तीन कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर एक साल से भी ज्यादा समय से चल रहा किसान आंदोलन खत्म होने जा रहा है। किसान संगठनों ने 11 दिसंबर से देश में सभी जगह प्रदर्शन बंद करने का ऐलान किया है। विवाद की जड़ रहे तीनों कृषि कानून पहले ही खत्म किए जा चुके हैं। संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) ने सभी बिंदुओं पर सरकार से चि_ी मिलने और न्यूनतम समर्थन मूल्य की मौजूदा व्यवस्था जारी रखने के भरोसे के बाद ही प्रदर्शन समाप्त करने की घोषणा की।
एसकेएम के नेताओं ने आज संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा कि देश के सभी प्रदर्शन स्थलों से किसान 11 दिसंबर से हटना शुरू कर देंगे। प्रदर्शन स्थल पर मौजूद लोगों ने बताया कि किसानों ने तंबू हटाने शुरू कर दिए हैं और सिंघू, टिकरी तथा गाजीपुर बॉर्डर से वे लौटने लगे हैं। बड़ी सामुदायिक रसोई भी हटाई जा रही हैं। बहरहाल एसकेएम के प्रमुख नेता और भाकियू (राजेवाल) के अध्यक्ष बलबीर सिंह राजेवाल ने कहा कि आंदोलन खत्म नहीं किया जा रहा है बल्कि केवल ‘स्थगित’ किया जा रहा है यानी रोका जा रहा है। उन्होंने कहा, ‘सरकार के वादों की समीक्षा के लिए 15 जनवरी को एसकेएम के नेताओं की बैठक होगी। वे हर महीने बैठक कर सरकार के वादों की प्रगति पर नजर रखेंगे।’ कृषि सचिव संजय अग्रवाल के हस्ताक्षर वाले पत्र में किसानों द्वारा उठाए गए सभी मुद्दों पर सहमति जताई गई है। पत्र में कहा गया है कि एमएसपी की प्रस्तावित समिति में एसकेएम के नेताओं को शामिल करने पर सरकार राजी हो गई है। इसके अलावा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा में प्रदर्शनकारी किसानों पर दायर सभी मुकदमे भी तत्काल वापस ले लिए जाएंगे। इसके अलावा पत्र में कहा गया है कि उत्तर प्रदेश और हरियाणा सरकार ने आंदोलन के दौरान जान गंवाने वाले किसानों को पंजाब की तर्ज पर मुआवजा देने के लिए सैद्घांतिक सहमति दे दी है। साथ ही एसकेएम नेताओं से मशविरे के बाद बिजली अधिनियम के मसौदे में संशोधन होगा और पराली जलाने को अपराध के दायरे से बाहर किया जाएगा।
साल भर से चल रहे किसान आंदोलन को समाप्त करने की बुनियाद तभी रख गई थी, जब 19 नवंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानून वापस लेने का ऐलान किया था। मोदी ने अपने संबोधन में एमएसपी को प्रभावी बनाने के लिए केंद्र, राज्य, कृषि विशेषज्ञों और किसान संगठनों के प्रतिनिधियों वाली एक समिति गठित करने की भी घोषणा की थी।
कोविड की पहली लहर के दौरान लॉकडाउन के बीच जून, 2020 में ये कानून आत्मनिर्भर भारत पैकेज के तहत लाए गए थे। मगर शुरू से ही किसानों का एक वर्ग इनका विरोध कर रहा था। किसानों का मानना था कि इससे एमएसपी व्यवस्था खत्म हो जाएगी और कुछ का मानना था कि इससे कृषि खरीद विपणन समितियों को बड़ा झटका लगेगा। प्रदर्शनकारी किसानों का आरोप था कि इससे कृषि क्षेत्र में बड़ी कंपनियों का दखल हो जाएगा। पंजाब जैसे राज्य भी इसका विरोध कर रहे थे। उनका कहना था कि इससे राज्य की शक्तियां कम होंगी।
निरस्त हो चुके तीन कानूनों में से पहला कानून था कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवद्र्घन एवं सुविधा) अधिनियम, 2020। इसके तहत किसानों और व्यापारियों को निर्धारित मंडियों से बाहर बिना किसी कर या शुल्क के कृषि उपज की खरीद-बिक्री करने की अनुमति दी गई थी। इस कानून के जरिये किसान देश भर में कहीं भी अपनी उपज बेच सकते थे। दूसरा कानून था मूल्य वायदा और कृषि सेवा पर किसान (सशक्तीकरण एवं सुरक्षा) समझौता कानून और तीसरा मौजूदा आवश्यक जिंस कानून में संशोधन था। दूसरे कानून को अनुबंध कृषि कानून भी कहा जाता है, जिसके तहत किसानों और खरीदार के बीच ठेके पर खेती की व्यवस्था दी गई थी।
एक साल से भी ज्यादा समय से हजारों किसान तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने और एमएसपी पर कानूनी गारंटी देने की मांग लेकर दिल्ली की सीमाओं पर प्रदर्शन कर रहे थे। इस आंदोलन की शुरुआत पंजाब के कुछ गांवों में हुई थी, जो धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गया। इसका ज्यादा असर हरियाणा, पश्चिम उत्तर प्रदेश और राजस्थान में दिखा।
केंद्र सरकार ने प्रदर्शनकारी किसानों के साथ मामले को सुलझाने के लिए 11 दौर की बैठकें कीं लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला। 26 जनवरी, 2021 को आंदोलन के दौरान हिंसा की घटनाएं भी हुईं, जब प्रदर्शनकारी किसान तय रास्ता छोड़कर लाल किले पर पहुंच गए। इसमें पुलिस और किसानों के बीच हिंसक झपड़ भी हुई, जिससे आंदोलन को भी झटका लगा। लेकिन भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत की भावनात्मक अपील ने आंदोलन में फिर जान फूंक दी। इसके बाद पंजाब और हरियाणा से शुरू हुए आंदोलन का केंद्र पश्चिम उत्तर प्रदेश हो गया।
आंदोलन के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करते हुए कृषि कानूनों के अध्ययन के लिए उच्च अधिकार प्राप्त समिति गठित की थी। लेकिन प्रदर्शनकारी किसानों ने समिति के सदस्यों को कानून का समर्थक बताकर उसे खारिज कर दिया। समिति ने शीर्ष अदालत को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी लेकिन इसमें क्या कहा गया था, उसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिल पाई। समिति के एक सदस्य ने मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर रिपोर्ट को सार्वजनिक करने का अनुरोध किया था।
