घरेलू व वैश्विक स्तर पर चीन से प्रतिस्पर्धा में खुद को मजबूत स्थिति में लाना और भारत से यूरोप और पश्चिम एशिया व रूस तक जाने वाले दो बड़े आर्थिक गलियारों को मूर्त रूप देना नई सरकार में विदेश मंत्रालय के समक्ष सबसे बड़ी चुनौतियां होंगी। यही नहीं, पड़ोसी देशों से संबंध बेहतर बनाना और जी-20 शिखर सम्मेलन के सफल आयोजन को भुनाना भी इसकी प्राथमिकताओं में शामिल है।
आम चुनाव में जीत पर भले चीनी विदेश मंत्रालय ने प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी को बधाई दी, लेकिन दोनों देश कई मुद्दों को लेकर आमने-सामने हैं। इनमें लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में सीमाई विवाद, क्वाड समूह में भारत की सदस्यता तथा संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता के खिलाफ बहुपक्षीय मामले शामिल हैं। चीन में भारत के पूर्व राजदूत अशोक के कंठ ने हाल में बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया था, ‘यह सबसे महत्त्वपूर्ण है कि भारत और चीन दोनों ही देश अपने सबंधों में मौजूदा उलझाव को खत्म करते हुए आगे बढ़ें। चीन भारत की प्रमुख सामरिक चुनौती है जो खत्म नहीं होगी।’
वैश्विक स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों में भारत अपने पैर जमाना और चीन से प्रतिस्पर्धा में आना चाहता है, जहां अभी उसका एकछत्र राज है। अभी भारत की प्राथमिकता महत्त्वपूर्ण खनिजों को हासिल करने के लिए अफ्रीकी देशों के साथ संधि करना और पूरे महाद्वीप में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए ऋण व्यवस्था का विस्तार करना है। इस क्षेत्र में पिछले दशक में चीन ने भारी निवेश किया है।
विदेश मंत्रालय के लिए आर्थिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण दो व्यापार गलियारों- भारत और पश्चिमी यूरोपीय बाजार को जोड़ने वाला भारत-पश्चिम एशिया -यूरोप इकनॉमिक कॉरिडोर (आईएमईसी) तथा रूस तक भारत की पहुंच आसान करने वाला इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर वाया ईरान एवं मध्य एशिया, को हकीकत की जमीन पर उतारना भी बहुत जरूरी है, ताकि भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था का हिस्सा बन सके।
इसे सभी राजनीतिक दलों ने पूरा समर्थन दिया, लेकिन इस दिशा में अभी बहुत कम प्रगति हुई है। हमेशा की तरह विदेश मंत्रालय को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंध अच्छे हों और उसके हित भी सुरक्षित रहें। साथ ही खासकर जी-20 शिखर सम्मेलन के सफल आयोजन का लाभ उठाते हुए मेक इन इंडिया एवं देश की आर्थिक विकास गाथा के विदेशों में लगातार प्रचार पर भी उसका जोर रहेगा।