इन दिनों पैसों की मूसलाधार बरसात से भीग रहे बड़े-बड़े क्रिकेट खिलाड़ियों को ताकत देने वाले मेरठ और जालंधर जैसे छोटे शहरों में अजब ही खेल चल रहा है।
बड़ी मछलियों के छोटी मछलियों को निगलने जैसे इस खेल में यहां के खेल निर्माण उद्योग की पिच से छोटे खिलाड़ियों को जबरन आउट किया जा रहा है।ये ही वे दो शहर हैं, जिनका भारत से निर्यात होने वाले खेल सामानों के कुल 75 से 80 फीसदी हिस्से पर कब्जा है। और इसमें भी मेरठ की तो बात ही कुछ अलग है।
यहां के बल्लों की अपनी अलग पहचान है। ये मेरठी बल्लों का ही जादू है, जिसने देश के लगभग सभी क्रिकेट खिलाड़ियों को एक बार तो मेरठ आने पर मजबूर कर दिया है।लेकिन अब इस उद्योग में भी क्रीमी लेयर बन चुकी है। और यही क्रीमी लेयर इस उद्योग की तरक्की की राह में रोड़े अटका रही है। हालत यह है कि मेरठ से 2007-08 के दौरान कुल 100 करोड़ रुपये के क्रिकेट सामान निर्यात लगभग 35 करोड़ रुपये का निर्यात महज तीन कंपनियों द्वारा ही किया गया था।
जबकि लघु उद्योग मानी जाने वाली खेल निर्माण इकाइयां मेरठ में इस वक्त कुल 23 हैं। फिलहाल इनमें से महज 15 इकाइयां ही चालू हैं। इसी तरह आसपास के गांवों में भी लगभग 1000 छोटी -छोटी इकाइयां हैं। इतनी छोटी इकाइयों के यहां होने के बावजूद अंतरराष्ट्रीय बाजार में धाक महज चार-पांच कंपनियों की है। छोटे इकाइयों के मालिक आरोप लगाते हैं कि ये चार-पांच कंपनियां अपने रुतबे का फायदा उठाकर शहर के छोटे निर्यातकों की राह में रोड़े अटका देती हैं।
इसी तरह शहर में 5-6 बड़े निर्यातक हैं जबकि ज्यादातर छोटे निर्यातक हैं। लेकिन ये छोटे निर्यातक भी अपने उत्पादों को विदेशों में दूसरी कंपनियों को बेच देते हैं। इसके बाद ये विदेशी कंपनियां इन्हीं उत्पादों पर अपना नाम चस्पां करके और महंगे दामों पर बेच देती हैं। एक निर्यातक ने बताया कि जितने भी बड़े निर्यात ऑर्डर आते हैं , छोटी कंपनियों को उनकी भनक तक नहीं लगती और सभी ऑर्डर बड़ी निर्यात कंपनियों को चले जाते हैं।
छोटे निर्यातकों के विरोध के कारण हाल ही में एक बड़ा करार रद्द किया गया है। इस करार के लिए दोबारा से बोली लगाई जाएगी और इसके लिए छोटे निर्यातकों को भी आमंत्रित किया जाएगा।गौर करने वाली बात यह है कि इस खेल में बतौर अंपायर सरकार की भूमिका पर भी उंगलियां उठ रही हैं।
सरकारी संस्था खेल सामान निर्यात संवर्धन परिषद की नीतियों पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कुछ साल पहले तक परिषद एक्सीलेंस अवार्ड के लिए उन निर्यातकों को भी सूचीबद्ध करती थी, जिनका निर्यात 1 करोड़ रुपये से ज्यादा का होता था। लेकिन परिषद ने अब यह सीमा बढ़ाकर 2.5 करोड़ रुपये कर दी है। नए निर्यातकों के लिए यह आंकड़ा छूना भी काफी मुश्किल होता है। ऐसी ही कुछ और नीतियों के कारण परिषद पर पक्षपात के आरोप भी लग रहे हैं।
सरकार से खफा आर.डी. महाजन एंड संस के मुख्य कार्यकारी नितिन महाजन ने बताया कि एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल नए निर्यातकों की जरा भी मदद नहीं करती है। इस कारण उन्हें अंतरराष्ट्रीय पहचान नहीं मिल पाती है। उन्होंने बताया कि उनकी कंपनी के बल्लों की मांग इंगलैंड काउंटी क्रिकेट में बहुत ज्यादा होती है।
हालांकि बड़े निर्यातक प्रमोशन काउंसिल का समर्थन करते हैं। बी.डी.महाजन एंड संस के पीटर जोसफ ने बताया कि संस्था भारतीय कंपनियों को बढ़ावा देने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बायर्स-सेलर्स मीट कराती है, वित्तीय सहायता भी देती है। इस क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ ही नामी गिरामी कंपनियां होने की बात पर उन्होंने कहा कि इस स्तर पर क्वॉलिटी ही पैमाना होती है।
बड़ी मछली का शिकार बनतीं छोटी मछलियां
मेरठ की बड़ी खेल निर्माता कंपनियां छीन रहीं छोटों के मुंह से निवाला
भारत से निर्यात होने वाले खेल सामानों के तकरीबन 75 फीसदी हिस्से पर मेरठ-जालंधर का कब्जा
इंगलैंड काउंटी समेत दुनियाभर में है मेरठ के बल्ले की धूम
मेरठ के गांवों में करीब 1000 इकाइयों में होता है बल्ले बनाने का काम