चीनी और सीमेंट के बाद शायद स्टील की शामत आ गई क्योंकि बढ़ती स्टील की कीमतों को नियंत्रित करने के सरकारी प्रयास शुरु हो गए।
स्टील की कीमतों को नियंत्रित करने की मुख्य वजह देश में बढ़ती महंगाई को काबू करना है। हालांकि स्टील की कीमतों को नियंत्रित करने से महंगाई तो काबू आ जाएगी लेकिन यह निवेशकों के लिए अच्छी खबर नहीं है क्योंकि इस सरकारी कदम केबाद स्टील सेक्टर की हालत भी चीनी उद्योग और सीमेंट सेक्टर की तरह हो सकती है।
एक स्वतंत्र स्टील कंपनी केमुख्य वित्तीय अधिकारी का कहना है कि इन नए सरकारी प्रयासों से न सिर्फ स्टील उद्योग के लाभ पर फर्क पड़ सकता है बल्कि यह निवेशकों को हतोत्साहित करने वाला कदम भी है। भारतीय स्टील उद्योग की हालत तब ज्यादा बेहतर होगी जब स्टील की घरेलू कीमतें सीधे अंतरराष्ट्रीय बाजार से जुड़ी हुई हों।
यह सिर्फ तभी संभव है जब भारत में मुक्त अर्थव्यवस्था के नियमों का सख्ती से पालन किया जाए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्टील की कीमतें तेजी से बढ़ी है जबकि घरेलू स्टील की कीमतों में उतनी बढ़ोतरी नहीं हुई है। अगर अंतर पर नजर डाली जाए तो यह घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर के बीच 100 डॉलर प्रति टन का है। हाल में ही सरकार के स्टील के दामों पर नियंत्रण करने के प्रयासों से स्टील कंपनियों पर दबाव तेजी से बढ़ा है।
इसके अतिरिक्त घरेलू स्टील पर निर्यात डयूटी बढ़ा देने के बाद कंपनियों के निर्यात में कमी आई है। तैयार उत्पादों की कीमतों पर नियंत्रण ऐसे समय आया है जबकि स्टील कंपनियां पहले से ही लागत बढ़ने की वजह से कीमतों में दबाव का सामना कर रही है। कच्चे माल जैसे कोक की कीमतों में पिछले साल की तुलना में 200 फीसदी से भी ज्यादा का उछाल आया है जबकि लौह अयस्क की कीमतों में 65 फीसदी से भी ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है।
इसके अलावा रुपये की कीमतों में कमी और कुकिंग कोक पर चीन के निर्यात शुल्क बढ़ाने की वजह से भी कुछ कच्चे माल की कीमतों में परिवर्तन आया। लागत में लगने वाले माल की कीमत बढ़ने का असर स्टील कंपनियों के तिमाही और सालाना परिणामों पर साफ देखा जा सकता है। उदाहरणस्वरुप जेएसडब्ल्यू स्टील के ईबीआईटीडीए मार्जिन में 5.75 फीसदी की गिरावट आई और यह 25.9 फीसदी केस्तर पर पहुंच गया।
मोनेट इस्पात, मुकुंद और अन्य पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ा। यहां तक सेल जैसी बडी क़ंपनियां भी जो 100 फीसदी लौह अयस्क का इस्तेमाल करती हैं,कोयले पर निर्भर हैं और वह अपनी जरुरत का दो-तिहाई कोयला आयात करती है। हाल में ही सरकार ने स्टील कंपनियों पर दबाव बनाया है कि वे स्टील की कीमतों में बढ़ोत्तरी वापस लें।
सपाट उत्पादों के 4,000 रुपए प्रति टन और बड़े उत्पादों के लिए 2,000 रुपये प्रति टन की कीमत वापसी का दबाव सरकार ने स्टील कंपनियों पर बनाया। इन प्रावधानों का कंपनियों को अगले तीन महीनों तक पालन करना था। लेकिन यह कंपनियों के लिए बेहद पीड़ादायक रहा।
यदि स्टील की कीमतों को बाजार के अनुसार चलने नहीं दिया जाता है और कंपनियों पर कच्चे माल की कीमतों में बढोत्तरी का दबाव बना रहता है तो इन कंपनियों को काफी बुरे हालात का सामना करना पड़ सकता है। रेलिगेयर सिक्योरिटीज के एक स्टील विशेषज्ञ का कहना है कि कोक के दामों में फिर लगभग 100 फीसदी तक की बढोत्तरी की गुंजाइश है। इससे कंपनियों पर बहुत ज्यादा दबाव पड़ेगा।
स्टील की कीमतों में नियंत्रण के अलावा सरकार ने स्टील के विभिन्न उत्पादों पर 5 से 15 फीसदी तक आयात कर भी लगा दिया है जिसका उद्देश्य है कि स्टील की घरेलू बाजार में उपलब्धता बढ़ाई जाए और घरेलू कीमतों में कमी लाई जाए। गौरतलब है कि 15 फीसदी कर प्राथमिक उत्पादों पर लगाया गया है जबकि हॉट रोल्ड कॉयल और शीट्स (चद्दर) जैसे स्टील उत्पादों पर 10 फीसदी कर थोप दिया गया है।
इस कदम से उन सभी स्टील कंपनियों को नुकसान पहुंचेगा जो विदेशों को स्टील का निर्यात करती हैं और अपनी सहयोगी कंपनियों को उनकी आपूर्ति पर भी प्रभाव पडेग़ा। एक स्वतंत्र स्टील कंपनी केमुख्य वित्तीय अधिकारी का कहना है कि हमने विदेशों में स्टील कंपनियों को इसलिए खरीदा है कि हम विदेशी बाजारों में अपनी पहुंच बना सकें और इसके अलावा लो कॉस्ट लाभ का फायदा भी ले सके।
इसी आशा में हम घरेलू स्टील उत्पादन की अपनी क्षमता को बढ़ा रहे हैं। लेकिन प्रस्तावित कर से कंपनियों के हालात पर काफी बुरा असर पड़ सकता है। भारतीय स्टील कंपनियों जैसे टाटा स्टील ( जिसने कोरस का अधिग्रहण किया है) और जेएसडब्ल्यू स्टील (जिसने एक अमेरिकी स्टील कंपनी को खरीदा है) ने कई विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण किया है।
लेकिन अब इन कंपनियों के लिए अपनी विदेशी सहयोगियों की जरुरतों को पूरा करना मुश्किल हो गया है। इसकी वजह कंपनियों की कीमतों पर दबाव है। रुपये की कीमत में डॉलर की तुलना में गिरावट और तमाम तरह केकरों के आरोपण के बाद कंपनियों की हालत बहुत बुरी बनी हुई है। अब काफी कुछ रुपये की कीमतों की स्थिरता पर निर्भर करता है।
सुजाना समूह के निदेशक वीएसआर मूर्ति ने बताया कि निर्यात शुल्क की ऊंची दर के चलते कंपनियां अतर्राष्ट्रीय बाजार में निर्यात नहीं कर सकतीं। इससे घरलू बाजार में स्टील की उपलब्धतता अधिक हो गई है जिसके चलते उसकी कीमतों में इजाफा नहीं हो सकता। इसका असर देशी इस्पात कपनियों के मार्जिन पर पड़ रहा है। (निर्यात बाजार में कंपनियों को इस तरह कीमतें नहीं मिल रहीं हैं।)
आयात में ढील
कच्चे माल की बढ़ती कीमतों के प्रभाव को कम करने और स्टील निर्माताओं को राहत प्रदान करने के लिए सरकार ने कोकिंग कोक जैसे कुछ माल पर आयात शुल्क 5 प्रतिशत से घटाकर शून्य कर दिया है। इसका भले ही सकारात्मक असर पड़े, लेकिन इससे कुछ अन्य घटकों में हो रहे नुकसान की थोड़ी भरपाई भर ही हो पा रही है।
आधुनिक मेटलिक्स के डॉयरेक्टर जीडी अग्रवाल ने बताया कि भले ही कोकिंग कोल पर लगने वाला आयात शुल्क कम कर दिया है, लेकिन इस दौरान कोयले के दाम काफी बढ़ गए हैं। भारत में अधिकांश कोकिंग कोक का आयात चीन से होता है, जिसने इस पर निर्यात शुल्क 20 प्रतिशत बढ़ा दिया है। उसे देखते हुए कोयले की यहां कीमतें काफी अधिक हैं। रुपये के अवमूल्यन से यह आयात बेहद महंगा हो गया है।
इन कारकों के अतिरिक्त यह क्षेत्र माल-भाड़े की दर में इजाफे से भी परेशान है। इससे कोकिंग कोल के आयात की लागत बढ़ सकती है। इन सब कारणों का असर सभी स्टील कंपनियों के आगामी तिमाही नतीजों पर दिखेगा। एक आकलन के अनुसार एक टन स्टील के उत्पादन के लिए लगभग 1 टन कोकिंग कोल की आवश्यकता होती है। कोयले की कीमतों में 200 डॉलर प्रति टन इजाफे से स्टील उत्पादन प्रति टन 8,400 रुपये महंगा हो जाएगा।
स्टील क्षेत्र की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होती। कच्चे लोहे के दाम भी उसकी पेशानी में बल डाल रहे हैं। यह स्टील उत्पादन में लगने वाला सबसे अहम कच्चा माल है। कच्चे लोहे की कीमतों में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दोनों बाजारों में इजाफा हुआ है। हालांकि भारत में जरूरत के अनुसार पर्याप्त कच्चे लोहे के भंडार हैं। देश में प्रतिवर्ष इसका उत्पादन 17 करोड़ टन है,जबकि घरेलू बाजार में खपत महज 8-10 करोड़ टन ही है।
लेकिन घरेलू स्टील बाजार में अंतरराष्ट्रीय चलन का असर पड़ने लगा है। इसे देखते हुए स्टील निर्माता इसकी भी कीमतें बढ़ने की समस्या का सामना कर रहे हैं। इस क्षेत्र ने कच्चे लोहे के निर्यात को रोकने के लिए इसके निर्यात पर 15-20 प्रतिशत यथा मूल्य शुल्क लगाने का अनुरोध किया है। हालांकि इस पर सरकार को कोई निर्णय लेना बाकी है।
देशी स्टील निर्माता कंपनियों में कुछ ही के पास कच्चे लोहे की अपनी खदानें हैं। इनमें टाटा स्टील और सेल के नाम उल्लेखनीय हैं। बाकी अधिकतर खदानों पर सरकार का नियंत्रण है। स्टील निर्माताओं ने सरकार से अनुरोध किया है कि वे अपने नियंत्रण वाली कंपनियों एनएमडीसी, एमओआईएल और कोल इंडिया से कच्चे लोहे की कीमतें कम करने को कहें ताकि इस क्षेत्र को कुछ राहत मिल सके।
अगर सरकार यह अनुरोध मान लेती है तो स्टील क्षेत्र को अपनी लागत घटाने में मदद मिलेगी और उनकी कमाई में इजाफा होगा। कुल मिलाकर कच्चे लोहे की कीमतें स्टील निर्माताओं के लिए चिंता का प्रमुख कारण बनी रहेंगी और इसका असर उनके मार्जिन पर पड़ेगा। खासकर के उन कंपनियों पर जिनकी स्वयं की खदानें नहीं हैं।
नजरिया
घरेलू स्टील उद्योग की मांग 11-12 प्रतिशत है,लेकिन आपूर्ति महज 5 प्रतिशत पर अटकी हुई है। इन कंपनियों की अधिकांश विस्तार योजनाएं वित्तीय वर्ष 2009-10 से साकार रूप लेने लगेंगी। हालांकि टाटा का 18 लाख टन उत्पादन क्षमता वाला प्लांट जून 2008 से ही उत्पादन प्रारंभ कर देगा, जबकि जेएसडब्ल्यू स्टील का 30 लाख टन क्षमता वाला प्लांट सितंबर 2008 से उत्पादन प्रारंभ करेगा। इसके चलते आपूर्ति की स्थिति तंग बनी रहेगी।
परंपरागत रूप से भारतीय स्टील उद्योग बुनियादी क्षेत्र में होने वाले लंबी अवधि के निवेश पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए हुए है। 11 वीं पंचवर्षीय योजना में इस क्षेत्र में 50 करोड़ डॉलर का निवेश की योजना है।
कच्ची धातुओं की कीमतों में इजाफे पर काबू पाने में नाकाम कंपनियां
इन तरह के विकास कार्यक्रमों से स्टील सेक्टर और इसके लांग-टर्म उद्देश्य पर बुरा असर पड़ सकता है। लिहाजा, इन कंपनियों में निवेश के ख्याल से निवेशकों के लिए ज्यादा जोखिम हैं। इसके अलावा ऐसे विकास के कामों से बीती घटनाओं की भी याद आती है,जो चीनी और सीमेंट की कंपनियों के साथ कुछ साल पहले हुई थी,और जिनके शेयर अभी भी कम कीमतों पर कारोबार कर रही हैं।
हालांकि इसके दूसरे सकारात्मक पहलू भी हैं। इस बाबत मोतीलाल ओसवाल सिक्योरटीज के संयुक्त प्रबंध निदेशक रामदेव अग्रवाल का कहना है कि जहां कहीं भी इन विशेष सेक्टरों में सरकार का हस्तक्षेप रहा है,वहां-वहां सेक्टर निवेशकों को आकृष्ट करने में नाकाम रहा है। खासकर,साइक्लिकल उद्योगों की बात करें तो यहां निवेशकों का टोटा है और इसलिए बाजार में इनकी कीमतों में गिरावट दर्ज हुई है।
हालांकि, लंबी अवधि के निवेशकों के लिए यहां भी अवसर मौजूद हैं और वे इस अनिश्चतता के दौर को भी अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। वे इस दौर का इस्तेमाल अच्छी कंपनियों को चुनने में कर सकते हैं और जैसा अब तक का इतिहास रहा है कि ऐसे दौर में एक चतुर निवेशक कौड़ी के भाव पर अच्छे शेयरों को खरीदता है और बाजार के फिर से मजबूत होने पर कई गुना कमाई करता है।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो दन कंपनियों में जहां एक तरफ जोखिम हैं, वहीं दूसरी ओर लांग टर्म नजरिये के लिहाज से निवेशक उन कंपनियों में निवेश कर सकते हैं जो एकीकृत हैं और जिनका विदेशी बाजारों में कारोबार करने को लेकर इच्छा है।
इस बाबत क्वांटम एडवाइजरी के आईवी सुब्रमणियम का कहना है कि छोटे निवेशक जो कम समय के लिए निवेश कर मुनाफा करने वाले होते हैं, उन्हें इन कंपनियों में निवेश से दूर रहना चाहिए (खासकर जहां राजनीतिक जोखिम हो) और सिर्फ वे ही निवेशक इसमें निवेश करें जो निवेश कर ठहरना जानते हों और नीतियां बदलने तक का इंतजार कर सकते हों।
हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि निवेशकों के लिए एकीकृत कंपनियों और संसाधनों का अच्छी तरह से इस्तेमाल करने वाली कंपनियों में कम जोखिम का काम होगा। मसलन, टाटा स्टील कंपनी को इस फेहरिस्त में शामिल किया जा सकता है जो कच्चे माल की कीमतों में कोई इजाफा न करे और जो स्टील की बढ़ी हुई कीमतों से फायदा उठाने की कोशिश करे,क्योंकि इस कंपनी की 75 फीसदी क्षमता भारत से बाहर (जैसे कोरस संयंत्र) स्थित है।
इस प्रकार संपूर्ण तौर पर देख जाए तो इन गतिविधियों के आलोक में विशेषज्ञों का मानना है कि कम से कम अगली दो तिमाहियां ज्यादातर स्टील कंपनियों के लिए कठिन साबित हो सकती हैं। हालांकि इनमें एक जबरदस्त सुधार तभी आ सकता है जब सरकार की नीतियों में कुछ सकारात्मक बदलाव आए।
मसलन, निर्यात शुल्क को फिर से हटा लेना और कच्चे माल की कीमतों में स्थिरता या फिर गिरावट होने पर उसके अनुकूल कदम उठाना आदि-आदि। तब तक यह अनिश्चितता का दौर प्रभावी रहेगा कहने का मतलब कि स्टील शेयरों में स्थिति ज्यादा जोखिम और ज्यादा कमाई जैसी है।