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) के अधिकारियों को लेकर आमतौर पर यही धारणा होती है कि वे बुद्धिजीवी होते हैं जो विदेश में खूबसूरत जगहों पर रहते हैं, वहां देश के हितों की रक्षा करते हैं और उन पर काम का बोझ ज्यादा नहीं होता है। लेकिन इनका एक दूसरा पक्ष भी है। इन अधिकारियों को प्रशासनिक प्रणाली को सुव्यवस्थित करने के साथ-साथ आमतौर पर उन लोगों के लिए भी काम करना होता है जो स्वदेश से दूर हैं और उन्हें अपनी जड़ों से जुड़े रहने के लिए दूतावास/उच्चायोग के संपर्क सूत्र का इस्तेमाल करना होता है। हालांकि भारतीय राजनयिक तभी सफल हो सकते हैं जब वे बड़ी सहजता के साथ दूसरे काम करने के लिए भी तैयार हो सकते हैं।
मिसाल के तौर पर भारतीय विदेश सेवा के 1981 बैच के यशवद्र्धन  सिन्हा को ही ले लीजिए जिनकी विदेश सेवा में आखिरी नौकरी लंदन में भारत के उच्चायुक्त की थी। उन्हें महज एक साल और दस महीने तक सूचना आयुक्त रहने के बाद मुख्य सूचना आयुक्त (सीआईसी) नियुक्त किया गया है। श्रीलंका में भारत के उच्चायुक्त के तौर पर सिन्हा ने विस्थापितों के लिए मकान-निर्माण की प्रक्रिया की देखरेख की थी। भारत ने श्रीलंका के उत्तरी, पूर्वी और मध्य प्रांतों में विस्थापितों के लिए 15,000 मकानों का निर्माण किया और इसे इसके लिए विश्व पुरस्कार के लिए नामित भी किया गया था। सिन्हा ने देश की आपराधिक न्याय प्रणाली का मार्गदर्शन भी किया जब चार भारतीय मछुआरों को कथित तौर पर ड्रग्स की तस्करी के लिए मौत की सजा सुनाई गई थी लेकिन उन्हें रिहा कर घर वापस भेज दिया गया, हालांकि उनके खिलाफ  लगे आरोप नहीं हटाए गए। सिन्हा ने श्रीलंका में 2015 में राष्ट्रीय एम्बुलेंस सेवा की शुरुआत करने में मदद भी की थी और कोविड-19 संक्रमण के दौरान कई लोगों की जान बचाने में यह सेवा सार्थक साबित हुई।
वह जब संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में तैनात थे तब उन्हें भी अन्य भारतीय राजदूतों की तरह प्रवासी कामगारों की आजीविका और अधिकार सुनिश्चित करने के लिए वहां की व्यवस्था से संघर्ष करना पड़ा। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान (पीएआई) डिवीजन में संयुक्त सचिव के रूप में वह भारत में पाकिस्तानी कैदियों और पाकिस्तानी जेलों में भारतीय कैदियों के साथ होने वाले बरताव की निगरानी नियमित रूप से करते थे। ये सब ऐसी सामान्य घरेलू चिंताएं हैं जिनसे सभी राजनयिकों को निपटना होता है। सिन्हा सूचना आयुक्त बनने वाले दूसरे विदेश सेवा अधिकारी हैं। शरत सभरवाल विदेश सेवा के पहले ऐसे अधिकारी थे।
सूचना के अधिकार से जुड़े कार्यकर्ताओं का मानना है कि इस कानून को पिछले साल जुलाई में संसद द्वारा पारित सूचना के अधिकार कानून में संशोधन के जरिये कमजोर कर दिया गया।  सरकार अब सूचना आयुक्तों के  वेतन, भत्तों और सेवा की अन्य शर्तों को नियंत्रित करती है। विपक्षी दलों का तर्क था कि सरकार को आरटीआई अधिकारियों के रोजगार और उनके वेतनमान पर फैसला लेने के लिए अधिकृत करना सूचना आयुक्तों की स्वायत्तता में कटौती का एक तरीका था। सूचना के जनअधिकार के लिए राष्ट्रीय अभियान (एनसीपीआरआई) जैसे संगठनों का कहना है कि आरटीआई आयुक्तों की स्वतंत्रता को कम करना स्थायी समिति की इस सिफारिश के खिलाफ  जाता है कि उन्हें वास्तव में चुनाव आयुक्तों की तरह का दर्जा दिया जाना चाहिए।
सिन्हा को सूचना आयुक्त के तौर पर उन्हें दिल्ली का प्रभार दिया गया था उनके आदेश भी उनके काम के तरीके की तस्दीक करते हैं। दिल्ली अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड (डीएसएसएसबी) भर्ती के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित करता है पर उम्मीदवारों को उत्तर पुस्तिका देखने की इजाजत नहीं देता है। एक उम्मीदवार ने असफल होने पर आरटीआई आवेदन देकर उत्तर पुस्तिका देखने की मांग की थी। बोर्ड ने कोई जानकारी नहीं दी। जब सिन्हा ने संपर्क किया तो डीएसएसएसबी ने कहा कि अभ्यर्थियों को उत्तर पुस्तिका की कॉपी देने से परीक्षक की पहचान उजागर होगी। यह पूरा पत्राचार सूचना आयोग की वेबसाइट पर है। सिन्हा ने आदेश दिया कि परीक्षकों के नाम रिकॉर्ड किए जाएं और आवेदक को सूचना दी जाए। यह मामूली पर अहम  जीत थी जो उन नियमों के खिलाफ  है जिसका कोई मतलब नहीं है।
मुख्य सूचना आयुक्त के रूप में अब सिन्हा को उस लड़ाई को लडऩा होगा जिसने आरटीआई को लगातार कमजोर किया है और अब इसे गंभीरता से नहीं लिया जाता है। सूचना आयुक्तों के पद न सिर्फ  केंद्र में बल्कि राज्यों में भी वर्षों से खाली पड़े हैं। अगर वह इस भावना के साथ पूरे तंत्र में बदलाव ला सकते हैं कि आरटीआई एक मौका है बल्कि खतरा नहीं है तो इससे महत्त्वपूर्ण जीत मिल सकती है।

First Published - November 2, 2020 | 12:06 AM IST

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