पिछले साल के बाद से कई कॉर्पोरेट दफ्तरों में खामोशी छाई हुई है। ठंडे, हरे-भरे और नई पीढ़ी के सूचना प्रौद्योगिकी उपकरणों के सुगबुगाहट के बीच इनका शोर धीमा हो चला है।
गर्म होते कंप्यूटर मदरबोर्ड को ठंडा करते और शोर मचाते हुए पंखे भी अब खामोश हो चुके हैं। नई पीढ़ी के सूचना प्रौद्योगिकी हार्डवेयर अब बिजली की अधिक बचत करते हैं। कुछ अनुमानों से डाटा से जुड़े कारोबार अपनी कुल बिजली जरूरतों को एक-तिहाई या उससे भी अधिक आधुनिक हार्डवेयर और स्मार्ट बिजली प्रबंधन उपकरणों से कम कर सकते हैं।
यह जीत जैसी स्थिति है- ये पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर भी हैं और सस्ते भी। पिछले दो वर्षों में ऊर्जा की बढ़ती लागत ने ऊर्जा की बचत करने वाले सोल्यूशन्स विकसित करने के लिए दिलचस्पी को बढ़ा दिया है। इस मामले में कच्चे तेल की कीमतों में इजाफा संयोग ही है। कारोबार लागत बचाने के लिए अब और अधिक पर्यावरण सजग हो गए हैं।
कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों ने महंगाई दर को भी बढ़ा दिया और अमेरिका और अन्य देशों में लगभग मंदी जैसी स्थिति पैदा कर दी है। लेकिन यह तेल की कीमतों के नई ऊंचाइयों पर पहुंचने से 10-20 साल पहले हुआ। इसकी वजह से दुनिया को वैकल्पिक ऊर्जा के समाधानों को विकसित करने के लिए अतिरिक्त समय मिल गया।
टिकाऊ वैकल्पिक ऊर्जा के लिए चल रही जद्दोजहद का सबसे अधिक फायदा भारतीय चीनी उद्योग को मिलेगा। इस पर हमेशा ही नियंत्रणों का भारी दबाव रहा है। इस अहम जिंस का व्यापार सीधे-सीधे 6 करोड़ किसानों और 6 राज्यों के कई मजदूरों पर असर डालता है।
राज्य गन्ना बिक्री की कीमतें तय करते हैं। चीनी मिलों को उनके उत्पादन का एक हिस्सा नियंत्रित कीमतों पर बेचना अनिवार्य है। मिलें एक छोटे क्षेत्र में ही गन्ना खरीदने के लिए मजबूर हैं। गन्ने के उबले हुए रस (आसवन) पर भी नियंत्रण है, शीरे की बिक्री भी नियंत्रित की गई है, खुले बाजार में महीने-दर-महीने बिक्री के कोटे पर भी सीमा लगाई जाती है, आदि आदि।
नियंत्रण के इन तमाम प्रयासों के बावजूद भारत के मानव श्रम का लगभग 12 प्रतिशत इस उद्योग में लगा हुआ है, जिससे देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 1 प्रतिशत मिलता है। चीनी में 5-7 वर्ष का एक बड़ा चक्र चलता है। चीनी की मांग 2 करोड़ टन प्रति वर्ष है, जबकि इसका उत्पादन (2007-08 में) 2.8 करोड़ टन प्रति वर्ष से (2003-04 में) 1.4 करोड़ टन प्रति वर्ष रहा।
अधिकता के वर्षों में किसानों और मिलों को चीनी की कम कीमतों का सामना करना पड़ा। इस कारण गन्ने की खेती में कमी भी देखी गई। पीने योग्य एल्कोहल के आसवन के अलावा चीनी से कई तरह के दूसरे उत्पाद भी बनाए जा सकते हैं।
कमाई की एक राह खोई (गन्ने का रस निकाल लेने के बाद की स्थिति) भी है जिसे जलाकर बिजली का उत्पादन भी किया जा सकता है। इसके अलावा एक विकल्प और है खोई और अतिरिक्त गन्ने से सेल्यूलोस एथेनॉल का उत्पादन। फिर इस तरह उत्पादित बिजली का करोबार किया जा सकता है और उसे व्यावसायिक ग्रिड में भेजा जा सकता है।
एथेनॉल का इस्तेमाल पेट्रोल में मिश्रण के लिए किया जा सकता है। कच्चे तेल की कीमतों में इजाफे ने इन दोनों कमाई की राहों पर नजर डालने के लिए प्रेरित किया है। चीनी के लिए मांग से अधिक आपूर्ति का इस्तेमाल मुनाफा कमाने के लिए किया जा सकता है और हो सकता है कि बहुतायत के वर्षों में इससे चीनी के मुकाबले अधिक आय हो। इस तरह से कृषि के चक्रीय कड़वे सच को कुछ हद तक हल्का किया जा सकता है।
फिलहाल उद्योग कृषि चक्र की बहुतायत स्थिति में है। गन्ने का बिक्री मूल्य आजकल राजनीतिक सुर्खियों में बना हुआ है, जिसकी वजह से उसे कम करना नामुमकिन हो जाता है। चीनी का नियंत्रण खत्म करना, जिसमें खुले बाजार में मासिक कोटा को हटाना शामिल है और निर्यात पर लगी रोक को कम करना भी राजनीतिक दृष्टि से खतरनाक है।
एथेनॉल की कीमतें (आदर्श रुप में) न तो कच्चे तेल की कीमतों से बंधी हैं और न ही मुक्त हैं बल्कि ये निश्चित हैं। मान लीजिए चीनी उत्पादन का 15 प्रतिशत एथेनॉल में चला जाता है तो इससे चीनी की कीमतें खुद-ब-खुद स्थिर हो जाएंगी। ऊर्जा उद्योग से होने वाली एथेनॉल की मांग इतनी है कि वह आराम से अतिरिक्त आपूर्ति को भी खपा सकती है।
अब जब सभी चीजें सही दिशा में आगे बढ़ रही हैं, तो चीनी उद्योग को चाहिए कि वह उत्पादन को बेहतर करने की कोशिश करे। यह भी एक वजह है कि शेयर बाजार में सूचीबध्द चीनी कंपनियों के शेयरों की कीमतें चक्र के निचले स्तर पर पहुंचने के बावजूद अधिक रहीं।
अभी कच्चे तेल की कीमतों के मुकाबले एथेनॉल की कीमतें मोटे तौर पर 30 से 35 प्रतिशत कम हैं। अगर चीनी उद्योग को इन कीमतों पर मुनाफे का मार्जिन मिल रहा है, ऐसे में आगे संभावनाएं हैं कि अगर कच्चे तेल कीमतें गिरती भी हैं तो भी उद्योग मुनाफा कमाएगा। साथ ही, गन्ने के बचे हुए हिस्से से बिजली भी बनेगी, इसलिए बिजली के कारोबार से हमेशा ही मुनाफा होगा।
हालांकि सुविधाओं और नियंत्रणों से मुनाफे की अधिकता में कमी आ सकती है, लेकिन कच्चे तेल की बढ़ती कीमतों से गिरावट पर रोक लगेगी। इसका मलतब यह भी है कि वैकल्पिक आय के स्रोत बढ़ने की वजह से यह बेहतर पीई गुणक होगा। स्पष्ट आंकड़ों के मामले में इसका मूल्यांकन मुश्किल है, लेकिन लंबे समय में इसमें तेजी देखी जा सकती है।