मध्य प्रदेश: 28 सीट
भाजपा बढ़त पर, लेकिन कांग्रेस की बड़ी चुनौती
मार्च 2020 में कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के 22 वर्तमान विधायकों ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का दामन थाम लिया जिससे 15 महीने पुरानी सरकार अल्पमत में आ गई थी। जब ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी छोड़ी तब उनके साथ तीन और विधायक चले गए और उन्होंने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। इसके अलावा वर्तमान विधायकों के निधन के बाद तीन सीट खाली हो गईं।
कमलनाथ की सरकार शुरुआत से ही अनिश्चितता की चुनौती से जूझ रही थी, अन्यथा संभवत: दलबदल जैसी स्थिति होती ही नहीं। 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 114 सीट जीतीं जो 230 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत से दो कम हैं, वहीं भाजपा को 109 सीट पर जीत मिली। लेकिन कांग्रेस चार निर्दलीय, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के दो विधायकों और समाजवादी पार्टी (सपा) के एक विधायक के समर्थन से सरकार बनाने में सफल रही। सिंधिया को समर्थन करने वाले 22 विधायकों और बाद में तीन अन्य विधायकों के सरकार से अलग होने के बाद कांग्रेस की ताकत घटकर 88 विधायकों तक सिमट गई।
हालांकि इसका मतलब यह नहीं था कि भाजपा स्वत: तरीके से सुरक्षित हो गई। मौजूदा 107 विधायकों के साथ भाजपा को विधानसभा में बहुमत में आने के लिए और शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री बने रहने के लिए इन सीटों में से कम से कम नौ जीतनी होगी। वहीं दूसरी ओर, कांग्रेस अगर राज्य में सत्ता में वापसी करना चाहती है तो उसे सभी 28 सीट जीतने की जरूरत है या कम से कम 21 सीट तो जीतना बेहद जरूरी है तभी उसे बसपा, सपा और निर्दलीय विधायकों से समर्थन लेने के लिए बातचीत का मौका मिल जाएगा। मध्य प्रदेश के नतीजे सिंधिया और कमलनाथ दोनों की ताकत और कमजोरी दर्शाएंगे। ग्वालियर-चंबल क्षेत्र, जहां 28 में से 16 सीट हैं उसे सिंधिया और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह दोनों का ही गढ़ माना जाता है।
ग्वालियर-मुरैना क्षेत्र से संबंध रखने वाले केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की ताकत का भी अंदाजा इस चुनाव नतीजे से मिलेगा। ज्यादातर विश्लेषकों का मानना है कि चुनाव के परिणाम से चौहान सरकार को कोई खतरा नहीं है बल्कि इससे उनकी
सरकार को मजबूती ही मिलेगी। लेकिन अगर सिंधिया मामूली नतीजे दे पाते हैं या तोमर भी कुछ खास प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं तो उनकी स्थिति कमजोर हो सकती है।
गुजरात : 8 सीट
मतदाताओं के मिजाज का मिलेगा अंदाजा?
राज्यसभा चुनाव से पहले जून में कांग्रेस विधायकों के इस्तीफे की वजह से कई सीट खाली हो गईं। इसके तुरंत बाद भाजपा ने सी आर पाटिल को नया पार्टी प्रमुख नियुक्त किया। हालांकि चुनाव के नतीजों का सत्ता में आसीन विजय रुपाणी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार की स्थिरता पर कोई असर नहीं पड़ेगा लेकिन पाटिल की ताकत को जरूर परखा जाएगा। गुजरात की 182 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा की 103 सीटें हैं जबकि कांग्रेस के पास महज 65 सीट हैं और यह भाजपा को किसी भी तरह की चुनौती देने की स्थिति में नहीं है। 2017 में कांग्रेस ने गुजरात में सबसे बेहतर प्रदर्शन किया और इसने 77 सीट जीत लीं। इस चुनाव में कांग्रेस, सभी आठ सीट जीतकर दल बदलने वाले लोगों को दंडित करने का लक्ष्य लेकर चल रही है। हालांकि ऐसा कहना आसान है, पर होना मुश्किल। आठ में से पांच ऐसे उम्मीदवार हैं जिन्होंने अपनी पार्टी छोड़ दी और भाजपा ने उन्हें अपने प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतारा है। सवाल यह है कि मतदाता ऐसे दल-बदलुओं के साथ कैसा व्यवहार करेंगे। क्या भाजपा पार्टी का ढांचा जो कल तक इन पांचों विधायकों के खिलाफ काम कर रहा था अब उनके लिए पूरे जोश के साथ काम कर पाएगा? हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा इस उपचुनाव को काफी गंभीरता से ले रही है। चुनाव से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दो दिवसीय गुजरात यात्रा सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती (31 अक्टूबर) के दौरान हुई जब उन्होंने ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ का दौरा भी किया। यह कोई संयोग नहीं है कि यह दौरा उपचुनाव से कुछ दिन पहले ही हुआ। कुछ हफ्ते पहले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी छह महीने में अपनी पहली गुजरात यात्रा की थी। इन आठ सीट पर कच्छ, मोरबी में अब्दासा, अमरेली जिला में धारी, बोटाड जिला में गढाड, वडोदरा में कर्जन, डांग, वलसाड जिले में कपराडा और सुरेंद्रनगर में लिंबडी हैं। अब तक रुपाणी को कुछ नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। शाह और मोदी दोनों गुजरात के हैं और दोनों को अपने पक्ष में रखना एक कठिन काम हो सकता है। अबतक उनके नेतृत्व को कोई खतरा नहीं है। मगर वह 100 फीसदी जीत सुनिश्चित नहीं करते तब उनकी प्रतिष्ठा में सेंध लगेगी।
उत्तर प्रदेश: 7 सीट
बचाव में माहिर हैं योगी आदित्यनाथ
भाजपा के लिए चुनौती सिर्फ सात सीट जीतने की नहीं है बल्कि राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्रतिष्ठा का बचाव करना भी है जिनकी आलोचना ठाकुरों के पक्ष में जातिगत पूर्वग्रह के लिए पार्टी और बाहर दोनों जगहों में होती है। जिन सात सीटों पर चुनाव हुए इनमें से छह सीटों पर भाजपा ने भारी मतों से जीत हासिल की थी। इनमें से ज्यादातर सीटों पर पार्टी 10 साल से ज्यादा समय से जीत नहीं पा रही थी। यह चुनाव उम्मीदवारों को लेकर नहीं बल्कि राज्य सरकार की नीतियों खासकर कानून व्यवस्था को लेकर ज्यादा है।
चुनाव हारने से सरकार की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा जिसके पास विधानसभा की 403 सीटों में से 312 सीटें हैं। लेकिन सीटों के नुकसान का असर मुख्यमंत्री की प्रतिष्ठा पर जरूर पड़ेगा। राज्य में जातिगत अपराधों की तादाद बढ़ी है और हाल में हाथरस की घटना सबसे ज्यादा सुर्खियों में रही।