ऐसे समय में जब बाजार क्रेडिट संकट से जूझ रहा है, विदेशों में सेवाएं दे रहीं भारतीय बैंकों ने अपने क्लाइंटों की जरूरतों को पूरा करने के लिए विदेशों में अपने कारोबार का एक हिस्सा घरेलू शाखाओं में स्थानांतरित कर दिया है।
एक बैंकर ने बताया कि इस तरह कारोबार को शिफ्ट करने से घरेलू शाखाओं के लिए खासी मुश्किल आ खड़ी हुई हैं। क्योंकि यहां के बाजार में पहले ही क्रेडिट की स्थिति काफी तंग है। हाल के माह में भारतीय बैंक विदेशों में फंड उगाही करने में असफल रहे हैं। अब मजबूरन पहले से ही मंजूर कर्जों के लिए वे रुपये में फंड जुटा रहे हैं।
एक्सिस बैंक के चेयरमैन पीजे नायक ने बताया कि विदेश के क्रेडिट मार्केट से कोई फंड नहीं मिल रहा है। अब बैंकों की पहली प्राथमिकता पहले से मंजूर कर्जों को का आवंटन है। चूंकि बैंकों ने काफी बड़ी संख्या में भारतीय कंपनियों को कर्ज दिया है। लिहाजा अब हम बैंकें विदेशी मुद्रा की जगह रुपये की क्रेडिट का उपयोग कर सकते हैं।
एक सार्वजनिक क्षेत्र की बैंक के प्रमुख ने बताया कि पिछले एक पखवाड़े से विदेशी शाखाओं से कोई कारोबारी लेन देन नहीं हुआ है और बैंकों ने अपने भारतीय क्लाइंटों को ट्रेड फाइनेंस जैसी सेवाएं घरेलू शाखाओं के जरिए उपलब्ध कराई। एसबीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार 2007 के अंत में जब विदेशी बाजारों में तरलता बह रह थी।
उस समय बैंकों के लिए अपने संसाधन जुटाना बेहद आसान था। लेकिन वित्तीय बाजार के समस्याओं के घिर जाने के बाद से यह फंड फ्लो बिलकुल कम हो गया है। अब जो संसाधन आ भी रहे हैं उनकी लागत काफी अधिक है।
बैंकर ने आगे बताया कि कुछ विकसित देशों के वित्तीय बाजार में आए संकट से भारतीय बैंकों का विदेशों में विस्तार के जरिए अपनी बैलेंस शीट को मजबूत करने और भारतीय कंपनियों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में विलय और अधिग्रहण में मदद करने का सपना धरा का धरा रह गया है। 2008-09 में तो बैंकों की बैलेंस शीट सिकुड़ने की संभावना अधिक है।
एक बैंकर के अनुसार अब आयात-निर्यात को बढ़ाव देने के लिए की जाने वाली ट्रेड फाइनेंसिंग पर खासा प्रभाव पड़ेगा क्योंकि अब बैंके अंतर्राष्ट्रीय फंडिंग में खासी कटौती की है। एक अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के कार्यकारी ने बताया कि बैंकों के लिए संसाधन जुटाने की लागत खासी बढ़ती जा रही है। इससे कर्ज काफी महंगा हो गया है जिसे लेने वालों की संख्या में खासी कमी आई है।
इसके साथ ही स्थानीय क्लाइंट और विदेशों में फंड जुटाने वाली भारतीय कंपनियों दोनों की मांग में काफी कमी आई है। बैंक ऑफ बड़ौदा के चेयरनमैन और मैनेजिंग डॉयरेक्टर एमडी माल्या ने बताया कि अंतर्राष्ट्रीय कारोबार में लगातार गिरावट हो रही है। उनकी बैंक को अंतर्राष्ट्रीय एडवांस 2006-07 में 16,358 करोड़ रुपये थे जो 2007-08 में बढ़कर 22,200 करोड़ रुपये हो गए।
यूनियन बैंक ऑफ इंडिया की हांगकांग शाखा के एक कार्यकारी ने बताया कि नए कारोबार में प्रवेश करने से पहले हर व्यक्ति पूरी सतर्कता बरत रहा है। हालांकि उनका दावा है कि यह सब सामान्य ही है और कारोबार के नए अवसर बन रहे हैं। यह अवसर कई अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों के बाजार से हटने से बनी जगह के कारण निर्मित हो रहे हैं।