ब्याज दरों पर बढ़ती महंगाई का तुरंत असर साफ देखा जा सकता है और इसी वजह से दरें खुद भी तेज रफ्तार से चढ़ रही हैं।
नतीजतन यह आर्थिक और औद्योगिक दोनों पहलुओं को प्रभावित कर रही है। बढ़ती ब्याज दरों से न केवल मुद्रा के प्रवाह पर असर पड़ेगा बल्कि बैंक भी कंपनियों को कर्ज देने से पहले कई बार सोचेंगे।
खासकर प्रधान कर्ज दर यानी पीएलआर, जिस पर कंपनियों को बैंक से कर्ज मिलता है, चिंता का विषय बनती जा रही है क्योंकि तीन साल पहले ये दरें 12 से 13 फीसदी के स्तर पर थीं और अब 15 से 17 फीसदी के स्तर पर पहुंच चुकी हैं।
इसका मतलब साफ है कि जिन कंपनियों ने पहले काफी कर्ज ले रखा है या जिन कंपनियों का भविष्य पूरी तरह से कर्ज पर निर्भर रहता है उनके लिए यह स्थिति वास्तव में कष्टकारक है। इस बात पर शायद ही किसी को आश्चर्र्य हो कि ब्याज की बढ़ती दरों ने कई कंपनियों के विकास को या तो रोक दिया है या फिर इस कारण कई कंपनियों को अपनी विकास योजनाओं की रफ्तार धीमी करनी पड़ी है।
दूसरी ओर जिन कंपनियों ने पहले से ही कर्ज ले रखे हैं, उनके लिए अपने मुनाफे और सकल मार्जिन यानी ग्रॉस मार्जिन को बरकरार रख पाना काफी मुश्किल हो रहा है।
सचेत रहने की दरकार
इस स्थिति में खासकर उन कंपनियों को इस वक्त धीरज धरने की जरूरत है, जिन्होंने पूंजी की ज्यादा दरकार होने की वजह से भारी कर्ज ले रखे हैं। मतलब यह कि इस स्थिति में भी ये कंपनियां अपने विकास की रफ्तार और मुनाफे को बनाए रख सकते हैं पर बतौर निवेशक सभी के लिए यह जरूरी है कि व्यापक निवेश वातावरण और बिगड़ने की आशंका के मद्देनजर सतर्क हो जाएं।
इस समय कई कंपनियों के लिए मांग में कमी आई है और कमोडिटी (जिनमें बड़े निवेश के ऐलान कई कंपनियां कर चुकी हैं) की मांग भी अपने चरम पर पहुंचने वाली है यानी इसका चक्र अब मांग को नीचे ही ले जाएगा। जाहिर है कि ऐसे माहौल में शेयरधारकों के रिटर्न पर नकारात्मक असर ही पड़ेगा।
इतना ही नहीं, इन हालात में कर्ज के बोझ और बढ़ती ब्याज दरों में तालमेल बिठाना भी खासा मुश्किल काम है और इसका सीधा प्रभाव शेयरधारकों के रिटर्न पर पड़ेगा। इस बारे में एक निवेश विशेषज्ञ की बात मानें, तो जून 2008 तिमाही में बीएसई की 500 कंपनियों की बिक्री 37 फीसदी की दर से बढ़ी हैं जबकि इबडिटा और पीएटी यानी कर चुकाने के बाद का मुनाफा क्रमश: 19.5 फीसदी और 6 फीसदी के स्तर पर रहा है।
कंपनियों के परिचालन की रफ्तार और शुद्ध मुनाफे की विकास दर धीमी रहने के पीछे लागत मूल्य में इजाफा और ब्याज दरों का बढ़ना ही असली कारण रहा है। खासकर परिचालन मुनाफा पहले के 34.6 फीसदी के मुकाबले 40.3 फीसदी के स्तर पर पहुंच जाने के कारण ब्याज खर्च में बढ़ोत्तरी हुई है।
लिहाजा इसी समान अवधि में परिचालन एवं शुद्ध मुनाफे का अंतर गिरकर क्रमश: 21.1 फीसदी और 9.1 फीसदी हो गया है जो पिछले समान अवधि में क्रमश: 24.3 फीसदी और 11.8 फीसदी था। इससे यह बात भी साफ हो जाती है कि अगर कंपनियां नकदी प्राप्त करने में सफल साबित नहीं हो पाती हैं, तो कर्ज लेने वाली कंपनियों के लिए बढ़ती ब्याज दर घातक साबित होंगी।
इस बारे में कैपिटल आइडिया ऑनलाइन डॉट कॉम के चेतन पारिख कहते हैं कि आमतौर पर बाजार के बेहतर रहने वाली स्थिति में चक्रात्मक कारोबार करने वाली ऐसी कंपनियां जो ज्यादा लीवरेज और कर्ज लेकर कारोबार करती हैं, वे अच्छा मुनाफा बना सकती हैं और जाहिर तौर पर वो एक बढ़िया इंट्रेस्ट कवरेज कर पाती हैं।
लेकिन हालात विपरीत होने पर नकदी प्रवाह को बनाए रख पाना बेहद मुश्किल होता है। फिर भी कंपनियां किसी भी हालत में चक्रात्मक कारोबार में ऑपरेटिंग कर रही हों, उनके लिए खासकर ज्यादा लीवरेजिंग जोखिम अनुपात को बढ़ाने में अहम भूमिका अदा करती हैं।
रोजाना का कारोबार
कई कंपनियों को अपने रोजाना कारोबार के लिए फंड की आवश्यकता होती है जिसे कार्यशील पूंजी या वर्किंग कैपिटल के नाम से जाना जाता है। मौजूदा परिसंपित्तयों में मौजूदा देनदारियों को घटाने के बाद जो शेष बचता है, उसे वर्किंग कैपिटल कहते हैं।
सामान्य शब्दों में कहा जाए तो क्रेडिट टु कस्टमर के रुप में निवेश की गई पूंजी, बिना बिका हुआ माल, दिए गए एडवांस और कैश और बैंक बैलेंस में सप्लायर से प्राप्त किए गए क्रेडिट और प्रोविजन को घटाने पर जो शेष बचता है,उसे वर्किंग कैपिटल कहते हैं।
मसलन किसी कंपनी पर 100 करोड रुपये का कर्ज हैं जबकि 100 करोड़ रुपये का उसका माल है और 50 करोड रुपये का बैलैंस है। इस प्रकार उसकी मौजूदा कुल परिसंपत्ति 250 करोड़ रुपए बैठती है। सिद्धांत रूप से देखा जाए, तो इससे यही पता चलता है कि मौजूदा सेल्स कारोबार के लिए कंपनी को 250 करोड़ रुपये की जरूरत है।
यदि इस पूंजी में देनदारियां भी शामिल होती हैं, जो तकरीबन 150 करोड़ रुपये होती है, तो 100 करोड़ रुपये की नेट कैपिटल या वर्किंग कैपिटल की जरूरत होगी। अब जैसे जैसे कारोबार बढ़ता है, वैसे वैसे वर्किंग कैपिटल की जरूरत भी धीरे धीरे बढ़ती है।
ऐसा तब तक होता रहता है, जब तक कंपनी अपने ऊपर कर्ज कम करके या उसमें बढ़ोतरी पर लगाम कसके या आपूर्तिकर्ताओं से अधिक क्रेडिट समय लेकर वर्किंग कैपिटल का कुशलता के साथ प्रबंधन नहीं करती। व्यावहारिक तौर पर कंपनी की बिक्री के आंकड़ों और कार्यशील पूंजी के आंकड़ों को एक साथ देखना चाहिए क्योंकि इससे निवेश के मामले में सही आकलन करना आसान हो जाता है।
लेकिन कुछ अपवाद भी हैं। ऐसी कई कंपनियां भी है जो वर्किंग कैपिटल का कुशलतापूर्वक प्रबंधन करती हैं और उनकी वर्किंग कैपिटल में कोई बढ़ोतरी नहीं होती या वर्किंग कैपिटल लगभग शून्य हो जाती है। यह तभी संभव होता है जब कंपनियां अपनी लेनदारियों और इनवेंटरी के स्तर को कम करने में कामयाब हो जाती हैं या उनकी मौजूदा देनदारी मौजूदा परिसंपत्ति के लिए पर्याप्त होती है।
दूसरे शब्दों में कहें तो लेनदारियों और देनदारियों का ठीक तरह से रोजाना प्रबंधन किया जाता है। यह तभी संभव होता है जब संबंधित कंपनी की उसके सेगमेंट के कारोबार में बड़ी हिस्सेदारी हो या उनकी बिक्री का चक्र छोटा हो। लेकिन यहां वर्किंग कैपिटल के धीरे धीरे बढ़ने के कुछ और कारण भी हैं। जैसे क्रेडिटर को बाद में भुगतान किया जाए या ग्राहक को पेशगी भुगतान करने के लिए कहा जाए।
इनवेंटरी का कुशलतापूर्वक प्रबंधन भी कई मामलों में मदद करता है। जैसे हिंदुस्तान यूनिलीवर, हीरो होंडा, भारती एयरटेल, वरुण शिपिंग, कोलगेट ऐसी कंपनियों में हैं जिनके पास नकारात्मक वर्किंग कैपिटल है लेकिन उन्हें 30 से 150 फीसदी के बीच ऊंचा रिटर्न प्राप्त करने का मौका भी मिलता है।
गुनहगार
जीरो या नकारात्मक वर्किंग कैपिटल हासिल करना कंपनियों के लिए सपने के सच होने जैसा है। सिर्फ इसलिए नहीं कि कंपनी को बहुत बड़ी संख्या में वर्किंग कैपिटल की जरुरत होती है या उन्हें इससे अपने कारोबार में बेहतर प्रगति हासिल करने में मद्द मिलती है बल्कि उद्योग की प्रकृति और कारोबार की चक्रीय प्रकृति यहां बहुत बड़ी भूमिका अदा करती है।
बिक्री में एक रुपये का इजाफा भी करना हो, तो कुछ वर्किंग कैपिटल की जरुरत होती है। यह कभी कभी बिक्री की 60 फीसदी होती है। जैसे कोई कंपनी अपने उत्पादों का निर्यात करती है, तो उसे अपने ग्राहकों के बीच साख बनानी होगी। इसके अलावा उसे अपने उत्पाद बेहतर बनाने के लिए लगातार निवेश भी कना पड़ेगा।
जब किसी उद्योग में मांग ऊंची होती है, तब कंपनियां अपनी मौजूदा क्षमताओं को बढ़ाती हैं या नई क्षमताओं में निवेश करती हैं ताकि अवसर का बेहतर तरीके से फायदा उठाया जा सके। ऐसी विस्तार योजनाएं तब वापस ले ली जाती हैं जब ब्याज दरें नीची होती हैं।
यद्यपि ऊंची वर्किंग कैपिटल की जरुरत या ऊंचे डेट लेवल को खराब नहीं माना जाता है, लेकिन ब्याज दरों के बढ़ने पर यह सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाता है। विशेषकर जब कंपनी पर्याप्त नकद जुटाने में सफल नहीं हो पाती, उसका इंट्रेस्ट कवरेज रेश्यो कम होता है, इक्विटी में कर्ज की हिस्सेदारी ज्यादा होती है, मार्जिन भी कम होता है या बिक्री के आंकड़े उम्मीद के मुताबिक नहीं बढ़ रहे होते हैं, तो उसे ज्यादा चोट पहुंचती है।
मसलन किसी निर्माण कंपनी की बात करें, तो उसे कार्यशील पूंजी की जबरदस्त जरूरत होती है और यही वजह है कि ब्याज दरें बढ़ने का सबसे ज्यादा असर भी निर्माण कंपनियों पर ही हो रहा है। इसकी वजह यह भी है कि ये कंपनियां रियल एस्टेट जैसे क्षेत्रों में निवेश करती हैं, जहां अधिक पूंजी की जरूरत होती है और परियोजना पूरी होने में भी बहुत ज्यादा समय लगता है यानी लंबे समय के लिए पूंजी फंस जाती है।
कई रियल एस्टेट कंपनियों ने पिछले कुछ समय में अल्पकालिक ऋण लेकर ऊंचे दामों पर जमीनें खरीदीं। बाद में उन्हें वर्किंग कैपिटल की जरूरत पड़ी। लेकिन ब्याज दरों में जबरदस्त उछाल आने के कारण अब इन कंपनियों के लिए वर्किंग कैपिटल का टोटा हो रहा है। ज्यादा बुरी खबर यह है कि मांग में कमी आ रही है, खास तौर पर आवासीय और व्यावसायिक परिसरों को बहुत कम लोग पूछ रहे हैं।
ऐसे में इनवेंटरी बढ़ जाती है और कंपनी की वित्तीय हालत भी खस्ता हो जाती है। पारिख का कहना है कि रियल एस्टेट कंपनियां अपनी इनवेंटरी को तब तक रख सकती हैं जब तक उनके पास मजबूत नकदी प्रवाह हो, ऊंची वर्किंग कैपिटल और उसके लिए डेट की कोई समस्या न हों। लेकिन ये चींजें जब विपरीत जाती हैं तो कंपनियों को अपनी इनवेंटरीज की बिक्री करनी पड़ती है।
एचडीआईएल, कोलटे पाटिल, पेनिंसुला लैंड, शोभा डेवलेपर्स, हिंदुस्तान कंस्ट्रक्शंस और ऑर्बिट कॉर्पोरेशन की वर्किंग कैपिटल जरुरत कुल सेल्स टर्नओवर के 70 से 270 फीसदी के दायरे में आती है। हालांकि यह तब तक खराब संकेत नहीं है जब तक कंपनियां पर्याप्त नकदी जुटा लेती हैं, डेट-इक्विटी के अनुपात और इंट्रेस्ट कवरेज रेश्यो को बरकरार रखती हैं।
एचडीआईएल और पेनिंसुला के मामले में उनकी वर्किंग कैपिटल 210 फीसदी और 121.4 फीसदी केदायरे में है। इन दोनों कंपनियों का डेट टु इक्विटी 0.85 और 0.29 है जबकि इंट्रेस्ट कवरेज रेश्यो क्रमश: 10.6 और सात गुना है, जिससे इन कंपनियों को सुविधा होती है।
अतीत पर नजर
विभिन्न क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए, तो वे कंपनियां भी उदाहरण हैं, जिनकी डेट और कैपिटल संबंधी जरूरतें काफी बढ़ चुकी होती हैं।?लेकिन अगर शुरुआती दौर में ही कंपनियां इस बात को समझ लें, तो उनके लिए इस पर काबू करना काफी आसान हो जाता है।
उदाहरण के लिए जेबी कैमिकल्स की वर्किंग कैपिटल उसके बिक्री अनुपात की 60 फीसदी है। इसके कारण उसके ग्राहकों का क्रेडिट पीरियड 209 दिन का है, लेकिन खुद उसे आपूर्तिकर्ता से महज 44 दिन का क्रेडिट मिलता है।
मार्च 2008 तक जेबी पर 196.3 करोड़ रुपये का कर्ज था और वह 17.98 करोड़ रुपये मय ब्याज चुका रही थी, यह राशि उसके शुध्द लाभ की 40 फीसदी थी। उसका इंट्रेस्ट कवरेज 3.73 गुना था। कंपनी ने धीरे-धीरे कारोबार में जो पूंजी लगाई थी, वह 23 फीसदी की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि?दर (सीएजीआर) के साथ बढ़ी, लेकिन पिछले पांच साल के दौरान उसकी बिक्री में महज 15 फीसदी की ही सीएजीआर हुई।
इस दौरान वित्तीय वर्ष 2003 में उसका मुनाफा 48.54 करोड़ रुपये था, वह वित्तीय वर्ष 08 में बढ़क र सिर्फ 51 करोड़ रुपये ही हुआ। इसका सबसे बड़ा कारण उसके इबडिटा मार्जिन में गिरावट है। यह मार्जिन वित्तीय वर्ष 2003 में 24.45 फीसदी थी, वित्तीय वर्ष 2008 में घटकर 14.8 फीसदी हो गया।
डीसीएम श्रीराम कंपनी ने वित्तीय वर्ष 2003 से वित्तीय वर्ष 2008 के दौरान अपनी बिक्री में तो 14.74 फीसदी का इजाफा करने में कामयाबी हासिल की, लेकिन उसका इबडिटा मार्जिन जो 2003 में 13.92 फीसदी था, गिरकर 8.18 फीसदी ही रह गया। दूसरी ओर उस पर कर्ज 543 करोड़ रुपये से बढ़कर 1,743 करोड़ रुपये हो गया।
वित्तीय वर्ष 2008 में उसका डेट-इक्विटी अनुपात 1.55 था। इस स्थिति में अगर कंपनी का ब्याज बढ़ रहा है तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। डीसीएम का ब्याज तो बढ़कर 87.61 करोड़ रुपये हो गया, लेकिन उसका शुध्द लाभ सिर्फ 3.47 करोड़ रुपये ही रहा। इसका प्रभाव उसके आरओसीई पर भी पड़ा जो वित्तीय वर्ष 2003 में 17.86 फीसदी था, वित्तीय वर्ष 2008 में घटकर 3.93 फीसदी रह गया।
मोजर बेयर का डेट-इक्विटी अनुपात वित्तीय वर्ष 2002 के 0.73 फीसदी से बढ़कर वित्तीय वर्ष 2008 में 1.07 फीसदी हो गया (कुल कर्ज 3,184 करोड़ रुपये)। इस अवधि में भले ही कंपनी की बिक्री तीन गुना बढ़ी हो, लेकिन उसकी मुनाफा कमाने की क्षमता में कोई खास परिवर्तन नहीं आया और इसका उस पर बुरा प्रभाव पड़ा।
कंपनी ने वित्तीय वर्ष 2002 में 215 करोड़ रुपये का लाभ अर्जित किया था, लेकिन वित्तीय वर्ष 2008 में उसे 78.91 करोड़ रुपये का घाटा हुआ। हालांकि उसका इबडिटा मार्जिन वित्तीय वर्ष 2002 में 47.5 फीसदी था और वित्तीय वर्ष 2008 में घटकर 26.10 फीसदी ही रह गया।?इसे देखते हुए यह घाटा कम है। इसकी वजह यह है कि ऑपरेटिंग प्रॉफिट से मिली पूंजी से कंपनी ने ब्याज चुकाया।
वित्तीय वर्ष 2002 में कंपनी ने 37.55 करोड़ रुपये का ब्याज चुकाया, वित्तीय वर्ष 2008 में यह बढ़कर 179.36 करोड़ रुपये हो गया जबकि इसी समयावधि में उसका इंट्रेस्ट कवरेज 6.86 गुना से घटकर 0.45 गुना ही रह गया।
कंपनियों के इस खस्ताहाल के यूं तो कई कारण गिनाए जा सकते हैं। लेकिन दरअसल कुल मिलाकर यह कंपनियों के लिए चेतावनी है कि अगर वे अभी इन परेशानियों से नहीं उबरीं तो देर-सवेर इसका असर उनकी वित्तीय स्थिति पर पड़ने लगेगा। आगे उनकी इक्विटियों पर मिलने वाले रिटर्न और कैपिटल इंप्लायड अनुपात में गिरावट होगी।
हालांकि यह तो अतीत की बात है। ऊपर गिनाए कारणों का यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए कि ये कंपनियां निवेश के लिए अच्छी नहीं हैं लेकिन निवेशक आगे जाने की बात तो सोच ही सकते हैं। के आर चोकसी शेयर एंड सेक्योरिटीज के सीईओ देवेन चोकसी ने बताया कि अगर कारोबार उस पर लगाई गई पूंजी के अनुसार आगे नहीं बढ़ता है तो लंबी अवधि में इसका परिणाम शेयर धारकों की पूंजी डूबने के रूप में आ सकता है और तब स्थिति लगातार भयावह ही होती जाएगी।
चेतने का समय
यहां ज्यादा डेट या ज्यादा वर्किंग कैपिटल के संभावित परिणामों को समझाने का प्रयास किया जा रहा है, लेकिन इनके अतिरिक्त कई ऐसे कारण हैं जो कंपनी की किस्मत तय करते हैं। किसी कंपनी की संरचना दूसरी बात है, लेकिन उसके लिए सबसे अहम बात यह है कि वह इतना मुनाफा कमाए की वह अपने शेयरधारकों को लाभांश वितरित कर सके, साथ ही वृध्दि दर को बरकरार रखने के लिए अपनी कंपनी में पुन:निवेश कर सके, भले ही उसे इसके लिए कुछ मात्रा में कर्ज लेना पड़े। अगर वह नहीं करती है तो इसका असर शेयरों पर मिलने वाले रिटर्न पर पड़ता है।
ऊपर दिए उदाहरण भूतकाल के हैं, जिनका अर्थ यह भी है कि कंपनियों का भविष्य उन उपायों पर टिका है जिसके जरिए वे और ताकतवर होकर सामने आ सकें। लेकिन यहां दी गई दो टेबलें सिर्फ कंपनियों की वर्तमान दशा को बताती हैं, जिस पर निवेशकों को ध्यान देना चाहिए।