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बिहार में ही पड़ रहा फीका शाही लीची का जायका, घट रहा उत्पादन, नहीं मिल रहे वाजिब दाम; पल्प उद्योग भी बदहाल

बिहार में लीची की खेती घटने का सबसे बड़ा कारण वाजिब दाम नहीं मिलना है। साथ ही बदलती जलवायु भी असर दिखा रही है।

Last Updated- May 25, 2025 | 10:20 PM IST
Bihar litchi

लीची का नाम जुबां पर आते ही बिहार याद आता है क्योंकि देश के कुल लीची उत्पादन में इस राज्य की सबसे ज्यादा 40 फीसदी हिस्सेदारी है। बिहार की शाही लीची सबसे अधिक मशहूर और अच्छी मानी जाती है, लेकिन बीते कुछ वर्षों से बिहार में ही लीची का स्वाद फीका पड़ने लगा है। वहां लीची किसान इसकी खेती में अब पहले जितनी रुचि नहीं ले रहे हैं, जिससे बिहार में लीची का उत्पादन घट रहा है। बिहार में लीची की खेती घटने का सबसे बड़ा कारण वाजिब दाम नहीं मिलना है। साथ ही बदलती जलवायु भी असर दिखा रही है। तापमान बढ़ने से लीची के पेड़ जल्दी पुराने पड़ रहे हैं और झुलस रहे हैं, जिससे इसकी पैदावार कम हो रही है। नई पीढ़ी भी लीची की बागवानी के प्रति बेरुखी दिखा रही है। बिहार में लीची का सबसे बड़ा उत्पादक क्षेत्र मुजफ्फरपुर है, जहां शाही लीची सबसे ज्यादा होती है। कभी इस इलाके के आस-पास फलफूल रहीं लीची पल्प इकाइयां भी अब दम तोड़ रही हैं क्योंकि उन्हें सस्ते आर्टिफिशल लीची फ्लेवर से कड़ी टक्कर मिल रही है।

दिलचस्प है कि बिहार में लीची उत्पादन घट रहा है मगर दूसरे प्रमुख लीची उत्पादक राज्यों में पैदावार बढ़ रही है। पंजाब और उत्तर प्रदेश के साथ कुछ नए राज्यों में भी लीची की खेती होने लगी है। इस कारण देश से लीची का निर्यात जोर पकड़ रहा है और पांच साल में कई गुना बढ़ चुका है।

गढ़ में ही पिट रही है लीची

सबसे ज्यादा लीची भारत और चीन में होती है। मगर भारत में लीची के सिरमौर बिहार में लीची का उत्पादन आधा रह गया है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक आम तौर पर 3 लाख टन सालाना होने वाली लीची का उत्पादन अब घटकर 1.5 लाख टन से नीचे चला गया है। कृषि एवं किसान कल्याण विभाग के आंकड़ों के मुताबिक पिछली बार बिहार में 3 लाख टन के करीब लीची का उत्पादन वर्ष 2022-23 में हुआ था, जो 2024-25 में तो घटकर 1.35 लाख टन ही रह गया। इस साल बिहार में लीची का उत्पादन सामान्य से काफी कम होने का अनुमान है।

भारतीय लीची उत्पादक संघ के अध्यक्ष और बिहार के लीची किसान बच्चा प्रसाद सिंह ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया कि इस साल पहले गर्मी बढ़ गई और फिर बेवक्त बारिश हो गई। इससे लीची का नुकसान हुआ है और सामान्य के मुकाबले 60-70 फीसदी फसल ही होने का अनुमान है। बिहार में लीची की सामान्य पैदावार 3 लाख टन है। इस साल 1.75 से 2 लाख टन के बीच लीची पैदा होने की उम्मीद है। मुजफ्फरपुर में राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केंद्र के निदेशक डॉ. विकास दास कहते हैं कि गर्मी ज्यादा पड़ने से लीची की फसल को नुकसान हुआ है मगर उत्पादन पिछले साल से बेहतर हो सकता है क्योंकि पिछले साल लीची की फसल बहुत कमजोर रही थी।

सिंह कहते हैं, ‘पिछले दो-तीन साल से बिहार में लीची की खेती घट रही है क्योंकि किसानों को सही दाम नहीं मिल रहा है। यह फसल 20 से 25 दिन की ही होती है और जल्द खराब हो जाती है। बिहार की लीची के सबसे बड़े बाजार दिल्ली और मुंबई हैं, जहां लीची पहुंचने में 20 से 24 घंटे लगते हैं। किसान सीधे अपनी फसल नहीं पहुंचा सकते और न ही लीची कोल्ड स्टोर में रखने की सुविधा है। इसीलिए किसान पूरी तरह कारोबारियों और बड़े खरीदारों पर निर्भर हैं। उनके बताए दाम पर ही लीची बेचना पड़ती है।’ दिल्ली और मुंबई के लोगों को लीची के लिए 150 से 200 रुपये प्रति किलोग्राम दाम देना पड़ता है मगर लीची किसानों को एक किलो लीची के 60 से 80 रुपये ही मिलते हैं।

वाजिब दाम की कमी के साथ ही मौसम ने भी लीची की खेती बिगाड़ दी है। तापमान बढ़ने से लीची की पैदावार घट रही है, जिससे दाम ज्यादा मिलने पर भी किसानों की कुल कमाई कम हो जाती है। डॉ. दास कहते हैं कि गर्मी बढ़ने पर लीची के पेड़ जल्द पुराने पड़ रहे हैं। पुराने पेड़ों को काटकर छोटा करना होता है। बिहार में लीची के ज्यादातर बाग संपन्न तबके के पास हैं, जो पेड़ों को खुद काटकर छोटा नहीं करते और बाहर से ऐसा कराना महंगा पड़ता है। साथ ही पेड़ छांटने वाले भी कम ही मिलते हैं। बिहार के लीची बागवान दीपक कुमार सिंह का कहना है कि सरकार बेरुखी छोड़कर कोल्ड स्टोर व ढुलाई की पर्याप्त व्यवस्था कर दे तो राज्य में लीची की खेती को बढ़ावा मिल सकता है।

दूसरे राज्यों में बढ़ रहा लीची उत्पादन

बिहार के अलावा पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और हिमाचल प्रमुख लीची उत्पादक राज्य रहे हैं। मगर पिछले 5-6 साल से पंजाब और उत्तर प्रदेश में भी इसकी खेती खूब बढ़ी है। पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड, पंजाब, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लीची की पैदावार बढ़ रही है।

केंद्रीय कृषि विभाग के आंकड़ों के अनुसार बिहार में 2019-20 में 3 लाख टन लीची हुई थी, जो 2024-25 में घटकर 1.35 लाख टन रह गई। मगर इसी दौरान पश्चिम बंगाल में लीची का उत्पादन 72,820 टन से बढ़कर 82,500 टन, छत्तीसगढ़ में 55,910 टन से बढ़कर 60,220 टन, पंजाब में 50,000 टन से बढ़कर 71,480 टन, हिमाचल में 4,610 टन से बढ़कर 7,560 टन और उत्तर प्रदेश में 38,280 टन से बढ़कर 44,000 टन हो गया है।

सिंह के मुताबिक दूसरे राज्यों के किसानों को लीची के बेहतर दाम मिलने के कारण उत्पादन बढ़ रहा है. पंजाब और उत्तर प्रदेश तो दिल्ली के इतने नजदीक हैं कि मामूली नुकसान के साथ लीची वहां जल्दी पहुंच जाती है और अच्छा दाम भी दिलाती है।

भारतीय लीची का बढ़ा निर्यात

विदेश में भारतीय लीची का जायका बहुत मशहूर है, जिससे पिछले पांच साल में भारतीय लीची का निर्यात करीब 6 गुना बढ़ा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2020 में भारत से 89 टन लीची का निर्यात हुआ, जो 2024 में बढ़कर 537 टन हो गया। डॉ. दास का कहना है कि भारत से सबसे अधिक लीची पश्चिम एशिया जाती है। मगर इसे यूरोप और अमेरिका के बाजारों में भी अधिक मात्रा में पहुंचाने की जरूरत है, जिससे लीची का निर्यात कई गुना बढ़ सकता है।

बच्चा प्रसाद सिंह ने बताया कि विदेश से लीची के खरीदार इस साल भी आए हैं। लुलु मॉल में सप्लाई के लिए भी उनके प्रतिनिधि आए हैं। लुलु समूह के देश-विदेश में कई मॉल हैं। सिंह के मुताबिक पिछले साल लुलु समूह ने 80-90 टन लीची खरीदी थी और इस बार 300 टन खरीदने की बात कह रहे हैं। उत्तर प्रदेश की निर्यात से जुड़ी एक कंपनी भी लीची खरीदारी के लिए मुजफ्फरपुर आ चुकी है।

बिहार में दम तोड़ रहा पल्प उद्योग

लीची का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य होने के कारण बिहार में लीची के पल्प का उद्योग भी फल-फूल गया मगर अब उस पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। मुजफ्फरपुर में लीची की बागवानी करने वाले दीपक कुमार सिंह लीची का पल्प भी बनाते हैं। उन्होंने बताया कि लीची का जूस बनाने के लिए पल्प की जरूरत होती है और उद्योग बढ़ने पर उन्होंने भी पल्प बनाना शुरू कर दिया। मगर पिछले तीन साल से पल्प बिक ही नहीं रहा, जिस कारण उन्हें 1.5 करोड़ रुपये का नुकसान झेलते हुए 200 टन पल्प फेंकना भी पड़ा। दीपक के मुताबिक सस्ते आर्टिफिशल लीची पाउडर से लीची का फ्लेवर मिल जाने के कारण अब पल्प की मांग घट गई है। घाटा झेलने के बाद दीपक इस साल पल्प बनाने को तैयार नहीं हैं।

बच्चा प्रसाद सिंह ने कहा कि 5-6 साल पहले बिहार में 40-50 छोटे पल्प निर्माता थे, लेकिन अब इनकी संख्या घटकर 10 के करीब ही रह गई है। मगर आईटीसी, डाबर जैसी बड़ी कंपनियों को पल्प की आपूर्ति करने वाले बड़े पल्प निर्माता बाजार में बने हुए हैं। डॉ. दास बताते हैं कि पल्प गिरे हुए फल का बनता है, इसलिए छोटे पल्प निर्माताओं के न रहने से लीची किसानों को भी नुकसान हो रहा है क्योंकि नीचे गिरे फल की कीमत बाजार में बहुत कम मिलती है। जानकार कहते हैं कि पल्प उद्योग को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार को कोल्ड स्टोरेज का नेटवर्क मजबूत करना होगा।

First Published - May 25, 2025 | 10:20 PM IST

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